– ज्ञानेन्द्र रावत*
जलवायु परिवर्तन के खतरों को नजरअंदाज करना सबसे बड़ी भूल होगी
हाल ही में जापान में एशिया-प्रशांत जलवायु सप्ताह 2021 आभासी विषयगत सत्र का समापन 9 जुलाई 2021 को एक मजबूत सन्देश के साथ हुआ कि जलवायु कार्रवाई के लिए क्षेत्रीय गति नवंबर में ग्लासगो में आगामी संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन सीओपी-26 में सफलता में योगदान कर सकती है।
एशिया-प्रशांत क्षेत्र दुनिया के आधे से अधिक ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन करते हैं और वैश्विक आबादी के एक महत्वपूर्ण अनुपात के साथ दुनिया के सबसे तेजी से विकासशील क्षेत्रों में से एक है। गौर तलब है कि इसी इलाके में ऐसे ढेर सारे छोटे छोटे द्वीप हैं जिनका अस्तित्व ही आज समुद्र में जल के स्तर के बढ़ने की वजह से खतरे में है।
सत्र के अंत में, जापान के पर्यावरण मंत्रालय के उप महानिदेशक, सुश्री केइको सेगावा ने कहा: “एशिया-प्रशांत क्षेत्र को दुनिया के डीकार्बोनाइजेशन के लिए एक प्रमुख भूमिका निभानी चाहिए और दुनिया के आर्थिक विकास के प्रमुख चालक के रूप में इसकी लचीलापन बढ़ाना चाहिए। आने वाले दशकों में… जापान ने 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन हासिल करने, कार्बन तटस्थता की दिशा में वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करने और एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ठोस जलवायु कार्रवाई में तेजी लाने के लिए प्रतिबद्ध किया है।
एशिया-प्रशांत और दक्षिण एशिया में सीओपी 26 के क्षेत्रीय राजदूत केन ओ’फ्लेहर्टी ने कहा: “‘एशिया-प्रशांत क्षेत्र में जलवायु कार्रवाई ग्लोबल वार्मिंग को 1.5C तक सीमित करने की कुंजी है। पूरे क्षेत्र के देश पहले से ही जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहे हैं और उन्हें भविष्य के लिए अनुकूलन और लचीलापन बनाने की आवश्यकता होगी।
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आज सभी जलवायु परिवर्तन के प्रकोप को देख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन आज एक ऐसी अनसुलझी पहेली है जिससे हमारा देश ही नहीं, समूची दुनिया जूझ रही है। जलवायु परिवर्तन और इससे पारिस्थितिकी में आये बदलाव के चलते जो अप्रत्याशित घटनाएं सामने आ रही हैं, उसे देखते हुए इस बात की प्रबल संभावना है कि इस सदी के अंत तक धरती का काफी हद तक स्वरूप ही बदल जायेगा। इस विनाश के लिए जल, जंगल और जमीन का अति दोहन जिम्मेवार है। बढ़ते तापमान ने इसमें अहम भूमिका निबाही है। वैश्विक तापमान में यदि इसी तरह बढ़ोतरी जारी रही तो इस बात की चेतावनी तो दुनिया के शोध अध्ययन बहुत पहले ही दे चुके हैं कि आने वाले समय में दुनिया में 2005 में दक्षिण अमरीका में तबाही मचाने वाले आये कैटरीना नामक तूफान से भी भयानक तूफान आयेंगे। सूखा और बाढ़ जैसी घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी। जहां तक तूफानों का सवाल है, समुद्र के तापमान में बढ़ोतरी होने से स्वाभाविक तौर पर तूफान भयंकर हो उठते हैं। क्योंकि वह गर्म समुद्र की ऊर्जा को साथ ले लेते हैं। इससे भारी वर्षा होती है। कारण वैश्विक ताप के कारण हवा में जल वाष्प बन जाता है।
