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विश्व जल दिवस पर विशेष
संयुक्त राष्ट्र संघ में जल दिवस, आरती-उत्सव की तरह ही मनाया जाता है
-डॉ. राजेन्द्र सिंह*
सयुंक्त राष्ट्र संघ ने दुनिया के नेताओं को राजी करके जल दिवस की तरह अन्य सैंकडो अहिंसा, महिला, प्रथ्वी, आदि महत्वपूर्ण दिवस भी मनवाने लगा है। लेकिन ये दिवस अधिकतर लोगें के लिए तो केवल उत्सव एवं औपचारिकता मात्र बनकर रह गया है। जबकि जल दिवस मनाने का अर्थ है सबको, पेड़-पौधे, नदी-समुद्र और मानवता हेतु जलाधिकार सुनिश्तित्ता, जल साक्षरता प्रदान करना, जल उपयोग दक्षता बढाना, संरक्षण और अभिष्ठ प्रबंधन करने वाला तंत्र विकसित कराना है। पूरी दुनिया में जल का ज्ञान कहीं कम और कहीं अधिक था। जिसे आज लोग व्यवहार में लेना भूल गये है।
आज का दिन पूरी दुनिया में विश्व जल दिवस के रुप में मनाया जाता है। कुछ लोग इसे जल उत्सव की तरह देखते हैं और कुछ इसे राजनीतिक कार्यक्रम बतौर मनाते हैं। यह उत्सव तो बिल्कुल नहीं है, हां एक राजनीतिक प्रतिबद्धता विश्व जल दिवस के साथ जुड़ी है। यह जब पहली बार तय हुआ कि दुनिया में 22 मार्च को जल दिवस मनाया जाएगा, तब संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली(साधारण सभा) में राष्ट्रीय सरकारों का प्रतिनिधित्व करने वालों के मन में, दुनिया में जल संरक्षण प्रबंधन एवं जल उपयोग दक्षता बढ़ाकर सबको जल सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रतिबद्धता रही होगी। अब इस प्रतिबद्धता को पूरी दुनिया के राजनेता भूल गए है। अब तो केवल जल से लाभ कमाना और हर वर्ष 22 मार्च को जल दिवस मनाना ही राजनेताओं की जिम्मेदारियों को इतिश्री हो जाती है।
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यह वर्ष 2020 जलवायु परिवर्तन और जल का वर्ष है। अफ्रीका और मध्य पश्चिम एशिया के देशों से बेपानी होकर उजड़ते लोग, जब यूरोप में जाते हैं तो वहां उन्हें जलवायु परिवर्तन शरणार्थी कहा जाता है, अभी ऐसा भारतवासियों को नहीं कहा जाता लेकिन भारत के 72 प्रतिशत भूजल भंडार, जल शोषित होकर खाली हो रहे है। 39 प्रतिशत तो अति शोषित घोषित हो चुके हैं। जल संकट का यह परिदृश्य भारत को भी वेपानी बनाकर जलवायु परिवर्तन शरणार्थी का दर्जा दिलाने के रास्ते पर है।
नॉवेल कोरोना वायरस जलवायु परिवर्तन के संकट से कुछ संबंध जरूर रखता होगा। मानवीय बाजारु लालच ने प्रकृति का विकास के नाम पर विनाष किया है। उस विनाश का परिणाम है कि अब कोरोना वायरस जैसी भयानक बिमारियां और आऐंगी । उनका ईलाज ऐन्टीवॉयोटिक जैसी औषधियां नही कर पाऐगीं। भारत की गंगा नदी के जल में 17 तरह के रोगाणुओं को नष्ट करने की विशिष्ट शक्ति थी ,ऐसा आधुनिक विज्ञान भी मानता है। वह अब नहीं बची है। उसके कारण सुपर वग्ग का संकट भारत में भी बढ़ सकता है। कोरोना महामारी पर तो हम नियंत्रण कर लेंगे लेकिन भारत के जलवायु और जल आपदा से आगे आप को कौन बचा सकता है? हम नहीं जानते। इसकी चिंता हमारे राजनेताओं को तनक भी नहीं है, यह सब अपनी अपनी रोटियां सेकने में लगे हैं और जल दिवस मना कर जल की चिंता दिखाते रहते हैं। इनकी आंखों में अब जल नहीं बचा है, इनकी बेपानी आंखों के कारण हमारी धरती भी वेपानी हो रही है और उसे बुखार चढ़ गया है और इसी कारण मौसम का मिजाज भी बिगड़ गया है।
धरती के बुखार‘‘ ग्लोबल वार्मिग‘‘ का इलाज एक मानव के बुखार के इलाज जैसा ही है। बुखार में जैसे मनुष्य के सिर पर पानी की पट्टी रखते हैं और पेरासिटामोल खिलाते है और उसे आराम करने का मौका देते हैं। इसी तरह बादल से निकली हर वर्षा जल की बूंद को पकड़कर तालाब, जोहड़, चेक डैम, ताल, पाल, झाल बनाकर पानी की पट्टी की तरह धरती की मिट्टी में नमी बना दे तो उसमें हरियाली जन्म लेगी और वह हरियाली को बचाने के लिए खनन, प्रदूषण, अतिक्रमण और भूजल का शोषण रोक दें तो धरती का पेट पानी से भर जाएगा। उस जलवायु अनुकूलन प्रक्रिया से जलवायु परिवर्तन संकट का उन्मूलन हो जाएगा। परिणामस्वरूप नियमित वर्षा होगी और धरती पानीदार बनेगी।
वॉटर इज क्लाइमेट एंड क्लाइमेट इज वॉटर की बात आज पूरी दुनिया मान रही है। बिना जल के जलवायु की बातचीत संभव ही नहीं है। दुनिया ने पहले तो इन दोनों के रिश्ते को मानने से इन्कार किया किंतु वर्ष 2015 के नवंबर -दिसंबर में पेरिस में दुनिया के देश इकट्ठा हुए तो उनकी चिंता इन्हीं दोनों के इर्द-गिर्द घूमती रही। पेरिस समझौते के बाद संयुक्त राष्ट्र ने पूरी दुनिया की सरकारों को पानी और कृषि को जोड़कर, जलवायु परिवर्तन, अनुकूलन और उन्मूलन हेतु राष्ट्रीय जल कार्य क्रम बनाने का सुझाव दिया गया। दुनिया जल और जलवायु के रिश्ते की बात को थोड़ा देर से समझी है लेकिन भारत की परंपरा में इस रिश्ते की बात मौजूद रही है। भारत के ज्ञानतंत्र में जिसे हम ’भगवान“ कहते हैं वह पंच महाभूतों से मिलकर बना है। ’भ“ से भूमि, ’ग“ से गगन, ’व“ से वायु, ’अ“ से अग्नि और ’न“ से नीर। इनमें नीर बाकी चारों महाभूतों को जोड़ने का काम करता है। नीर के बिना कोई जीवन संभव ही नहीं है। जीवन को चलाने के लिए जो गैसें चाहिए वे भी जल के बिना नहीं बनती हैं। यह बताता है कि जल हमारी सृष्टि का आधार है।
45 बर्षो से साझे भविष्य को बेहतर बनाने और प्रकृति हेतु भारतीय आस्था और पर्यावरणीय विज्ञान से जल संरक्षण का कार्य कर रहा हूं और मैं पिछले छः वर्षों से दुनिया के अफ्रीकन और मध्य पश्चिमी एशिया में अध्ययन कर रहा हूं। अफ्रीकन और मध्य पश्चिमी एशिया के लोग बेपानी होकर जब यूरोप में जाते हैं तो उन्हें जलवायु परिवर्तन शरणार्थी कहते हैं। भारत को भी यह चेतावनी मिलना शुरू हो गई है। हमारे देश में बाढ़ और सूखा दोनों बढ़ रहे हैं। इस