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– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
मैं सोचता हूँ कि यदि गंगा के पक्ष में खड़े ‘क्यों‘ इतने ही मजबूत हैं। गंगा …. गंगा है क्योंकि, के तर्क इतने ही प्रमाणिक है, तो फिर गंगा इतनी हीन-मलीन और मृत कैसे हो गई? भारत में नदियों के प्रति जैसी श्रद्धा और ‘मां‘ जैसा सम्बोधन दुनिया की दूसरी नदियों को नहीं मिला, लेकिन क्या बात है कि आज भी भारत की नदियां भारत के लिए राष्ट्रीय बेचैनी का विषय नहीं बन सकी हैं? जबकि टेम्स, राई और डेन्यूब जैसी घोर प्रदूषण वाली तीन प्रमुख यूरोपीय नदियां कभी यूरोप में राष्ट्रीय स्तर पर चिंता का विषय बनीं। सरकारों ने पहल की और आज ये तीनों ही यूरोप की स्वच्छ नदियां है। आखिरकार नदियों के प्रति उपेक्षा और उदासीनता के वर्त मान भारतीय चित्र के लिए जिम्मेदार कौन है? ..क्या हम खुद? भारत सरकार? नदियों के प्रवाह का नियंत्रण भारत सरकार ही करती है। प्रथम जिम्मेदार नहीं है। दूसरे संत और तीसरे समाज है।
समाज, व्यवहार आज कुंभ का अभिप्राय भी भूल गया है, इसलिए गंगा बेबस हुई है। आज हम भारतीय तो अपनी एक भी नदी की शुद्धता का दावा करने योग्य नहीं रहे। कहीं भूजल का शोषण , कहीं औद्योगिक कचरा…. नगरीय मल का प्रदूषण और कहीं सिंचाई के नाम पर हमारी नदियों को लूटा जा रहा है। गंगा में मल प्रदूषण की जिम्मेदार मल शोधन संयंत्रो की अक्षमता भी है। वानस्पतिक हृास के कारण गंगा में प्राकृतिक झरनों का जल कम हुआ है; गाद बढ़ी है। यह हुआ? ग्लेशियर और वर्षा जल में कमी के कारण गंगा में पानी कम हुआ है। दुनिया के ग्लेशियर बहुत तेजी के साथ सिकुड़ रहे है। दुनिया के ग्लेशियर बहुत तेजी के साथ अपना आकार खो रहे है जिसका प्रमुख कारण हमारी अप्राकृतिक जीवन शैली ही है।
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टिहरी बांध में बाँध कर गंगा जल को मृत बनाने का प्रयास पहले ही क्या कम था, जो कि अब अकेले उत्तराखंड में बहुत सी करीब छोटी-बड़ी विद्युत परियोजनाओं को मंजूर किया गया है। उत्तराखंड अपनी नदियों की कीमत पर ऊर्जाखंड बनाने के सपने देख रहा है। जब कि हम जानते है कि प्रकृति हमारे लालच को पूरा करने के लिए नहीं है। हमें उससे सिर्फ अपनी जरूरत भर लेने का ही अधिकार है। हम प्रकृति से जितना और जैसा लेते हैं, उसे उतना और वैसा शुद्ध तथा नैसर्गिक बनाकर देना हमारा दायित्व है। इस दायित्व को हमारा समाज और सरकार दोनों ही भूल गए हैं।
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हे गंगे तेरे बायें सीने पर नरोरा से बलिया तक 1100 किलोमीटर लम्बा और 24-25 फीट ऊंचा गंगा एक्सप्रेस वे बनाने की तैयारी कर ली गई है। दुर्भाग्य है कि हम एक बार तटबंधों में बंधी कोसी के बार-बार उफनने की घटनाओं से भी चाहे राज हो या समाज सबक लेने को तैयार नहीं है। एक ओर तो हम जयघोष करेंगे….गाएंगे -े ‘हर हर गंगे! जय जय गगं !े ! और दूसरी ओर भूल जायेंगे कि गंगा के प्रति गंगा की संतानों का दायित्व क्या है। जिस संत-समाज को नदी और पानी की पहरेदारी सौंपी थी, वह अपने उत्तरदायित्व से चूक गया है। व्यवहार और सिद्धांत का यह अंतर खत्म किए बगैर गंगा अब बचने वाली नहीं ….इसी ने गंगा को मृतप्राय बनाया है।
गंगे तू ही तू है, जिसने बार-बार अनके बार कष्ट झेले है, फिर भी तू मानव जाति का कल्याण करने में चूकती नहीं है। आज भी तूने भारतीय आस्था पकड़कर मजबूती से रखी हुई है, इसलिए भारत पूरी दुनिया में आज भी गंगा, यमुना की संस्कृति का समृद्ध राष्ट्र बनाकर रखा है।
हे गंगे ‘तू ही तू है‘, तू ही तू है, तू ही तू है। हम सदैव प्रार्थना करते है। हर-हर गंगे! जय-जय गंगे। लेकिन तूने हमारे जीवन , जीविका हेतु अपना सभी कुछ दे दिया है। इसलिए तेरी प्रार्थना करते है। तेरे ज़मीर के लिए इंसान और राज को कुछ करने की जरुरत होती है, तो भूल जाते है। तब तो ज़मीर वाले स्वामी सानंद, स्वामी निगमानंद, स्वामी गोकुलानंद पद्मावती, आत्मबोधानन्द और स्वामी शिवानंद सरस्वती ही आगे आते हैं।
गंगे माई के नाम पर हजारों संघठन, संस्थाएं, व्यक्ति अपनी कमाई में ही जुटे हैं। घर-परिवार छोड़ कर तुझे अपना परिवार बनाने और मानने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती ही जा रही है।
तुझमे प्रेम , विष्वास , आस्था, श्रृद्धा, ईष्ट और भक्ति भाव है। इसी से पूरी दुनिया का तुम तीर्थ हो। सभी धर्मों के लोगों में आपके प्रति तीर्थ भाव है। तू गंगे विश्व तीर्थ है। बनी रहेगी। विनाश काल में विपरीत बुद्धि बनी है। तू तेरी शक्ति से बची रहेगी। सनातन बनकर बहती ही रहेगी। सनातन, अविरल, निर्मल बनकर बहेगी। गंगे तू ही तू है।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।
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