रविवार पर विशेष
-रमेश चंद शर्मा*
अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन
अंग्रेजी हटाओ, हिंदी लाओ, देश बचाओ के नारे के साथ दिल्ली में भी आन्दोलन की लहर चली। प्रदर्शन, धरना, नारे, बैठक, सभा, भाषण, अंग्रेजी के बोर्ड पोतना, हटाना, तोड़ना, जलाना, मिटाना जैसे काम आम बात थी। बड़े बड़े नेताओ की सभा होती, जिसमें धुआधार, जोरदार भाषण होते। लगता आज ही देश से अंग्रेजी का कलंक मिट जाएगा। हिंदी ही हिंदी सब जगह नजर आएगी।
उस समय अपन को प्रादेशिक भाषाओँ की बहुत कम जानकारी थी। हिंदी, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी के बारे में जरुर मालूम था। इनका उपयोग होते देखा था। अपन भी अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन में कुछ कुछ करने लगे। पुरानी दिल्ली में खारी बावली, नया बांस, फरांस खाना, नया बाज़ार, लाहोरी गेट, श्रधानंद मार्केट, पीली कोठी, फतेहपुरी के आसपास अपन भी मौका पाकर कुछ कदम उठाने लगे। जहाँ तक हाथ पहुँच जाए वहां खुद रंग पोत देना, नारे लगाना, बड़े लोगों के पीछे लग जाना।
बच्चे होने के कारण अपना समूह छुपकर काम कर सकता था। लोगों के कंधे पर चढकर रंग पोतना तो खूब मजेदार लगता। एक दिन दंगल मैदान में सांसद सेठ गोविंद दास, प्रकाशवीर शास्त्री की सभा हुई। अपन भी सभा में पहुँचे। क्षेत्र के स्थानीय नेताओं ने अपना नाम बोलने के लिए दे दिया और मंच पर पंहुचा दिया। मंच पर जाकर माईक पर कुछ शब्द कहे, नारे लगाए और अपने को बड़ा तीसमारखां समझकर अपने समूह में आकर खड़े हो गए। कुछ लोगों ने हिम्मत की दाद दी, वाह वाह कहा, साथ वालों ने कहा अब तो नेताजी बन गए।
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सभा से जब लौटे तो चिंता लगी की यह बात पिताजी तक नहीं पहुँच जाए वरना शामत आ जाएगी। पोल खुल जाएगी। आने जाने पर रोक लग जाएगी, निगरानी शुरू हो जाएगी। ख़ुशी हुई अपनी कारस्तानियाँ छुपी ही रही। तब से अब तक गंगा जमना में कितना पानी बह गया मगर अंग्रेजी का बोलबाला दिन पर दिन बढ़ता गया। शहर से गाँव तक, घर घर पहुँच गई। भाषा के साथ साथ पहनावा, वेश भूषा , खाना पीना, रहन सहन पर भी अंग्रेजियत ज्यादा ही हावी हो गई। जो भारतीयता, हिंदी, हिंदुस्तान की बात करते थे, वे कुछ ज्यादा ही थोथे चने निकले। अब हालात सबके सामने है। सत्ता सुख भी लम्बा भोग लिया मगर भारतीयता, स्वदेशी, हिंदी किसी कोने में पड़ी सिसक रही है। कौन सुध लेगा।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं।