विश्लेषण
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
किसान आंदोलन 2020-21 ने भारत की आजादी के अहिंसक आंदोलन की याद दिलायी है। अब केवल दिल्ली की सीमाओं पर ही सत्याग्रह नहीं बल्कि अप्रैल से पूरे भारत भर के गाँव-गाँव, ग्राम सभाओं में संयुक्त कृषि मोर्चा किसान आंदोलन के समर्थन में प्रस्ताव पारित करवाने निकल पड़े हैं । 22 मार्च 2021 से यह प्रक्रिया पुनः आरंभ हुई है।यह आंदोलन भारत के उत्तर पंजाब से आरंभ हुआ, अप्रैल में आते -आते यह पूर्वोत्तर-पश्चिम-दक्षिण पूरे भारत में लोगों का ध्यान आकर्षित कर चुका है।
राजनीति से तो भारत का लोकतंत्र बचा हुआ है। दलगत राजनीति का खेल इसे बिगाड़ रहा है। भारत को बिगड़ने से बचाना है तो किसान आंदोलन को दलगत राजनीति से मुक्त रखना बहुत जरूरी है। अभी तक किसान आंदोलन की दिशा दलगत राजनीति से मुक्त रही है। पर आजकल आंदोलन में दलगत आवाजें सुनाई दे रही है। दलगत राजनीति को बड़ी संख्या में किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर चलने वाले आंदोलन में भागीदार होने से रोका है, लेकिन अब खुलकर वे इसमें आने लगे है। कारण मैं समझ सकता हूँ। आंदोलन वोट को प्रभावित कर सकता है यह दिखाना आंदोलनकारियों ने जरूरी समझा और चुनाव प्रचार में कूद गये।
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पर चुनाव प्रचार में कूदना आंदोलन की सेहत के लिए कभी अच्छा नहीं होता है। इसलिए अब यह किसान आंदोलन की सेहत सुधार का समय है। इस दिशा में प्रयास की जरूरत है ताकि किसान हित में खरीद गारंटी का कानून भी बने। अम्बेडकर जयंती 14 अप्रैल को किसान, लोकतंत्र और संविधान बचाने का संकल्प लेने वाले हैं । संविधान के सम्मान में किसान साक्षरता यात्रा 25 जून 2020 से देश भर में विविध रूपों में चालू है। उन्हें लगता है कि हमारे संविधान पर संकट है और उनकी समता, उसके श्रम के मूल्य में समता नष्ट हो रही है। उन्हें लगता है कि उनके श्रम को करार खेती द्वारा कैद कर दिया जायेगा। खरीद कानून द्वारा न्याय से वंचित कर दिया है – आवश्यक वस्तु संशोधन द्वारा किसान के उत्पाद पर एकाधिकार देकर कंपनी राज कायम किया जा रहा है।
पर क्या अब भी वे सर्वसम्मति बनाकर पहले जैसा साझा नेतृत्व बनकर, आंदोलन की आगे की दिशा स्पष्ट व सुनिश्चत बना पाएंगे ? आज जरूरत है इन सभी मुद्दों पर दोबारा से मंथन की।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।