कोरोना में मजदूरों की स्थिति
– धनंजय राय*
अलग अलग शहरों में मजदूरी का कार्य करते रहे उत्तर प्रदेश के बलिया जिले पंदह क्षेत्र के सिराजुद्दीन पिछले लाकडाउन में घर आ गए थे। सोचा था कि गाँव पर ही मेहनत मजदूरी कर लूँगा लेकिन वापस शहर नहीं जाऊंगा। सिराजुद्दीन बताते हैं कि अब तो खेती में सारा काम मशीनों से हो रहा है। मजदूरों का कोई खास काम नहीं रहा। बुवाई से लेकर कटाई तक अधिकांश कार्य ट्रेक्टर, थ्रेशर, कम्बाईन हार्वेस्टर इत्यादि से हो जा रहे हैं। सिराजुद्दीन के अनुसार कुछ साल पहले तक हम खेतो में मजदूरी करके, अपने साल भर के जरुरत के अनाज तथा पशुओं के लिए भी भूसा इत्यादि का इंतजाम कर लेते थे। मशीनों के चलते अब हमें बहुत कम काम मिलता है। मनरेगा से थोड़ी बहुत उम्मीद थी लेकिन पंचायत चुनाव के कारण, वहां भी सारे काम ठप हैं। मजदूरी के अलावा हम कुछ कर भी नहीं सकते।
रानी, बलिया शहर के ही एक मोहल्ले में दूसरों का घर-बासन कर, अपने दो बच्चों तथा पति का भरण पोषण करती है। कोरोना के पिछले लहर से ही रानी का काम बंद है। पति का भी काम बंद है। रानी अपना आपरेशन भी करवाई थी। पैसे के अभाव में दवा बंद हो गयी। कर्ज का बोझ बढ़ गया। परिवार खाने खाने को मोहताज हो गया। 8 महीने बाद दिसंबर में जैसे तैसे घरों में मेट का काम मिला था। परिवार के खाने का बंदोबस्त होने लगा, तब तक कोरोना के दुसरे लहर ने फिर तोड़ दिया। रानी यह कहते हुए भावुक हो जाती है कि जिसके यहाँ घर बासन किये, वो भी हाल चाल नहीं लेते है। सरकार से मिल रहे राशन का सहारा है लेकिन केवल गेहू और चावल से ही घर नहीं चलता है। रानी कहती है कि कोरोना से जो मरे वो मरे हम तो भूख से मर जायेंगे साहब। ऐसा लग रहा है हमारा कुछ भी नहीं बचेगा।
कोरोना से जंग की गंभीरता, सबके लिए एक जैसी तो है लेकिन इससे लड़ने वाले लोग दो प्रकार के हैं। एक वो, जो सिर्फ और सिर्फ कोरोना से लड़ रहे है और दुसरे वो लोग है जो कोरोना के साथ साथ भूख से भी लड़ रहे हैं। इन लोगों में असंगठित क्षेत्र के भूमिहीन मजदूरों, कारीगरों इत्यादि की स्थिति सबसे चिंताजनक है। कोरोना की लड़ाई तो फिर भी संक्रमण के बाद की लड़ाई है लेकिन भूख से तो हर प्रहर और हर दिन लड़ना पड़ता है। वर्तमान आपदा को भले ही कोरोना का दूसरा लहर कहा जा रहा है लेकिन भूख का सामना कर रहे मजदूरों पर मार्च 2020 के तालाबंदी से ही नई नई चुनौतियाँ लगातार अपना शिकंजा कसती जा रही है। खाली पेट और भरी जिम्मेदारियों के साथ विगत 14 महीने से लड़े जा रहे इस जंग में, दिहाड़ी मजदूरों, कामगारों का पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताना-बाना छिन्न भिन्न होता जा रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह है कि टूटते रिश्ते, बढ़ती चिंता, सरकारी और सामाजिक अनदेखी को झेलते हुए, घटते वजन और ढ़ीली पड़ती मांसपेशियों के सहारे, यह वर्ग कोरोना और भूख के दोहरी मार को भाग्य भरोसे कब तक झेल पायेगा। आलम यह है कि ऊपर से कोरोना का भय और अन्दर से भूख की कमजोरी, मजदूर वर्ग को रोज कमजोर कर रही है।