तापमान में बढ़ोतरी की रफ्तार इसी गति से जारी रही तो धरती का एक चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जायेगा। दुनिया में भयंकर सूखा पडे़गा। परिणामतः दुनिया का बीस-तीस फीसदी हिस्सा सूखे का शिकार होगा। इससे दुनिया के 150 करोड़ लोग सीधे प्रभावित होंगे।इसका सीधा असर खाद्यान्न, प्राकृतिक संसाधन, और पेयजल पर पडे़गा। नतीजतन आदमी का जीना मुहाल हो जायेगा। इसके चलते अधिसंख्य आबादी वाले इलाके खाद्यान्न की समस्या के चलते खाली हो जायेंगे और बहुसंख्य आबादी ठंडे प्रदेशों की ओर कूच करने को बाध्य होगी। जिस तेजी से जमीन अपने गुण खोती चली जा रही है उसे देखते हुए अनुपजाऊ जमीन ढाई गुणा से भी अधिक बढ़ जायेगी। इससे बरसों से सूखे का सामना कर रहे देश के 630 जिलों में से 233 को ज्यादा परेशानी का सामना करना पडे़गा। कहने का तात्पर्य यह कि देश में पहले से सूखे के संकट में और इजाफा होगा। निष्कर्षतः बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के अलावा दूसरे संसाधनों पर निर्भरता बढ़ जायेगी। उस स्थिति में तो और जबकि 11.3 करोड़ लोग दुनिया में भूख और कुपोषण से जूझ रहे हैं। ऐसी हालत में दूसरे साधनों पर निर्भरता और बढे़गी। दुनिया की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही होगी। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। इससे खाद्यान्न तो प्रभावित होगा ही, अर्थ व्यवस्था पर भी भारी प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ऐसी स्थिति में जल संकट बढे़गा, उस स्थिति में और जबकि इक्कीस करोड़ लोगों ने जल संकट के चलते विस्थापन का दंश झेला हो।बीमारियां बढे़ंगी, खाद्यान्न उत्पादन में कमी आयेगी, ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी, नतीजतन दुनिया के कई देश पानी में डूब जायेंगे। समुद्र का जलस्तर तेजी से बढे़गा और समुद्र किनारे के सैकड़ों की तादाद में बसे नगर-महानगर जलमग्न तो होंगे ही, तकरीबन बीस लाख से ज्यादा की तादाद में प्रजातियां सदा के लिए खत्म हो जायेंगी। जीवन के आधार रहे खाद्य पदार्थों के पोषक तत्व कम हो जायेंगे। कहने का तात्पर्य यह कि उनका स्वाद ही खत्म हो जायेगा। खाद्य पदार्थों में पाये जाने वाले विटामिन्स की कमी इसका जीता जागता सबूत है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी और उससे उपजी जलवायु परिवर्तन की ही समस्या का परिणाम है कि आर्कटिक महासागर की बर्फ हर दशक में तेरह फीसदी की दर से पिघल रही है, जो अब केवल 3.4 मीटर की ही परत बची है, यदि वह भी खत्म हो गयी तब क्या होगा?
समस्या यह है कि हम अपने सामने के खतरे को जानबूझ कर नजर अंदाज करते जा रहे हैं जबकि हम भली भांति जानते हैं कि इसका दुष्परिणाम क्या होगा? यह भी कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण मौसम के रौद्र रूप ने पूरी दुनिया को तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है। तकरीबन डेढ़ लाख से ज्यादा लोग दुनिया में समय से पहले बाढ़, तूफान और प्रदूषण के चलते मौत के मुंह में चले जाते हैं। बीमारियों से होने वाली मौतों का आंकड़ा भी हर साल ढाई लाख से भी ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। कारण जलवायु परिवर्तन से मनुष्य को उसके अनुरूप ढालने की क्षमता को हम काफी पीछे छोड़ चुके हैं। महासागरों का तापमान उच्चतम स्तर पर है। 150 साल पहले की तुलना में समुद्र अब एक चौथाई अम्लीय है। इससे समुद्री पारिस्थितिकी जिस पर अरबों लोग निर्भर हैं, पर भीषण खतरा पैदा हो गया है। दर असल इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि सरकारों का इस ओर किसी किस्म का सोच ही नहीं है। वह विकास को पर्यावरण का आधार बनाना ही नहीं चाहतीं। वर्तमान में यह दुर्दशा प्रकृति और मानव के विलगाव की ही परिणति है। निष्कर्ष यह कि जब तक जल, जंगल और जमीन के अति दोहन पर अंकुश नहीं लगेगा, तब तक जलवायु परिवर्तन से उपजी चुनौतियां बढ़ती ही चली जायेंगी और उस दशा में जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष अधूरा ही रहेगा।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद हैं।