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सिटीजन कार्नर
– प्रशांत सिन्हा
कानपुर में पिछले हफ़्ते आठ पुलीसकर्मियों को बेरहमी से हत्या करने वाला विकास दूबे पुलिस इनकाउंटर में मारा गया। पिछले दो तीन दिनों में उसके कई साथियों को भी पुलिस द्वारा मार दिया गया या पकड़ लिया गया। उसकी दीदादिलेरी इस सीमा तक पहुँच गयी थी कि गिरफ़्तारी के लिए आ रही पुलिस दल को उसने पूरी तैयारी से घेर कर उनपर हमला किया जिसमें आठ पुलिसकर्मियों की घटनास्थल पर मौत हो गई और कई घायल होकर अस्पताल में है। जघन्य अपराधों के दसियों मामले दर्ज होने के बावजूद विकास दूबे का नाम पुलिस ने कानपुर के शीर्ष दस वांछित अपराधियों की सूची में नहीं डाला गया था। वर्ष 2001 में एक थाने में ही एक नेता की हत्या करने के बावजूद वह बरी हो गया था क्योंकि उस थाने में मौजूद सभी पुलिसकर्मी गवाही में मुकर गए थे।
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विकास दूबे का इतना रसूख था कि कानपुर जिले में लोग उसके ख़िलाफ़ बोलने में डरते थे। वहाँ के थाने के पुलिसकर्मी उसके पास या तो मर्ज़ी से या मजबूरी में उसके पास चाय पीने आते थे और उसके आदेशों का पालन करते थे। उसकी सभी राजनीतिक दलों के नेताओं के साथ उठना बैठना था।
हमारे नेता जनता से कम दबंगों के ज़्यादा क़रीब होते हैं। यही नेता इन्हें कारावास से निकलवाने में मदद करते हैं। ये नेता एक साधारण व्यक्ति को गैंगस्टर बनाते हैं। पुलिस-राजनीति-अपराध की पैदाइश है अपराधी। पुलिसकर्मियों को मारने वालों को मार दिया गया लेकिन उसे संरक्षण देने वाले कब पकड़े जाएँगे यह बहुत बड़ा सवाल है।
आज समाज में पुलिस की छवि बनी है उसके लिए पुलिस ख़ुद ज़िम्मेवार है। आज आम आदमी को जितना अपराधियों से डर लगता है उतना ही डर पुलिस से भी है। पुलिस को जन सेवक बनना चाहिए। पुलिसकर्मी ये भूल जाते हैं कि उनका कर्तव्य सामान्य जन की सुरक्षा प्रदान करना है न कि नेताओं को महिमामंडित करना। पुलिस को आम आदमी की सुरक्षा के प्रति गहरा सम्मान होना चाहिए। पुलिस की प्रतिबद्धता किसी व्यक्ति अथवा राजनीति दलों के प्रति नहीं हो सकती।
जन सुरक्षा के लिए बनी पुलिस नेताओं और दबंगों की सुरक्षा में अपना ज्यादा वक़्त देती हैं। नेता पुलिस का प्रयोग अपने तरीक़े से करते हैं। ये नेता पुलिस व उसके विभिन्न संगठन अपने स्वार्थ के लिए तोड़ मरोड़ करते हैं। पुलिस को कमज़ोर कर नेताओं ने गुंडों एवं दबंगों की शक्ति का विकास किया। इसलिए कहा जा सकता है राजनीतिक सत्ता का चरित्र नहीं बदला तो नौकरशाही या पुलिस कैसे बदलेगी ?
पुलिस सुधार आज़ादी के बाद से ही करने की आवश्यकता थी। अधिनायक प्रवृति का परिणाम है राजनीति का अपराधिकरण या अपराध का राजनीतिकरण जिसके कारण पुलिस व उसके सहयोगी विभागों में प्रभुत्व अनावश्यक रूप से बढ़ रहा है। यह स्पष्ट है कि आज अपराध को राजनीतिक संरक्षण पाने में कठिनाई नहीं होती और दूसरी ओर अपराध करने की स्वयं पुलिस की बढ़ती जा रही है क्योंकि संवेदनशीलता समाप्त होती जा रही है और उसकी क्रूरता से बेशर्मी बढ़ रही है। तभी हिंसा का विस्तार हो रहा है क्योंकि उसमें असामाजिक तत्वों के अतिरिक्त शासन का भी महत्वपूर्ण योगदान है।
लोकतंत्र में जनता का वोट ही सब कुछ है। सत्ताधारी द्वारा पुलिस प्रमुख यानि डी॰ जी॰ बुलाए जाते हैं और उनसे कहा जाता है “ ऐसे काम नहीं चलेगा डी॰जी॰साहेब हमें जनता के पास वोट माँगने जाना पड़ेगा। कैसे करेंगे? क्या करेंगे? आप जाने और आपका काम। यही बात डी॰जी॰ अपने आइ॰जी॰ और डी॰आइ॰जी॰ को कहता है । फिर आइ॰जी॰ और डी॰आइ॰जी॰ यही बात अपने एस॰एस॰पी॰ और एस॰पी॰ को पुलिसीया अन्दाज़ में कहता हैं फिर एस॰एस॰पी॰ और एस॰पी॰ थानाध्यक्षों को कहता है और अंत में थानाध्यक्ष करता है तो ठीक नहीं तो लाइन हाज़िर ।
क़ानून एवं व्यवस्था की स्थिति आज इस हालत में पहुँच गयी है कि अभियुक्तों को ज़मानत या अग्रिम ज़मानत देर सवेर मिल ही जाती है । प्रक्रिया की जाल में क़ानून इतना उलझ जाता है कि उससे निकलकर न्याय हासिल करने में दशकों लग जाते हैं। जब मामला लम्बा खिंचता है तो अक्सर न्याय अभियुक्तों के पक्ष में जाने का अंदेशा रहता है। अभियुक्त लोगों को गोली मारता है, फिरौती लेता है, ज़मीन हड़पता है इससे इसकी सम्पत्ति इतनी बढ़ जाती है जिससे उसे लगने लगता है कि दूनिया इनकी मुट्ठी में है। प्रायः ये हड़पी हुई सम्पत्ति के बदौलत सरपंच/मुखिया,पार्षद,विधायक, सांसद यहाँ तक कि मंत्री भी बन जाता है। किसी क़ानूनी प्रक्रिया के दाँव पेंच के के चलते 18-20 वर्षों तक मुक़दमा लम्बित रहता है। सारी परिस्थितियाँ जब हर तरह से अनुकूल हो जातीं हैं तो वह बाइज़्ज़त बरी हो जाता है और फिर माननीय भी बन जाता है। गवाह डर और लालच के कारण अदालत में मुकर जाते हैं। न्यायालय को साक्ष्य चाहिए।
विकास दुबे का एनकाउंटर पुलिस को एक बार फिर से सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है। जाहिर है कि उसकी मौत से उसके कई राज पर अब पर्दा पड़ गया है। किन शक्तिशाली लोगों का उसे संरक्षण मिला हुआ था जिनके दम पर वह क्राइम करता था, क्या अब यह राज़ कभी खुल पायेगा?
क़ानून एवं व्यवस्था के मामले में समग्रता से अत्यंत गहन विचार की आवश्यकता है। सारी समस्या का समाधान मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति में ही निहित है।
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Very nicely written!!