संकट से यदि बचना है तो हमें जलवायु परिवर्तन अनुकूलन व उन्मूलन के काम करने होंगे कभी भारत के लोगो में नीर और नदी की अच्छी समझ थी। भारत की महिलाएं भी जलवायु परिवर्तन के गीत गाती थीं और वे भी जलवायु को जानती और समझती थीं। पहले भारत में जल के बारे में छः आर थे, रिस्पेक्ट ऑफ वॉटर, रीडयूज यूज ऑफ वॉटर, रिट्रीट-रिसायकल-रीयूज वॉटर, और रीजनेरेट प्लानेट बाय वॉटर। जबकि बाकी दुनिया में जल के सिर्फ तीन अर्थ रहे हैं, रिट्रीट, रिसायकल एंड रीयूज। तो पानी के बारे में हम दुनिया को बहुत कुछ सिखाने वाले थे इसलिए हम पानीदार थे। पानी को हम लाभ की तरह नहीं बल्कि शुभ की तरह देखते थे।
बीते कुछ वर्षों में पानी के साथ हमारा रिश्ता बुरी तरह बदला है। हमारी आंखों का पानी सूखा और फिर पीछे हमारे कुएं-तालाब भी सूखने लगे। पानी को व्यापार की वस्तु बना दिया गया। जब जीवन से जुड़ी चीजों का व्यापार होने लगे तो उनसे शुभ गायब हो जाता है, वे केवल लाभ के लिए होकर रह जाती हैं। हमें इसी रिश्ते को फिर से जीवित करना होगा।
सोचिए, प्रकृति की कितनी सुंदर व्यवस्था थी। बादल हमारे लिए पानी लेकर आता है। जीवन देता है। लेकिन बादल जो जीवन लेकर आता है उसे हम सहेजते नहीं हैं, अमृत को गंदे नालों में बहने जाने देते हैं। जिस बादल के पवित्र जल से जीवन बना है वह गंदे नाले में बह जाता है। इसका सबसे बड़ा दोष जाता है आधुनिक शिक्षा को। आधुनिक शिक्षा में हम इंजीनियर और तकनीशियन तैयार कर रहे हैं जिन्होंने सिर्फ शोषण की तकनीक पढ़ी है, वे पोषण नहीं जानते। मैनेजमेंट की शिक्षा ने हमें चीजों का प्रबंधन करना सिखाया है कि किस तरह साझी सामुदायिक संपत्ति पर अतिक्रमण करके उसका प्रबंधन करना है। सामाजिक विज्ञान की शिक्षा भी प्रकृति से सिर्फ लेने की बात करती है। हम प्रकृति से जुड़े पुण्य और सुख को भूल गए। भारत के मूल ज्ञानतंत्र में जल हमारी भाषा, नदियां हमारी वाणी थीं। इसलिए हम पर जलवायु परिवर्तन की आपदा नहीं आई थी। जबसे हम जल की भाषा और नदी की बोली भूल गए हैं तबसे जलवायु परिवर्तन की आपदा आने लगी है। यदि हम जल-दिवस मनाना चाहते हैं तो हमारी आधुनिक शिक्षा को पोषण की पढ़ाई में बदलना होगा। बादल तो आते हैं लेकिन उनकी कद्र करना सीखना होगा।
ऐसा काम करने के लिए राजनैतिक सदिच्छा चाहिए, राजनैतिक सदिच्छा के बिना जल दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं है।
*लेखक मैग्सेसे, जमनालाल बजाज और स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और भारत के जल पुरुष के नाम से विख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।
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सही कह रहे है…..पुरे समाज की पाणी के बारे में समझ बढाणी होगी……..हर दिन जलदिन बनाना होगा…भाईजी तो अनेको के साथ हमारे भी प्रेरणास्थान है।