बिहार चुनाव 2020
– प्रशांत सिन्हा
17 वीं बिहार विधान सभा की तैयारियां जोर शोर से चल पड़ी हैं । सभी दल कहने के लिए तो चुनावी मुद्दा विकास को बता रहे है लेकिन बाहुबलियों को टिकट देकर क्या राज्य का विकास कर सकते हैं ? थोड़ी सी स्वार्थ की वजह से वैसे लोगों को चुनकर विधान सभा में भेजते हैं जहां से विकास की बात तो दूर अपने अधिकारों को भी खो देते हैं। चुनाव आयोग अपराधियों को रोकने के लिए नियम तो बनाता है लेकिन राजनीति दल कोई न कोई उपाय निकाल लेते है और जनता उनके पक्ष में भी वोट डाल देती है। बाहुबली और अपराधी राजनेताओं के बचाव के लिए वकीलों की भी कोई कमी नहीं है। इसी कारण राजनीति का अपराधीकरण रुकने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। वर्तमान में ऐसी स्थिति बन गई है कि राजनीतिक दलों के बीच इस बात की प्रतिस्पर्धा है कि किस दल में कितने उम्मीदवार अपराधिक पृष्ठभूमि के है क्योंकि इससे उनके चुनाव जितने की संभावना बढ़ जाती है।
राज्य में विधान सभा चुनाव 2020 के पहले चरण के 1066 प्रत्याशी में 319 का अपराधिक रिकॉर्ड है। इनमें 164 प्रत्याशी गंभीर मामलों के आरोपी है। गंभीर मामले का तात्पर्य हत्या, बलात्कार, उगाही, एवं अपहरण से है। सभी दल यह चाहते हैं कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा सीटें मिले। जिन बाहुबलियों को टिकट नहीं मिलते है या अयोग्य होने का डर होता है वे अपने पत्नियों को टिकट दिलवा देते हैं।
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चुनावी राजनीति पर नज़र रखने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और इलेक्शन वॉच के सर्वेक्षण के अनुसार 2005 के बाद से बिहार में 10,785 प्रताशियों ने लोक सभा या विधान सभा का चुनाव लड़े। इनमे 30% प्रत्याशी का अपराधिक रिकॉर्ड था जबकि 20% प्रत्याशी पर दर्ज मामले बहुत गंभीर है। रीत लाल यादव जो पिछले 15 वर्षों से गंभीर मामले में सजा काट रहे थे और अनंत सिंह जैसे बाहुबली को टिकट दिए गए है। यह आंकड़े बिहार की सियासत में अपराधियों की पकड़ की मजबूती ही दर्शाते हैं। राजनीति कितनी भी बदल जाए बिहार की राजनीति में बाहुबली की हमेशा बहार रही है।
राजनीति के अपराधीकरण का अर्थ अपराधिक आरोपों का सामना कर रहे लोगों और अपराधियों की बढ़ती भागीदारी से है। सामान्य अर्थों में यह शब्द अपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का राजनेता और प्रतिनिधि के रूप में चुने जाने का द्योतक है। राजनीति का अपराधीकरण समाज में हिंसा की संस्कृति को प्रोत्साहित करता है और भावी जनप्रतिनिधियों के लिए एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करता है। राजनीति में प्रवेश करने वाले अपराधी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं और नौकरशाह, विधायिका तथा न्यायपालिका सहित अन्य संस्थानों पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। राजनीति के अपराधीकरण के कारण चुनावी प्रक्रिया में काले धन का प्रयोग काफी अधिक बढ़ जाता है। महंगे चुनाव का आर्थिक बोझ कौन उठाएगा ? इस सोच के साथ नेतागण बाहुबलियों के साथ गठबंधन करते हैं। बाहुबली या अपराधी से इन्हें धन बल मिलता है जिसका इस्तेमाल चुनाव जीतने में करते हैं। बाहुबली जो पहले नेताओं का पीछे से समर्थन करते थे, बाद में खुद राजनेता बनकर उभरने लगे। तभी से अपराध का राजनीति करण शुरू हुआ।
अपराध और राजनीति का मेलजोल को रोकने के लिए चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायलय ने कोशिश की है। चुनाव आयुक्त टी एन शेषण, के जी राव ने चुनाव सुधार में बहुत योगदान दिया । अकेले दम पर बिहार जैसे अपराध से ग्रसित राज्य में शांतिपूर्ण चुनाव कराकर बताया कि जनता का ठोस निर्णय एवं चुनाव पद्धति में सहभागिता हो तो सब कुछ सुनिश्चित हो सकता है। कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायलय ने लिली थॉमस बनाम भारत सरकार ( 2013 ) के मामले में कहा था कि किसी भी निर्वाचित सदस्य की सदस्यता उसी दिन से समाप्त मानी जाएगी जिस दिन सजा का आदेश हुआ है ।
सरकार, संसद और राजनितिक दलों को अपनी अपनी विवशता भी है। अपराधी नेताओं के बचाव के लिए वकील भी खड़े रहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये बाहुबली मंत्री बनते ही सरकारी वकील या जज बनवा देंगे। वस्तु स्थिति यह भी है कि सब कुछ जानते हुए भी मतदाताओं ने अपराधिक छवि वाले नेताओं को भी भारी बहुमत से जिताते हैं। जब संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था अपराधियों के सम्मान में सुरक्षा कवच की तरह ” बचाव पक्ष ” बनकर खड़ी हो तो राजनीति का अपराधीकरण से आखिर कैसे बचाया जा सकता है।
यहां तक कि सर्वोच्च न्यायलय द्वारा एक फैसला आया कि दोष सिद्ध पर स्टे से बहाल हो सकती है सदस्यता। सर्वोच्च न्यायलय की संविधान पीठ का निर्णय है कि अदालत उन अपराधियों को जिनके मुकदमे लंबित हैं और आरोप भी तय हो चुका है , चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता है। तर्क यह है कि न्याय शास्त्र की निगाह में जब तक दोष सिद्ध न हो तब तक अभियुक्त निर्दोष माना जाता है। अगर लोकतंत्र को मजबूत करना है तो राजनैतिक दलों को अपना नैतिक दायित्व निभाते हुए गंभीर अपराध वाले बाहुबलियों को टिकट देने से बचना चाहिए। अपराधियों की बढ़ती संख्या पर रोक लगाने के लिए कानूनी ढांचे को मजबूत किया जाए। जनता को भी चाहिए की वह अपराधियों के पक्ष में चुनाव नहीं करें।
सरकार, संसद और राजनीतिक दलों की अपनी विवशता है तो सर्वोच्च न्यायलय की अपनी सीमा है। इस चुनाव में बिहार की जनता को सोचना और समझना होगा।