– डॉ. राजेंद्र सिंह*
हमारे जीवन की जटिलताएं होने से आज प्रकृति से दूर बड़ी है। सत्य-अहिंसा तो प्राकृतिक है। सत्य बोलने हेतु बुद्धि का उपयोग बहुत कम करना होता है। सत्य समझ आता है। लालच उसे झूठलाता है। इसलिए झूठलाने वाला या झूठ को सत्य बनाकर बोलने वाला प्रिय लगने लगता है। पहले झूठ बोलने वाले को समाज नकारता था। आज झूठ को सत्य बताकर बोलने वाले को समाज स्वीकारने लगा है। उसे ही सम्मान भी दे रहा है।
सत्यमेय जयते वाला भारत आज “झूठमेव जयते” वाला देश बन रहा है। झूठ बोलने वाले बाबाओं के डेरे भरे रहते हैं। भगवान बने बापूओं के पंडाल लबालब रहते थे। ब्रह्यचारी-फलाहारी बाबाओं का व्याभीचारी होना भी सभी को झूठ दिखता था। लेकिन झूठे वचनों से ढका रहता था। धन्य हमारी न्यायपालिका कुछ झूठ तो सामने आये। लेकिन संतों, राष्ट्रीय संताई से नवाजे गये संत केवल माई से कमाई में जुटे हैं। फिर भी राज्य चलाने वाले उन्हें संत की उपाधि देकर सम्मानित कर रहे हैं। कमाई के लिए दुकानदारी और व्यापार की साठ-गांठ करने वाला संत नहीं होता। यही भारतीय संतों का ‘सत्य’ कहना और मानना है।
आज इस ‘सत्य’ पर झूठ की धूल मिट्टी जम गई है, लेकिन समय सत्य हो तो उसे ही चमकाता है। वही चमकेगा। इसे चमकाने का रास्ता केवल अहिंसा है। अहिंसा को अपनाना पड़ता है। वह भूखा-प्यासा रहकर भी अहिंसक बना रहता है। हिंसा स्वयं अपने लालची घमण्ड में पिटती है। दुनिया में हिंसक चमके और चले गये। अहिंसा आई, प्रभावी बनी। यह केवल भारतीय भूमि पर दिखाई देती है।
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भय मुक्ति ही हमें अहिंसक बना के सत्य की समझ पैदा करती है। जब हम सत्य को समझने लगते हैं तो हमारे अंदर उसे सहेजने की ताकत बन जाती है। फिर उसके बलबूते पर हमारा कार्य व्यवहार चलने लगता है। इसे राज्य-समाज के भय-लालच की बीमारी नहीं लगती है। इसलिए यह स्वास्थ्य व्यक्ति ही सत्य-अहिंसक बनता। सत्य अहिंसा ही जीवन का समाधान बनकर संतोष और शांति की चाह पैदा करते हैं। प्रकृति प्रेम की चाह ही शान्ति की राह है।
हमारी विश्व शांति जल यात्रा की राह यही है। यह भौतिक और अध्यात्म का पुल बनेगी। ऐसा इस का लक्ष्य है। लक्ष्य पानी हेतु भौतिकता की जटिलताओं से मुक्ति की राह पर चलकर मैं पहले उनके पास जा रहा हूँ। भौतिक लालच की मार से पिसे धरती पर गिरे और उजड़े देशों में जा रहा हूँ। ऐसे देशों की बड़ी संख्या पूरी दुनिया में है। इसलिए दुनिया के सभी देशों में जाना सम्भव नहीं है। इसलिए 10 वर्ष का काल तथा 30 देशों की सम्भावता इनमें 20 देश जिनसे लोग उजड़े हैं। 10 जिनमें जाकर बसे हैं। उनकों चुना है। यह कार्य किसी का प्रयोजित या पोषित नही है। यह केवल मैंने अपना काम मानकर दुनिया के लिए तय किया है।
