– डॉ. राजेंद्र सिंह*
कोरोना प्रकृति का क्रोध है
‘‘कोरोना‘‘ महामारी, बिमारी प्रकृति ने बनाई है या मानव के रावणीय लालच से बनी है! यह निर्णय कब तक होगा, पता नही? अभी इसे मानवीय लालच से ग्रस्त प्राकृतिक क्रोध माना जा सकता है। हम सभी का निर्माण महाविस्फोट से हुआ है। 13.8 अरब साल, पहले महाविस्फोट से ही वस्तुमान, समय और अंतरिक्ष का जन्म हुआ था। इसके पहले क्या था? इसे कोई नहीं जानता है।
वैसे ही कोरोना को कोई नहीं जानता, कोरोना प्रकृति का क्रोध है! खाद्य श्रृंखला से बहुत से जीवो का अंत होना, इससे कोरोना तथा दूसरे वायरसों के अंत की खोज करना कठिन होगा। क्योंकि प्रकृति में कौन सा वायरस? किसकी उपस्थिति से नष्ट होता है, वह संपूर्ण ज्ञान, अभी मानवता को नहीं हुआ है। उसी की खोज का दुष्परिणाम ‘कोरोना‘ हो सकता है।
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धरती पर हुए विस्फोट के इतिहास से हम सीख सकते हैं। प्राकृतिक सृजन के लिए महाविस्फोट होता ही हैं। जब तक भौतिक शास्त्र के सिद्धांत नहीं थे, दूसरा महाविस्फोट तीन लाख वर्ष बाद हुआ। जब कुछ भौतिक शास्त्र के सिद्धांत बनने लगे। तब वस्तुमान और ऊर्जा के परस्पर संबंधों से अणु निर्माण हुआ। अणु और परमाणु के सहसंबंधों को समझना ही रसायन शास्त्र है। इसी से जीवन और मृत्यु की औषधि निर्माण होती है।
जब भी लोभी, लालची व्यक्ति को इसका ज्ञान हो जाता है, तो वह मारने की औषधि निर्माण करता है और जब शुभ की चाह रखने वाले व्यक्ति को जब ज्ञान होता है, तो उसके मन में जनचेतना द्वारा सभी के लिए सुख, शांति, समृद्धि की राह खोजना आरंभ करता है, सेवा का भाव जागृत होता है। सभी की भलाई हेतु भयमुक्त बनाने के लिए चिकित्सा के उपाय खोजता है। अपने आनंद को वह साझा करता है, सभी की भलाई में अपनी भलाई ढूंढता है। भलाई करने के सभी रास्ते खोजता है, ऐसे लोगों के जीवन में प्राकृतिक सत्य की सत्यता को ‘‘भगवान‘‘ मानना, उसी को प्रेम, सम्मान, श्रद्धा, निष्ठा और भक्ति करने लग जाता है।
पृथ्वी तो 4.5 अरब साल पहले ही अस्तित्व में आ गई थी। जब तक पृथ्वी जलते वायु का गोला थी, तब तक इस पर कोई कोरोना जैसा वायरस या जीव ही नहीं था। पृथ्वी पर हाइड्रोजन दो और एक ऑक्सीजन के अणु एक साथ आकर मिल गए और इसी से पृथ्वी पर जल की निर्मिती हो गई। उस काल में प्रथ्वी काफी गर्म थी, इसलिए जीव संभव नहीं था। उसके बाद जल ने धरती को ठंडा किया। तीसरा महाविस्फोट था 3.8 अरब साल पहले जब ‘‘पृथ्वी‘‘ पर कुछ अणु जुड़ गए, वह जीव कहलाने लगे। जल में एक सैल के अमीबा जैसे जीव ने जन्म लिया, फिर पानी की भाप बन उससे बादल बने और वर्षा का सिलसिला लाखों साल तक चलता रहा।
3.4 अरब साल पहले समुद्र का जल काफी गर्म था, जिसमें असंख्य अणु- परमाणु बिखरे पड़े थे। यह प्रायमॉरडीयल हॉट सूप कहा जाता था। इसके ऊपर बिजलियाँ कड़कती थी। इस असाधारण वातावरण में साधारण रेणु और अणुओं ने ज्यादा जटिल संख्या का निर्माण किया। यह जीवन की शुरुआत थी। जीवन अपने जैसे गुणधर्म के अन्य जीवो को जोड़कर अपनी एक और श्रृंखला को जन्म देने की क्षमता रखता है। इसलिए जीवन के साथ, जीवन की जरूरत पूरी करने हेतु एक समग्र खाद्य श्रृंखला भी बन गई। यह खाद्य श्रृंखला एक लंबे काल तक चली।
महासागरों में जब जीव का जन्म हुआ तो उसी जीव से विविधतापूर्ण खाद्य श्रंखला संपन्न सृष्टि का सृजन हुआ। चार्ल्स डार्विन ने कहा था कि प्रकृति चुनाव करती है, वह उन्हीं जीवो को चुनती है, जो अपने पर्यावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करते हैं। जीव बहुत होते हैं और संसाधन सीमित। सीमित संसाधनों की छाया में अपने को ढालकर टिकायें रखते हैं, प्रकृति जिसका चुनाव करती है, वही बचता है। सदैव ही प्रकृति के अनुकूल जीवों को ढलना पड़ता है, इसी से जैव विविधता का निर्माण होता है। इस प्रक्रिया को हिंदू शास्त्रों में सनातन कहते हैं। यह सनातन प्रक्रिया हिंदू शास्त्र के अनुसार कभी नष्ट नहीं होती परंतु उसमें भी महा विस्फोटों को प्रलय शब्द के साथ जोड़कर उपयोग किया जाता रहा है।
अभी कोरोना के बारे में महाविस्फोट कहना या प्रलय की घंटी बजाना, इसको माने या न माने थोड़ा कठिन है किंतु प्रकृति की प्राकृतिक खाद्य श्रृंखला में बहुत सारे जीव और जातियों के विलुप्त होने को महा विस्फोट की तरह देखा नहीं गया।, जबकि खाद्य श्रृंखला से किसी भी जीव या जातिओं के समूह का विलुप्त होना, महा विस्फोट है। क्योंकि इस महा विस्फोट में कोरोना जैसे विनाशक वायरस जन्म लेते हैं। मानव जाति इस वायरस पर तो नियंत्रण कर लेगी, लेकिन प्रकृति में जातियों व जीवो के विलुप्त होने से ऐसे और नए वायरस जन्म होना या पैदा होने से कितना रोक पाऐगें, यह एक बहुत बड़ा सवाल है? इस बड़े सवाल का जवाब केवल चार्ल्स डार्विन का ही सिद्धांत है कि, प्रकृति उन्हीं को चुनती है, जो अपने आप को प्रकृति के अनुकूल ढाल लेते हैं या बदल लेते हैं। जिस भी जीव या जाति में प्रकृति का अनुकूलन नहीं होता, वह नष्ट होगी ही, इसलिए अब मानव जाति के सामने कोरोना ने इस बात की घंटी बजाई है कि, आप प्रकृति के अनुकूल जीना सीखें और प्रकृति पर अतिक्रमण, प्रदूषण व शोषण रोकें । मनुष्य जाति ने यदि इसे नहीं रोका तो प्रकृति स्वयं चुनाव करेगी कि वह भविष्य में किसे जीवित रखेगी और किसे लुप्त करेगी ।
महाविस्फोटों की गति अब तेज हो रही है। पहले ऐसे महा विस्फोट अरबों-अरब सालों के बाद होते थे, फिर लाखों सालों के बाद शुरू हुए, फिर हजारों सालों के बाद होने लगे फिर सैकड़ों और अब दहाइयों में विस्फोट हो रहे हैं। मनुष्य ने जब से प्रकृति के विपरीत अपना आचरण और आहार-विहार बदला है। आरोग्य रक्षण के स्थान पर स्वास्थ्य रहने के लिए सुख-सुविधाओं का सहारा लिया है, तब से प्रकृति का क्रोध बढ़ रहा है और यह क्रोध महा विस्फोटों को जन्म दे रहा है।
महाविस्फोट हमारे वर्तमान और भविष्य का संकट है। इस संकट से बचने का समाधान पर्यावरणीय अनुकूलन ही है। अनुकूलन ने हमारे जीवन को अब तक संयम और प्रकृति के साथ लेने-देने में अनुशासित एवं संतुलित करक रखा था। लेकिन अब हमारा लालच दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस बढ़ते लालच से अब हम मानवीय जीवन को संकट पहुँचाने वाले वायरस पैदा कर रहे हैं। अब ऐसे महा विस्फोटों की घटनाएं कितनी तेज होगी यह बताना अभी उचित नहीं है। लेकिन अभी भी मानव जाति के लिए शुभ यही होगा कि कोरोना जैसा महा विस्फोट से हम सीख लें और चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत समझने की कोशिश करें। भारत के सैकड़ों ऋषियों, महाऋषियों, उपनिषदों, वेदों ने मानव जीवन के लिए जो सबसे ज्यादा जरूरी है, वह समय-समय पर बताया था। आज हम इस कोरोना जैसी महामारी से बचने के लिए अपने भारतीय मूल ज्ञान से सीखने की कोशिश करें। प्रकृति का प्रेम, सम्मान, श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति के साथ व्यवहार करें और अपने जीवन के आरोग्य रक्षण की परंपरा को निभायें। इस बुरे वक्त में कोरोना की चेतावनी को समझदारी से स्वीकार करें, सावधानियां बरतें, लापरवाही किए बिना जरुरी चिकित्सा प्राप्त करें। कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए भावना के स्थान पर सावधानी रखने का काम करें। लेकिन कोरोना को महाविस्फोट की तरह देखकर प्रकृति चयन का सम्मान करते हुए, जीवन जीने की कला अपनाऐं। यही हम सब के लिए शुभ है।
*लेखक पूर्व आयुर्वेदाचार्य हैं तथा जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।