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जयंती (22 मई) पर विशेष
– ज्ञानेन्द्र रावत*
अपने जीवन को मानव कल्याण हेतु समर्पित करने, सभी धर्मों के मध्य समन्वय स्थापित कर एक नये बुद्धिवादी संप्रदाय की स्थापना करने वाले महान समाज सुधारक और भारतीय पुर्नजागरण के जनक के रूप में विख्यात व्यक्ति का नाम है राजा राम मोहन राय। परिस्थितियों ने उन्हें सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र में ऐसा दृष्टिकोण प्रदान किया जिसने उन्हें बंगाल के पुर्नजागरण के अग्रणी नेता, अन्वेषक व मार्गदर्शक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। इनका जन्म पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के ग्राम राधानगर में 22 मई सन् 1772 में एक सभ्रांत परिवार में हुआ था। इनके पिता रामकांत राय और माँ श्रीमती तारिणी देवी कट्टर हिंदू धर्मावलम्बी और इनका परिवार परंपरावादी था।
राजा राम मोहन राय का जीवन संघर्षों की एक लम्बी श्रृंखला है जिसमें जहां कभी उन्हें अपने ही घर-परिवार में तो कभी परंपरावादी-आडम्बर और मूर्ति-पूजको के विरोध का सामना करना पड़ा। कभी पिता के आदेश से घर से बाहर निकलने का दंश झेलना पड़ा, तो, कभी नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा, तो कभी अपने विचारों के कारण समाज व परिवारी जन-आत्मीय जनों के आरोपों-लांछनों का सामना करना पड़ा, तो कभी तिब्बत में बौद्ध-पुरोहितों से मतभेदों के चलते किसी तरह वे वहां से भाग कर अपनी जान की रक्षा कर पाये।
दरअसल उनके सम्पूर्ण जीवन को मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है। पहला भाग जन्म से लेकर सन् 1800 तक यानी 28 वर्षों का है जिसे बाल्यकाल व अध्ययन काल कह सकते हैं। लेकिन इस काल में ही जिन विचारों का इनके अंतर्मन में विकास हुआ, उसका प्रभाव उनमें जीवन पर्यन्त बना रहा। 1800 से 1812 तक का काल शासकीय सेवा व अंग्रेजी, ग्रीक, लैटिन और हिब्रू आदि भाषाओं के ज्ञान व पाश्चात्य दर्शन और विज्ञान के अध्ययन के लिए जाना जाता है। इन बारह वर्षों में 10 वर्ष इन्होंने रंगपुर कलक्टरी में नौकरी के रूप में बिताये और मात्र 40 वर्ष की अवस्था में धर्म और समाज की सेवा की खातिर इन्होंने रंगपुर कलक्टरी के दीवान पद से इस्तीफा दे दिया। जीवन के अंत के तीसरे भाग में यानी 1812 से 1833 तक के 21 वर्षों के शुरूआती 18 वर्ष कलकत्ता में एक कमयोगी के रूप में जिसमें समाज सुधार व धर्म के कार्य में इन्होंने बिताये और अंत के तीन वर्ष इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि योरोप के अन्य देशों में बिताये। वहां भी उन्होंने अपने धामि र्क व दार्शनिक विचारों, का व्यापक प्रचार-प्रसार ही नहीं किया बल्कि उनकी महत्ता के बारे में व्याख्यान भी दिये। उन्हीं दिनों उनका स्वास्थ्य लगातार भाग-दौड़ के कारण गिरता चला गया और 27 सितम्बर 1833 को ब्रिस्टल शहर में भारत का महान समाज सुधारक सदासदा के लिए सो गया।
