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रविवार पर विशेष
रमेश चंद शर्मा*
जंगल का राजा शेर को माना जाता है, उसी प्रकार गांव का राजा सांड, बिजार, आंकल को माना जाता। कृषि संस्कृति के लिए गाय, सांड, पशुओं का बड़ा महत्व है। गाय पालन के लिए सांड की अहम् भूमिका है। गांव में सांड छोड़ने में हमारे परिवार की भी एक भूमिका रहती। हमारे गांव में दो सांड थे, एक काला, दूसरा सफेद। काले वाला बहुत बुढ़ा हो गया था, एक पैर से लंगड़ा भी हो गया था। दूसरा भी बुढ़ापे की ओर बढ़ रहा था। सांड के मरने पर उसे जमींदोज किया जाता, नमक आदि डालकर।
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गांव में नया सांड छोड़ने की चर्चा चली। हमारे कुनबे ने सहर्ष इसे स्वीकार किया। देवता जी के नाम पर पहले भी वह काला सांड छोड़ा गया था, जो बहुत अच्छा माना गया। गांव उसे बहुत उपयोगी, सार्थक, महत्त्वपूर्ण मानता। अब भी देवता के नाम से ही छोड़ना था। इसलिए एक अच्छे बछड़े की खोजबीन जारी हुई और एक बछड़ा खोज निकाला गया। बछड़े को दागने का एक दिन तय हुआ। इस प्रक्रिया के बाद ही उसे गांव के राजा का खिताब नसीब होता है।
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उस दिन उत्सव जैसी तैयारियां चल रही थी। गांव के मध्य परस में यह सब प्रक्रिया पूरी होनी थी। हमारे परिवार के अधिकतर सदस्य वहां मौजूद थे। भाग दौड़, पूजा पाठ जारी थी। तरह-तरह की विधियां हो रही थी। अंत में बछड़े को बांध जुड़कर वहां लिटाया गया। एक ओर आग में गोल निशान एवं त्रिशूल गर्म नहीं बल्कि एक दम भंयकर रुप से लाल किया जा रहा था। उन दोनों निशानों को एक-एक करके बछड़े के पिछले पांवों की ओर कुल्हें पर रखा गया। उस जगह की चमड़ी जल उठी बछड़ा बुरी तरह से तड़फ उठा। दिल कांप उठा। भंयकर दर्द को देखकर आंखों में गंगा जमुना बहने लगी। मगर कुछ लोग बड़े चाव उत्साह से भरे खुश हो रहे थे। अब यह बछड़ा नहीं सांड बन गया था। गांव का राजा बन गया था। इसको पूरे गांव में, गांव की सीमा पर घुमाया गया। और अब वह कहीं भी जाने के लिए मुक्त मगर वरिष्ठ लोगों ने तय किया कि कुछ दिन इनकी सेवा का विशेष ध्यान रखना होगा। इसको विशेष खुराक दी जाएगी।
हमारे पिताजी ने भी इसके लिए गांव में कुछ दिन सेवा करने का तय किया। रोज सुबह शाम उसको कुछ खिलाना जिसमें चना, चने की दाल का विशेष स्थान रहता। रोज उसको सहलाते, उसकी मालिश करते। उसे खिलाते पिलाते। धीरे धीरे उसके घाव सूख गए। वह मजबूत होने लगा। लंबे समय तक साथ रहने से पिताजी का विशेष लगाव बन गया। वह स्वयं ही घूमता-फिरता इधर भी आ जाता।
गाँव से पिताजी दिल्ली आए निराश, उदास, हताश चेहरा, भारी मन से कोटड़ी में प्रवेश किया, कोटड़ी अपना निवास स्थान, जहाँ कूंचा चेलान, खारी बावली पुरानी दिल्ली में हम रहते थे। आते ही रोने लगे पूछने पर भारी मन से गाँव का पूरा घटना क्रम सुनाया। सुनाते सुनाते कहने लगे अगर चार में से मेरा एक बेटा चला जाता, उससे भी ज्यादा दर्द, दुःख मुझे इस मौत, हत्या का हो रहा है। गाँव में घटना कुछ ऐसे घटी रात को गाँव में प्रतिदिन चौकी लगती है, चौकीदार दिन में सूचना देता की आज रात को किस किस की चौकी है। उस दिन की जिनकी चौकी थी वो अपने को बड़े दबंग, मजबूत, प्रभावशाली मानते थे। रात को चौकी देते समय उन्होंने नवजात, उभरते सांड को देखा ओर उसके पीछे पड़ गए। उसे दौड़ाने लगे, गाँव के चारों ओर, गाँव की गलियों में। रात के समय शोर शराबा सुनकर कुछ लोगों ने उन्हें देखा, डाट लगाई, धमकाया भी। मगर उनके सर पर तो भूत सवार हो गया था। यह क्रम घंटों चला। उस समय गँवार की फसल का समय था। स्वाभाविक है, साँड ने गँवार की फसल चरी होगी। उसका और बेंइंतहा की दौड़, मारपीट के परिणाम स्वरूप साँड की मौत हो गई। सुबह सवेरे गाँव में यह दुःखद समाचार सारे गाँव में फ़ैल गया। तरह तरह की बातें होने लगी। सौ मुंह सौ बातें। कोई कुछ तो कोई कुछ बोल रहा था। उन लोगों ने कुछ इधर उधर की बातें फ़ैलाने का भी प्रयास किया जिससे कि मामला उनकी ओर नहीं आए। इस में उनका नाम शामिल न हो। कुछ लोग उनके प्रभाव में आ भी गए। मामला दबंग, प्रभावशाली होने के कारण कुछ अधिक उलझाया गया। प्रतिष्ठा का प्रश्न भी था।
गाँव में ही मामला दबाने के प्रयास हुए, कुछ हद तक सफलता उन्हें मिली भी। गाँव बैठा, पंचायत हुई मगर अलग अलग थडे, समूह बन गए। परिवार, कुनबा, जाति, बिरादरी, मोहल्ला, प्रतिष्ठा, सम्मान, अपने पराए का सवाल, स्वार्थ, अपने अपने हित साधने का मौका, चुनाव की राजनीति भी मध्य आ गई। अलग अलग मुद्दे ज्यादा हावी हो गए, मुख्य मुद्दा अलग थलग पड़ने लगा।
दादागिरी, पैसे की धौंस, दबंगपना, ओछेपन के सवाल भी इसमें अपनी भूमिका निभा रहे थे। ऐसा एक प्रयास भी किया गया कि इसे गाँव बनाम हमारे कुनबे, परिवार का सवाल बनाकर छोड़ दिया जाए, उलझा दिया जाए। वे काफी हद तक इसमें सफल भी हो गए। जो लोग इसे अन्याय, अत्याचार, पाप मानते थे, उनकी संख्या कम नहीं थी मगर वे मौन हो गए, सामने बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। मृत को मिट्टी दे दी गई थी। पंचायत, बैठकों, बातचीत में समय बिताया गया। और निराशा, हताशा के झूले में यह मामला उलझा दिया गया। उस समय गाँव में हमारे परिवार के बहुत ही कम लोग रह रहे थे। ज्यादातर लोग गाँव से बाहर जाकर बस गए थे। क्या किया जाए, कुछ समझ नहीं पा रहे थे। मेरे मनमें आया की मुझे इस मामले में कुछ करना चाहिए। उस समय मैं स्नातक बन गया थाI शिक्षा के साथ साथ जो सामाजिक कामों में भागीदारी बढ़ी थी, वह ज्यादा मजबूत बनती जा रही थी। मुद्दे, विचार भी कुछ स्पष्ट होते जा रहे थे। समझ भी बढ़ रही थी। सामाजिक कामों के कारण सम्पर्क, संवाद भी व्यापक होता जा रहा था। यह मुझे एक मुद्दा लगा जो परिवार से ज्यादा समाज का है, जिसे स्वार्थी तत्वों ने इस मोड़ पर ला दिया है। पिताजी की बातें सुनकर अपन ने गाँव जाकर पूरी जानकारी का मन बनाया।
गाँव में सन्नाटा सा छाया हुआ था। सामने आकर बोलने को लोग तैयार नहीं हो रहे है। अकेले में लोग घटनाक्रम को अपनी अपनी दृष्टि से बताते है।सामूहिक चर्चा संभव नहीं लग रही हैI इस भय, दहशत, डर, कायरता, दबाव, निष्क्रियता से लोगों को कैसे बाहर लाया जाए। गाँव में रहने वाले हमारे परिवार के सदस्य भी सामने आकर सत्य का मुकाबला करने को तैयार नहीं है। दूसरे पक्ष ने बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत तगड़ा मकडजाल बिछा दिया है। निष्पक्ष लोग निष्क्रिय है। कुछ लोग मदद करना चाहते है, मगर सामने आकर नहीं, बल्कि पीछे रहकर। यह बात समझ आ गई। इसी के अनुसार अपने कदम बढाने का तय करके गाँव से दुखी, क्रोधित होकर लौटा। कुछ समय विचार कर अकेले ही परिवार, गाँव से दूर रहकर दिल्ली से ही इसका रास्ता निकालने का विचार बना।सम्पर्क, संवाद शुरू हुआ। सत्य के लिए भीड़ नहीं अकेले चलने, निष्ठा, हिम्मत, विश्वास, सेवा, परम शक्ति, भगवान में आस्था के साथ सक्रियता से लगे रहने की आवश्यकता है, इसके लिए साधन नहीं साधना की आवश्यकता है। सबसे बातचीत के बाद यह समझ बनी। भगवान जिसके साथ है, सत्य जिसके साथ है, उसको अकेले चलने की हिम्मत करनी ही चाहिए। बचपन से मुझे भय नहीं लगता था। बड़ो से विशेषकर माँ से यह बात कई बार सुनी है। अँधेरे में कही भी जाने से, गाँव के बाहर छप्पर में अकेले सोने, जंगल में अकेले जाने आदि से मुझे डर, भय नहीं लगता।