6 वर्ष पूर्व 13 अप्रैल 2015 को साउथ कोरिया के डेगू-ज्ञानजू शहर से आरम्भ किया था। इसकी जरूरत मुझे तब ज्यादा महसूस हुई थी। जब मैं दुनिया के मंत्रियों को टर्की के अंकारा शहर में यूएनसीसीडी-12 में सम्बोधित कर रहा था। मैं बताने की कोशिश कर रहा था। मरु प्रदेश का पलायन प्राकृतिक है, सामाजिक है स्थाई नही होता है, लेकिन बाढ़-सुखाड़ से धरती के विकृत चहरे ने स्थाई दबाव वाला पूरे परिवार को उजाड़ कर पलायन आरम्भ किया है। यह स्थाई पलायन है। पहले का मरुस्थली करण प्राकृतिक था। उसके संकट और खतरे से समाज प्रकृति रूप में निपट लेता था। हमारे आधुनिक विकास कार्यक्रमों खासकर मरुस्थलीकरण से लड़नी हमारी तैयारी हमारे लिए खतरों का समाधान ढूंढने के बजाय स्थाई खतरे बना रही है। मरुस्थल को हमने मशीनों से रोकने के जो प्रयास किये हैं। उनसे मरुस्थली जी नोनयूल नष्ट हुआ है। और हवा और वर्षा से मरुस्थलीकरण की गति तेज हुई है। यह आधुनिक इंजीनियरिंग मरुस्थल के लिए खतरा बन गई है। प्रकृति क्रोध को जब हम मशीन से दबाते हैं तो वह ज्यादा बढ़ता है। जब हम प्यार से उसे सहेजते हैं तब उसमें समाधान मिल जाता है। अतः हमें प्रकृति प्यार से ही प्रकृति क्रोध का समाधान ढूंढना हमारे विकास और अध्यात्म का सम्बंध गहरा बनता और जुड़ता है।
विकास के नाम पर मशीनी जोड़ तोड़ता है। यह टूटन ही प्रकृति का क्रोध और अधिक तेज करती है। अतः हम अपने समुदायों के परम्परागत ज्ञान जो मशीनों से दूर था उसे ही सामुदायिक स्थानीय समाधान के लिए उपयोग करना विज्ञान और समुदाय के बीच गहराई लायेगा। वही हमारे स्थाई समाधान का पुल बनेगा। हमारा ध्यान उसी तरफ बढ़ना चाहिए।
नदियां भारत की ”माई” हैं। पर आज का तथाकथित महात्मा भी तो इनसे भी केवल कमाई का ही विचार पालता है। तब इन्हें हम महात्मा कैसे कहें? इन्हें उद्यमी कहें। उद्यमी नदी चिंतक नहीं हो सकता वह तो केवल और केवल लाभ का लालची उद्यमी ही हो सकता है। नदी चिंता तो शुभ के लिए ही हो सकती है। उसमें नदी की सेहत नदी के लिए नदी की सेहत ठीक रखने में नदी की जमीन केवल नदी हेतु सुनिश्चित कराना। नदी का अविरल-निर्मल प्रवाह बनाना। उद्योगों का प्रदूषित जल नदी में नहीं जाना।
आज सरकारी संस्थाएं नगरपालिका, पंचायतें सभी अपना गंदा जल नदी में डाल रही हैं उसे रुकवाना होता है। सद्गुरू वह होता है जो सत्य को अहिंसक ढंग से राज-समाज को मानने हेतु तैयार करता है। जब संत, राज-समाज से डर के उनके लिए लालची और मिट्ठी-मिट्ठी बातें करके अपना रंग जमाता है कमाई करता है। वह संत या गुरु नहीं हो सकता है।
आज हम उल्टी दिशा में ही जा रहे हैं। हमारे साधु-गुरू भी राजनेताओं तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से साठ-गांठ करके नदियों की जमीन और पानी पर कम्पनियों का कब्जा कराने में जुटे हैं। नदियों की जमीनों पर वृक्षारोपण के नाम पर रोक लगा, खेती बंद करके कम्पनियों के उद्यान लगवा रहे हैं। हमारे नेता ऐसा आर्थिक क्रांति के नाम पर व्यापार बढ़ाने वालों को सहारा और साथ दे रहे हैं। परिणाम स्वरूप गुरूओं, नेताओं, उद्यमियों की जोरदार साठ-गांठ हो गई है। यह साठ-गांठ शुभ नहीं हो सकती क्योंकि आज सभी ‘शुभ’ को भूल गए हैं और केवल ‘लाभ’ को ही ध्यान में रखते हैं । लाभ तो लालची होता है। वह तो जीवन को प्रवाह देने वाली नदियों को भी नहीं छोड़ रहा। नदी की जमीन पर कब्जे करने का नया तरीका खोज रहा है।
* लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।