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राजा राम मोहन राय की सती प्रथा, बहुपत्नी प्रथा के विरोधी, महिलाओं को समान अधिकार दिए जाने, विधवाओं के पुर्नविवाह और अर्न्तजातीय विवाह के प्रबल समथर्क के रूप में ख्याति है। उनका यह दृढ़ मत था कि बहुपत्नी प्रथा समाज विरोधी है और पति की मृत्यु उपरांत उसकी पत्नी को ही उसकी संपत्ति का उत्तराधिकारी माना जाना चाहिए। सती प्रथा के विरुद्ध विद्रोह की आग उनके अन्दर घर में ही पनपी। कारण बड़े भाई जगमोहन राय की मृत्यु के उपरांत लाख समझाने और विरोध के बावजूद उनकी पत्नी का सती होना इनके दुख का कारण बना और इन्होंने उसी समय इस कुप्रथा जिसे उन दिनो धर्म का एक प्रबल चिन्ह-प्रतीक समझा जाता था, के अंत का दृड़ संकल्प कर लिया। इनके इस निश्चय से पुरातनपंथी परिवार और कट्टरपंथी इनके प्रबल विरोधी हो गए और कट्टरपंथियों ने तो इनकी हत्या का भी प्रयास किया लेकिन इन्होंने सती प्रथा के खिलाफ अपने आंदोलन को न केवल जारी रखा, वेद और उपनिषदो का हवाला देकर यह सिद्ध भी किया कि यह सामाजिक कुरीति, सामाजिक अंध विश्वासों का परिणाम है। यही नही ब्रिटिश सरकार को अपने तर्कों से समझाने का प्रयास किया कि इस कुरीति का बने रहना उनके आदर्शों के लिए एक धब्बा है, कलंक है, तब कहीं जाकर गर्वनर जनरल विलियम बैंटिक ने 1827 में इस प्रथा कोगैर-कानूनी करार दिया। कट्टरपंथी फिर भी चुप नहीं बैठे और उन्होंने इसके खिलाफ प्रिवी कौंसिल में अपील कर दी। इसे चुनौती मान राममोहन राय 1831 में इंग्लैण्ड गए और प्रवर समिति के समक्ष अपने तर्कों, उदाहरणों के माध्यम से इस अधिनियम का समर्थन कर अंततः इसे स्वीकार करने पर ब्रिटिश सरकार को उन्होंने विवश कर दिया। उन्होंने प्राचीन हिन्दू विधि के अनेकों उद्धरणों से महिलाओं को समान अधिकार दिये जाने सम्बंधी अपनी मांग को सिद्ध किया और यह भी कि समाज में प्रचलित ये परंपराएं निहित स्वार्थी तत्वों और धर्म की आड़ लेकर अपनी तिजोरियां भरने में लगे मठाधीशों द्वारा थोपी गई हैं। ये समाज को जकड़े रहने देना चाहती हैं, इन्हें तोड़ना ही होगा।
इसी को दृष्टिगत रखते हुए इन्होंने 1822 में सभी धर्मों के मध्य समन्वय स्थापित कर एक नये बुद्धिवादी समाज ‘ब्रह्म समाज’ जिसमें सभी धर्मावलम्बियों के प्रवेश की स्वतंत्रता थी, की स्थापना की। सबसे बड़ी बात इस समाज की यह थी कि इसमें सभी धर्मों के महान आदर्शों का समावेश था।
वह पहले ऐसे व्यक्ति थे जिनकी मान्यता थी कि भारतीय ऐसी राजनीतिक चेतना से अभिभूत हों, समृद्ध हों, जिससे वे पश्चिमी संस्थाओं का अनुसरण करने में समर्थ हों। इसके लिए उन्होंने पश्चिमी सभ्यता, संस्कृति, वैज्ञानिक ज्ञान से परिचित होने के लिए अंग्रेजी भाषा के ज्ञान व शिक्षा पर बल दिया। उनके संघर्ष के परिणाम स्वरूप ही विधवा विवाह आदि के अधिकार पाने में नारी सफल हो सकी। भारतीय इतिहास में उनका नाम कभी भुलाया नहीं जा सकेगा और नारी उद्धार की दिशा में सुधारकों की शृंखला में उनका नाम सर्वोपरि रहेगा। यह भी कि बंगाल के पुर्नजागरण के आंदोलन में देवेन्द्र नाथ ठाकुर, ईश्वर चन्द्र वि़द्यासागर, अक्षय कुमार दत्त, माइकेल मधुसूदन दत्त, ईश्वर चन्द्र गुप्ता के योगदान से उनका योगदान किसी भी दशामें कम नहीं हैं। इसमें दो राय नहीं।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद् हैं।
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