इसलिए भगवान का नाम लेकर इस घटना के बारे में लिखा पढ़ी शुरू की। मुख्यमंत्री से लेकर अनेक स्तर पर यह काम किया। प्रभु कृपा से कुछ दिन में ही इसका प्रभाव दिखने लगेगा। गाँव में खलबली मच गई। पुलिस प्रशासन सक्रिय हो गया। थाना, स्थानीय अधिकारी जो अभी तक बेपरवाह, मौन, शांत थे। उनकी निद्रा भंग हुई। अब गाँव में प्रतिदिन हलचल होने लगी, जाँच, पूछताछ, आरोपियों की धरपकड़ , बाव, थाने में उपस्थिति ने निष्क्रिय लोगों में हिम्मत, प्राण डाल दिए। लोग सामने आने लगे परिवार में भी उत्साह का संचार हो गया। देव कृपा से हारी बाजी जीत में बदल गई थी। गाँव में भी उत्साह लौट आया, लोग सत्य कहने ही नहीं लगे कुछ ज्यादा ही जोश में आने लगे। आश्चर्यचकित भी थे की अचानक यह बुझी राख से चिंगारी ही नहीं दावानल कैसे फूट पडा। मेरे जीवन में सत्य की शांति से लडी गई यह बड़ी बात थी। वो भी गाँव से दूर रहकर। मुझे गाँव छोड़े भी लम्बा समय हो गया था। गाँव की नई पीढ़ी से तो मेरा परिचय, संपर्क ही बहुत कम था। जब इसकी जानकारी गाँव वालों ने निकाली तो अपना नाम सामने आया। परिवार सहित सबको अचंभा हो रहता था की, यह सब कैसे हो गया। ज्यादातर मन रहे थे कि भगवान ही ने यह किया है। अपन तो अब भी यही मानते है कि यह देव कृपा, सत्य की जीत है। अपन माध्यम बने इसकी ख़ुशी जरुर है।
अपन दिल्ली में बैठे इंतजार कर रहे थे कि कुछ छोटा मोटा संवाद कहीं से तो आए। स्थानीय अधिकारी, गाँव के लोग ज्यादातर तो मानते थे कि यह किसी बहुत बड़े प्रभावशाली व्यक्ति का काम है। इसलिए वे इसी में उलझे रहे। अपन का लिखना जारी था। एक दिन गाँव के कुछ लोगों के साथ पिताजी ने अपन से पूछताछ की। क्या तुमने कुछ कदम उठाया है इस मामले में। अपन को कोई जानकारी मिली ही नहीं थी इसलिए अपन चुप रहे और पूछा की क्या हुआ है। तब उजागर हुआ कि यह सब घट रहा है। अंदर से एक गजब की ख़ुशी हो रही थी। प्रभु का आभार, देवों की कृपा, मन प्रसन्न हो गया।
अब प्रस्ताव आया की मैं आगे कोई कारवाई नहीं करुं, कोई कदम नहीं उठाया जाए। एक बार जाकर अधिकारीयों से मिलूं। अपन इसके लिए तैयार नहीं थे। धीरे धीरे अनुरोध, आग्रह, दबाव बढ़ने लगा, यह परिवार एवं गाँव दोनों ही तरफ से था। मित्रों से भी सलाह, चर्चा, बातचीत हुई। निष्कर्ष बना कि अदालत मुक्ति की बात, कानून ही नहीं करुणा, गाँव में बैठकर फैसले लेने की बात, शांति, प्रेम से मसलें सुलझाने की बात को ध्यान में रखते हुए, अब आपसी समझ, क्षमा बड़ी है, परस्पर मिलकर लिए गए फैसले से दूरी, अलगाव, प्रतिशोध, घृणा खत्म होती है, यह सब सामने रखकर फैसला होना चाहिए। गाँव में यह बात जीवन भर के लिए नफरत के बीज न बो दे, तो अब अपना कार्य पूरा हुआ।
अपन गांव गए, जो नजारा देखा उससे अपने को अपने उपर विश्वास नहीं हो रहा, जिस तरफ जाऊ उधर ही इशारा होता की यह है वह रमेश, जिसने यह काम किया है। ख़ुशी इस बात की रही की विचार के अनुसार, अनुकूल सब काम पूर्ण हुआ। सत्याग्रह के सिद्धांत के अनुसार इसमें सभी संतुष्ट रहे। प्रभु, देव कृपा से इसका माध्यम बना इसकी खुशी कहीं गहरी पैठ गई। आस्था, विश्वास मजबूत हुआ।
सत्य की जीत अवश्य होती है, यह धारणा पुष्ट हुई। शांति, समझ, सद्भावना , सहजता, सरलता, सादगी से चुपचाप साधना पूर्वक प्रेम का पथिक बनकर सक्रिय रहने का सबक मिला।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।
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