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संस्मरण
शिवनाथ झा*
पटना: पटना कालेज के राजनीति शास्त्र विभाग में एक प्राध्यापक थे डॉ. मित्रनन्दन झा। गाँव के सम्बन्ध से मेरे भाई थे। वैसे उस परिवार में मेरा जगह कुछ अलग था क्योंकि मैं और मेरी माँ उस परिवार के बहुत पसन्दीदा और सम्मानित मानव थे। उन दिनों वे राजेंद्र नगर स्थित मोइनुलहक स्टेडियम के पीछे बने प्रोफेसर्स कालोनी में रहते थे। जमाना कुछ अलग था। उस समय प्रोफेसर्स कालोनी में रहने वाले किसी भी प्राध्यापकों को, उनके परिवारों को आम तौर पर छात्र होस्टल परिसर/आसपास से आना-जाना होता था, परन्तु कोई भी किसी के ऊपर टिका-टिपण्णी नहीं करते थे। माहौल बिलकुल अनुकूल था।
झा साहेब को इलाके के सभी वासिंदे जानते थे उनके अनुशासित स्वभाव के कारण। उन दिनों पटना विश्वविद्यालय के लगभग सभी प्राध्यापकों का मिलान किन्ही के घरों पर औसतन हुआ करता था।
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बात सत्तर के दशक की है। उसी समय पटना विश्व विद्यालय के एन्सिएंट हिस्ट्री विभाग के प्राध्यापक श्री जगदीश चंद्र झा का पटना आगमन हुआ था विदेश से। वे मोइनुलहक स्टेडियम के ठीक सामने रहते थे और मिथिलांचल के सभी प्राध्यापकों के चहेते थे। उनके दो बेटे सुभाष के झा और आभास झा हैं; जो उस समय बहुत छोटे-छोटे थे और मैथिली बोलना सिख रहे थे। आज सुभाष के झा भारतवर्ष के एक बेहतरीन फिल्म समीक्षक हैं जो पटना में रहकर ही अपनी कलम से बॉलीवुड पर कब्ज़ा किये हुए हैं, जबकि आभास झा, वरिष्ठ भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी बने।
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उसी समय प्रोफ़ेसर मित्रनंदन झा साहेब की बड़ी बेटी सुश्री मीरा की शादी ठीक हुयी, भागलपुर। वर-पक्ष को हम सभी जानते थे, परिचित थे। प्रोफ़ेसर मित्रनंदन झा की पत्नी यानि मेरी भाभी (भौजी) जो मुझे और मेरी माँ को बहुत मानती थी, सम्मान देती थी – दोनों का हाथ पकड़कर अपने शयनकक्ष में ले गयी। उनके पतिदेव भी वहीँ थे पान लगा रहे थे। हम दोनों माँ-बेटा को देखकर अपनी पत्नी की ओर देखे और ठहाका लगाकर हंस दिए:
“आहाँ कलाकार के पकरि के आनि लेलौं। आब अहाँक समस्याक समाधान भ गेल ……”
अब तक हम माँ-बेटा समझ नहीं पाए थे की कौन सा जबाबदेही इतने विस्वास के साथ हमें देने जा रहे हैं। फिर भाभी मेरा हाथ पकड़कर कहती हैं: “जस्सू (मेरा घर का नाम) अपनेक हाथ में आब इज्जत अछि। कनियांक कोहबर में बांस-पुरैन अपनेके बनाब पड़त खुब पैघ कागज़ पर, खूब सुन्दर । पेन्सिल, कागज़, रंग इत्यादि जे-जे समानक आवश्यता अछि, कृपया आनि लेल जाय कमाल बुक बाइंडिंग दूकान सं (यह दूकान पटना कालेज के मुख्य द्वार के ठीक सामने अशोकराज पथ पर आज भी स्थित है)।”
मैं इस जबाबदेही को सहर्ष स्वीकार किया क्योंकि उम्र में मैं जहाँ भी था, सम्बन्ध में उत्कृष्ट स्थान पर, सम्मानित स्थान पर था। जैसे ही इस कार्य का जबाबदेही की बात वहां उपस्थित अन्य महिलाओं, यथा मौसी (श्री दीनानाथ झा, सम्पादक, इन्डियन नेशन, पटना की पत्नी), सीता बहन (प्रोफ़ेसर डॉ आनन्द मिश्र, विभागाध्यक्ष, मैथिली विभाग, पटना कालेज की पत्नी), मैयां (प्रोफ़ेसर चेतकर झा, विभागाध्यक्ष, राजनीतिशास्त्र विभाग, प्राचार्य-कालेज की पत्नी) इत्यादि; लड़कियों, यहाँ तक की सौभाग्यवती मीरा को मालूम हुआ वह दौड़कर आयी और हाथ पकड़कर बोली: “कक्का, यु आर ग्रेट। आपका यह कार्य मेरे जीवन का बेहतरीन पल होगा आशीष स्वरुप ” हम सभी हम-उम्र के लोग मुस्कुरा रहे थे और सुभाष तथा आभास टुकुर-टुकुर हम सबों को देख रहे थे – मैथिली-हिन्दी समझने की कोशिश कर रहे थे क्योंकि वे वेस्ट इंडीज से आये थे।
घर आकर श्री लक्ष्मीनाथ झा द्वारा चित्रित और पिताजी के अथक परिश्रम वाला “मिथिला की सांस्कृतिक लोकचित्रकला” में उद्धृत तस्वीरों का बहुत ही बारिकी से अध्ययन किया। कैसे-कैसे पेन्सिल-पेंट-ब्रश ले जाना है, समझा, कोशिश किया और अंत में सुन्दर सा, आकर्षक बांस-पुरैन बनाकर माँ के साथ उन्हें अर्पित किया। सभी लोग पीठ थपथपाये, आशीर्वाद दिए और कहे: “ई गुण अपन बच्चोके देबै” – आज स्केच-इलस्ट्रेशन-पेंटिंग करते समय आकाश की उँगलियाँ थरथराती नहीं है।
बहरहाल, इस घटना के कोई चालीस साल बाद एक सुशील मैथिल महिला, जो शादी के बाद पटना के रास्ते दरभंगा से दिल्ली आयी थी और यहाँ अपने पति के साथ बसने की अनवरत कोशिश कर रही थीं; को जब बांस-पुरैन बनाते देखा तो वह दिन याद आ गया और कला-संस्कृति के सम्मानार्थ एक ४ फिट-६ फिट आकार प्रकार में बांस-पुरइन बनाने को कहा। उनकी कलाकृति आज भी घर में शोभायमान है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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