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मनियर क्षेत्र निवासी सुरेन्द्र पिछले 2020 के लाकडाउन में बड़ी मुश्किलों का सामना करते हुए छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से गाँव पहुंचे थे। बताते है कि बिलासपुर से लौटते समय बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उस समय मैंने तय कर लिया कि कुछ धंधा पानी करके गाँव पर ही गुजारा कर लूँगा लेकिन शहर नहीं जाऊंगा। सुरेन्द्र ने रिश्तेदारों से कुछ पैसे लिए तथा कुछ पैसे सूद पर लेकर नवम्बर में गाँव में एक किराना की दुकान खोल लिया। उनके बाद शहर से गाँव लौटे, दो और लोगों ने किराना की दुकान खोली। गाँव में पहले से भी दो दुकाने हैं। तकरीबन 250 की आबादी वाले पूर्वे में 5 दुकानें हो गयी हैं। ऐसे में मंद बिक्री का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऊपर से आजकल गाँव में भी ऑनलाइन खरीदारी होने लगी है। दुकानदारी की स्थिति बहुत ख़राब है। मूल पूँजी ही खा रहे हैं। दो बच्चों के बाप सुरेन्द्र बताते हैं कि कोरोना के पहली मार का घाव अभी भरा भी नहीं था कि ये दूसरा प्रहार। आर्थिक तंगी के कारण दो भाईयों में बटवारा भी हो गया। बाबूजी को कैंसर है। कर्ज का दबाव बहुत ज्यादा है। कोई रास्ता नहीं सूझ रहा।
बढ़ईगिरी का काम कर रहे पंकज शर्मा बताते हैं कि हमलोगों का काम बिल्कुल ठप पड़ा है। सरकार अपनी तरफ से राशन जरुर मुहैया करा रही है लेकिन गवई राजनीति के चलते जरुरत मंदों तक राशन नहीं पहुँच रहा है। पिछले तीन महीने से सूची से मेरे परिवार का नाम ही कट गया है । कोई कुछ कारण भी नहीं बता रहा है। ऐसे में कोई कैसे गुजारा करेगा। आफत में ही आफत जैसी स्थिति है।
शहर, क़स्बा और गाँव, हर जगह मजदूरों की स्थिति कमोबेश एक जैसी है। यह बात माननी पड़ेगी कि सरकारी राशनिंग व्यवस्था, बहुत हद तक भूख से लड़ने में सहायक है। लेकिन इस बात से इंकार भी नहीं किया जा सकता कि जरुरतमंदों की एक बड़ी जमात, व्यवस्थागत खामियों की वजह से अभी भी सरकारी सुविधाओं से वंचित है। यद्यपि कि कुछ गैरसरकारी संगठनों की भूमिका बहुत ही सराहनीय है लेकिन स्थानीय समाज जरुरतमंदों की मदद में बहुत पीछे है। ऐसे में सरकार और समाज के सामने प्रमुख रूप से दो प्रकार चुनौतियां हैं। पहला वंचित समुदाय तक सरकारी तथा गैरसरकारी राहत सुविधाओं की पहुँच बनाना। दूसरा राहत के साथ साथ पुनर्वास तथा सामुदायिक क्षमता विकास कार्य पर बल देना। क्षमता विकास पर बल न देने का ही परिणाम है कि आम आदमी, अपने क्षमता विकास की योजना खुद बना रहा है और गिरते पड़ते, भाग्य भरोसे चल रहा है। ऐसे में यह नितांत आवश्यक है कि सरकार तथा नीति नियामक संस्थाएँ राहत के साथ साथ स्थिति की गंभीरता को देखते हुए आम जन के क्षमता विकास तथा पुनर्वास के लिए रोडमैप तैयार करे। इस कार्य में केंद्र, राज्य तथा गाँव सरकार सहित सभी हितभागी संस्थाओं का भूमिका निर्धारण भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस समय सरकार के आपदा, स्वास्थ्य तथा गृह विभाग को छोड़कर अधिकांश विभाग निष्क्रीय से है। ऐसे विभागों को क्षमता विकास के कार्य में लगाया जाना चाहिए तथा कोरोना तथा भूख की दोहरी मार झेल रहे मजदूरों को प्राथमिकता में रखा जाय। समय रहते मजदूर वर्ग को आर्थिक पैकेज, रोजगार परक प्रशिक्षण इत्यादि के माध्यम से सबल नहीं किया गया तो यह कोरोना से भी गंभीर समस्या बन सकती है।
– लेखक शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं ।