मुद्दा
– डॉ. राजेंद्र सिंह*
कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने जो चिट्टी लिखी थी, उसमें उनके पहले पेराग्राफ में लिखा है कि, किसान संगठनों ने उनका समर्थन किया है, लेकिन वास्तविकता यह है कि, एक भी किसान संगठन समर्थन में नहीं है। अब इन्होंने कुछ नये बनाये हो सकते है। जो खेती नहीं करते हो या लालची हो सकते है। जो इस कानून का समर्थन करते हो? फिर आगे कहा कि, नए कानून आ जाने के बाद इस बार सारी खरीद के सारे रिकार्ड टूट गए है। लेकिन कुछ भी आंकड़े सरकार ने नहीं दिए।
कृषि मंत्री के पत्र को यहां पढ़ें
सरकार किसानों को गुमराह कर रही है और कहती है कि जिस सरकार ने लागत का डेढ़ गुना एमएसपी दिया है। जबकि स्वामीनाथन कमेटी ने कहा था कि, सम्पूर्ण लागत का डेढ़ गुना दीजिए। जबकि सरकार सिर्फ आंशिक लागत का डेढ़ गुना दिया है। यदि सरकार सम्पूर्ण लागत से एमएसपी पर देती तो, गेहूँ की कीमत इस समय 2500 के करीब होती।
एपीएमसी मंडियाँ इस कानून की परिधि से बाहर है। जबकि इन मंडियों से कानून का कोई मतलब ही नहीं है। आपका जो दूसरा कानून है, उसका मुख्य उद्देश्य ही यह है कि, इन मंडियों के सामने ही निजी कम्पनियों को खड़ा करना है। इस कारण से सभी मंडियां अपने आप समाप्त हो जायेंगी। निजीकरण साझे शुभ को समाप्त करके एक ही व्यक्ति या कम्पनी को लाभकारी बनाता है।
आगे सरकार ने कहा है कि कृषि उपज का खरीद मूल्य दर्ज किया जायेगा। लेकिन हम यह कह रहे हैं कि इसमें न्यूनतम मूल्य (एमएसपी) की कोई गारंटी नहीं है। इस में होना ये चाहिए था कि कोई दाम सुनिश्चित हो कि इससे कम दाम में फसल नहीं बेची जानी चाहिए। हम सिर्फ इतना पूछ रहे हैं कि क्या फसल का कोई कम से कम मूल्य होगा? उससे कम खरीद करने वाला दंडित होगा या सभी कुछ व्यापारी को सुरक्षा देने वाला ही यह कानून रहेगा।
इन कानूनों के लेकर सरकार ने कोई सलाह-चर्चा नहीं हुई है। सरकार कहती है कि दो दशक से इस पर चर्चा चल रही है। पहले शंकर लाल गुरू कमेटी हुई थी, 2003 में मॉडल एक्ट हुआ था, फिर एमएसपी नियम बना था, 2010 हरियाणा, पंजाब, बिहार, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों की समिति बनी थी, 2013 में कृषि राज्यों की संतति हुई थी, 2017 में मॉडल एक्ट हुआ था और 2020 में कानून बना था। लेकिन हम सिर्फ इतना पूछ रहे है कि, आपने किसी किसान संगठनों के साथ इस संबंध में बात हुई थी? लेकिन इसका कोई जवाब नही है। इन्होंने सिर्फ सरकार की अपनी कमेटी बताई है। इस सरकार ने इसमें एक कमेटी नहीं बताई, जब मोदी सरकार गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तब उस कमेटी ने कहा था कि एमएसपी को कानूनी दर्जा दिया जाए। बात यह है कि सरकार ने इस कानून के संबंध में कभी किसी किसान संगठन से बात नहीं हुई थी।
सरकार कहती है कि एमएसपी बंद नहीं करेगी, यह जारी है और आगे भी जारी रहेगी। जबकि यह नहीं कह रहे कि एमएसपी पर खरीद होगी! यह सिर्फ जारी है, ही बोल रहे हैं । मतलब सीधा है कि, कागज पर थी, कागज पर है और कागज ही रहेगी। सरकार हर साल 23 फसलों पर एमएसपी घोषित कर देती है। लेकिन खरीदती है दो या ढाई। तो पहले भी इतना ही खरीदते थे और आगे भी यह इतना ही खरीदेंगे। किसान जानना चाहते है कि आज एमएसपी की व्यवस्था का फायदा जहाँ-जहाँ मिलता है, क्या वह जारी रहेगा? उस स्तर पर जारी रहेगा? और भविष्य में जिन्हें नहीं मिलता, उन्हें मिलेगा या नहीं मिलेगा? सरकारी पक्ष में इस स्पष्टता की जरूरत है। वह कुछ भी स्पष्ट नहीं किया है। किसानों की मांगों के विषय में कुछ भी इस पत्र में नही दिया है।
सरकार कहती है कि किसानों की आय बढ़ी है। लेकिन इनके पास कोई आँकड़ा नहीं है। फसल बीमा योजना से किसानों को लाभ मिल रहा है, लेकिन यह योजना पूरी तरह से फेल हो चुकी है। गुजरात में इसको बंद कर दिया गया है। सरकार के पास कोई आँकड़ा नहीं है। इससे सिर्फ व सिर्फ प्राइवेट कम्पनियों को ही फायदा हुआ है। उन्हीं के द्वारा तैयार यह कानून हमारी सरकार ने पास किया है। कम्पनियों द्वारा किसानों की लूट की छूट देने हेतु यह कानून बनाया है।
सरकार का कहना है कि किसान और व्यापारी के बीच एग्रीमेंट सिर्फ उपज का होगा तो उसकी जमीन कैसे चली जायेगी। लेकिन करार खेती के अंदर लिखा हुआ है कि करार जमीन का नहीं होगा, फसल का होगा। सीधी सी बात है कि यदि आपकी जमीन पर किसी कम्पनी ने निवेश किया है, तो वह करार खत्म होने पर अपने पूरे निवेश का पैसा वापस कर सकेगी, उसके लिए जो कुछ भी जरूरी होगा, वह कर सकेगी। जैसे कोई दस लाख का करार करता है, फिर वह कहती है कि मेरे दस लाख वापस करो और आपके पास पैसे हैं नही, तो आपको जमीन बेच कर ही वापस करना पड़ेगा। जमीन पर कब्जा ही नहीं उसे पूर्ण रूप से हड़पने के रास्ते तैयार करता है ये कानून ।
किसान को गुलाम बनने से कैसे रोकेंगे? लुटने से कैसे रोकेंगे? किसानों को पूरी दुनिया में अब पारिस्थितिकी सेवा मूल्य के आर्थिकी के साथ जोड़ने का काम शुरू हो गया है। दुनिया भर में किसानों ने अपने उत्पाद का मूल्य तय करना भी शुरू किया है। इस किसान मूल्य निर्धारण कार्य में सरकारों ने उनकी मदद में कानून किसानों द्वारा बताये रास्ते पर चलकर बनाये है। भारत सरकार भी किसानों से बात करके किसान हित में नए कानून बना सकती है।
पहला जो कृषक सरलीकरण संरक्षण के नाम पर कानून बना है। उसमें केवल कम्पनियों के लिए सरलीकरण संरक्षण प्रदान किया है। आवश्यक वस्तु अधिनियम द्वारा किसान की लूट में छूट देने हेतु उसके दाल, अन्न सभी को आवश्यक वस्तुसूची से हटाकर कम्पनियों को आजादी प्रदान कर दी है। करार खेती में निवेश के नाम पर वसूली से जमीन हड़पने के रास्ते खोले है। ये ही तीनों कानून के इस विषय में मंत्री जी का पत्र कुछ भी नहीं बोलता है।
यह कृषक कानून नहीं, बड़ी कम्पनियों का कानून है। इनसे कृषक की लूट होगी, गरीब किसान – मजदूर भूखे मरेगा। कमायेगा लेकिन वह खायेगा नही है। ‘‘लूटने वाला खायेगा।’’
तीनों कानून :-
1.कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020 :-
कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (सर्वधन और सरलीकरण) अधिनियम, 2020 का नाम सुनकर बहुत ही अच्छा लगता है। लेकिन अध्ययन करने पर पता चलता है कि कृषि प्रधान देश में कृषक की उपज को व्यापार वाणिज्य करते समय इसे कितना घटिया समझा है। संवर्धन और सरलीकरण के नाम पर कृषक हेतु जटिल और वाणिज्यकर्ता के लिए उसकी लूट को सरल बना दिया है। ऐसा लगता है कि, विधेयक किसी वाणिज्यकर्ता ने ही तैयार किया है। कृषक हित इसमें नहीं है। यह कानून वाणिज्यकर्ता का संवर्धन व सरलीकरण अधिनियम है।
इसके अध्याय दो के आरंभ में ही कृषक की स्वतंत्रता को समाप्त करके, व्यापार में वाणिज्यकर्ता को सम्पूर्ण जमाखोरी-कालाबाजारी करके, कृषक की लूट में छूट प्रदान कर दी है। कृषक को अनुसूचित करने के नाम पर शक्त बंधन किये हैं। व्यापारी को इलैक्ट्रानिक-व्यापारिक प्लैटफार्म देने के नाम पर कृषक को धोखा देकर, उसे लूटकर भगाने की सभी प्रकार की सुविधा प्रदान कर दी है।
अध्याय तीन में विवाद समाप्त करने के लिए उपखण्ड अधिकारी, जो मंत्रियों के पीछे-पीछे दौड़ता रहता है। उसे ही सम्पूर्ण अधिकार दे दिये हैं । जो नेता के आदेश से व्यापारी को सम्पूर्ण संवर्धन करेगा और कृषक को लूटेगा।
अध्याय चार में दंड प्रावधान बहुत ही कमजोर है। कृषक की लूटकर भागने की व्यवस्था पहले से मौजूद है। व्यापारी पर 50 हजार से लेकर 5 लाख की दंड व्यवस्था सीमित कर दी है। लेकिन हम जानते है कि करोड़ों -अरबों पर हज़ारों का दंड कम है। आजकल तो अदालत जाने पर ही हजारों-लाखों खर्च होता है। कृषक को इससे कुछ भी न्याय मिलने वाला नहीं है।
अध्याय पाँच में कृषक बाजार की सभी शक्तियाँ, जिले व राज्य से भारत सरकार ने ले ली है। इस अधिनियम का अध्याय एक, इसे सम्पूर्ण रूप में व्यापारीकरण हेतु परिभाषित करता है। इसके नाम में ही सरलीकरण-संवर्धन को कृषक के साथ जोड़ा है। इस अधिनियम के आरंभ से अंत तक व्यापारी कृषक को सरलता से लूट सके, ऐसी व्यवस्था बनाई है। कृषक लूट से व्यापारी का संवर्धन होगा। इसका नाम होना चाहिए था ‘‘व्यापारी संवर्धन सरलीकरण अधिनियम, 2020’’ ।यह कृषक को नहीं चाहिए, इसे सरकार रद्द करे।
2. कृषक(सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 :-
यह अधिनियम छोटे किसान और बड़ी कम्पनियों के बीच अनुबंध खेती करने वाला कानून है। यह बड़ी कम्पनियों को मनमानी करने की छूट देता है। जैसे एक तालाब में बड़ी मछली, छोटी मछली को खाती है। यह प्राकृतिक माना जाता है। लोकतंत्र छोटे कृषक को संरक्षण देने के स्थान पर बड़ी कम्पनियों को लूट करने की आजादी प्रदान कर रहा है। कृषक को आजाद भारत में गुलाम बनाने वाले तीनों अधिनियम रद्द करने के लिए एक कृषक आंदोलन पंजाब से शुरू हुआ है। अब सम्पूर्ण भारत में यह विस्तार पा रहा है।
3. आवश्यक वस्तु(संशोधन) विधेयक, 2020 :-
आवश्यक वस्तु(संशोधन) विधेयक, 2020 भी 5 जून 2020 को प्रगट हुआ है। यह आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 का संशोधन है। इसको कृषक द्वारा उत्पन्न अन्न, दाल, सब्जियों आदि को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटा दिया है। यह व्यापारियों को असीमित भंडारण करने हेतु ही किया गया है। कृषक जो जीवन चलाने हेतु उत्पादन करता है, उसके अन्न, दाल, सब्जियों की जमाखोरी करने के लिए व्यापारियों को आजादी है। यही संशोधन कालाबाजारी को बढ़ाने के रास्ते खोलता है। आवश्यक वस्तुओं का कोई भी असीमित भंडारण नहीं कर सकता है। इसलिए सरकार ने अन्न, दाल, दूध, सब्जियों को आवश्यक वस्तुओं की सूची से अलग कर दिया है।
किसान धरती माँ की सेहत ठीक रखने हेतु अपनी श्रमनिष्ठा से पहले मिट्टी को तैयार करता है। उसमें बीज बोकर, फिर उसका पोषण ही करता रहता है। किसान धरती, प्रकृति, मानवता, वनस्पति व जीव जगत का शोषण नहीं करके पोषण में ही लगा रहता है। उसके उस पोषण करने की कीमत ही पारिस्थितिकी सेवा है। उसकी उस सेवा को आर्थिकी का आधार बनाये।
किसान तो आज पारिस्थितिकी की आर्थिकी की मांग अभी बहुत ज्यादा नहीं कर रहा है। जिस दिन पारिस्थितिकी सेवा की आर्थिकी माँगेगा तब क्या होगा? तो वही पारिस्थितिकी का सच्चा सेवक है। उसकी सेवा का दाम उसे मिलना आरंभ हो जायेगा तभी मैं मानूँगा हमारा महान भारत समृद्धि और सनातन विकास के रास्ते पर चल पड़ेगा है। जब तक किसान को उसकी पारिस्थितिकी सेवा का दाम देना शुरू नहीं करते। तब तक भारत को आत्म स्वावलम्बी बनाने की बातें बेईमानी है। किसान स्वाबलंम्बी होकर ग्राम स्वाराज्य लायेगा। वही भारत को आत्म निर्भर बनायेगा।
बापू ने ग्राम स्वावलंबन के लिए ही अंग्रेजों की लूट रोकने हेतु चरखा चलाकर मैनचेस्टर कंपनी की लूट रोकी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत से भगाया था। अंग्रेजों का राज खत्म करके अपना ‘ग्राम स्वाराज्य’ कायम करने की कल्पना की थी। हमारा संविधान भी ग्राम स्वराज्य के रास्ते खोलता है। लेकिन सरकार व बाजार ही इसमें अड़चन बनकर ग्राम स्वराज्य के रास्ते बंद कर रहे है।
आज भारत भर के किसान आंदोलनरत है। यह आंदोलन अनुशासित, निर्भय, अहिंसामय सत्याग्रह है।किसानों ने अपना शांतिमय स्वरूप, अहिंसात्मक रास्ता पकड़ा है। महात्मा गांधी ने इसी रास्ते पर देश को खड़ा करके अंग्रेजों को भगा दिया था।
14 दिसम्बर 2020 को दल-गत राजनीति से दूर जन आंदोलन, स्वैच्छिक और शिक्षण संस्थाओं ने मिलकर 27 राज्यों में 12 घंटे का उपवास रखा। यह इस बात का प्रमाण है कि, हमारे देश की जनता दलगत राजनीति से दूर रहकर किसान आंदोलन को आगे बढ़ाना चाहती है। इस देश की विभिन्न सामाजिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक विचारधारा दलगत राजनीति से दूर रहकर, इस देश को निर्भय और अनुशासित बनाकर, पुनर्निर्माण में जुटने के लिए तैयार है।
सरकार अभी तो किसानों की पहली एक बात मानकर तीनों कानूनों को रद्द करके उन्हें सम्मान देकर उनके घर जाने दे। उनकी खेती को जंगली जानवर नष्ट कर रहे है। फसलें सूख रही है। बुआई करके तुरंत दिल्ली आये है। यह फसल की ठीक से सिंचाई और देखभाल नहीं कर पायेगा तो अपने देश की हानि होगी। इनकी बात मानना सभी के लिए शुभ है।
*लेखक जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।