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पुस्तक समीक्षा
बिहार इंद्रधनुषीय लोकरंग
लेखक: मृदुला सिन्हा
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प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत, नई दिल्ली, पृष्ठ संख्या: 209, मूल्य: रु. 340/-
– डॉ. राजीव श्रीवास्तव
भारत की विराट लोक संस्कृति अपने ही विभिन्न प्रान्तों की आँचलिकता को स्वयं में समेटे जिस प्रकार विविधतापूर्ण वैभव की अनंत धरोहर लिए वर्तमान में भी मुखर है वह अद्भुत है. संस्कृति के मूल से यदि ‘लोक’ का विलोप हो जाए तब वह उसी प्रकार जड़ हो जाती है जैसे प्राण के बिना देह. एक ऐसी देह जो स्थूल रूप में दिखाई तो देती है परन्तु अनुभूतियों के स्पंदन के अभाव में संज्ञा शून्य रह जाती है.
लोकरंग की बहुआयामी धरोहर की ऐसी ही जीवंत सौगात ले कर आयी है वरिष्ठ लेखिका, विचारक एवं सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती मृदुला सिन्हा की नवीनतम पुस्तक “बिहार इंद्रधनुषीय लोकरंग”. पौराणिक काल से ही अपनी लोक परम्परा के गौरवमयी धरोहर को विगत की समृद्ध सम्पदा के संग आगत के प्रत्येक स्वप्न संसार के व्योम पर सजा कर वर्तमान के जिस मस्तक को श्रृंगारित किया गया है, उसी की अनुपम छवि है यह पुस्तक. भारत का वर्तमान बिहार प्रान्त अपने गौरवशाली अतीत में जहाँ एक अंचल में मिथिला की महान लोक धरोहर को समेटे हुए है तो दूसरी ओर विश्व के प्रथम गणतन्त्र वैशाली की अपूर्व लोकसत्ता को वरण किये हुए है. पर इन सब के मूल में जिस लोकरंग की घुट्टी पीढ़ी दर पीढ़ी पारम्परिक स्वरूप लिए आज भी झरती चली आ रही है उसी को बूँद–बूँद कर समेटा है मृदुला सिन्हा ने अपनी इस पुस्तक में. मौखिक परम्परा से काल के विभिन्न चरणों में सम्वर्धित होती आ रही लोक गीत–संगीत की धरोहर अब लिखित/ मुद्रित रूप में इस पुस्तक में समायी हुयी है जो निःसन्देह हर किसी के मन को आह्लादित करने का एक मुख्य कारक बन चुका है.
‘लोक’ में वह सब समाहित है जो हमारी दिनचर्या, परिवेश, वातावरण तथा खेत–खलिहान, तीज–त्यौहार, आनन्द–उत्सव, गीत–संगीत, नाटक–नौटंकी, नाच एवं भाव–भंगिमा, कला–कृति, हास–परिहास, मान–मनुव्वल, छेड़–छाड़, जीव–जन्तु, जीवन–मरण, भरण–पोषण, प्रकृति जैसे और भी ढेरों प्रत्यक्ष–परोक्ष सरोकारों को व्यक्त–अभिव्यक्त करते हैं. यह ‘लोक’ की ही अवधारणा का परिणाम है कि अतीत की समस्त धरोहर नैसर्गिक रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान रहते हुए वर्तमान के साहचर्य में भविष्य को सम्वर्धित कर रही हैं. यह पुस्तक उन्ही अनमोल लोक रत्नों के बिखरे पड़े शब्द–सम्पदा एवं अर्थ–व्यंजना को उसके प्रचलित मूल स्वरूप में सहेज कर हम सब के मध्य परोसती है. विश्व प्रसिद्ध हिन्दी साहित्य के यशस्वी कवि विद्यापति बिहार की मिट्टी के ही वटवृक्ष हैं तो यहीं की मिथिला भूमि के बेटे गोनू झा तथा भोजपुरी के सिरमौर्य लोकनाट्य के प्रणेता भिखारी ठाकुर के साथ–साथ गौरा पार्वती, गार्गी, मैत्रेयी, सीता, अहिल्या, आम्रपाली जैसी कई अन्य ढेरों प्राचीन भारत की पूजनीय विदुषियाँ बिहार के इंद्रधनुषीय लोकरंग की इसी पुस्तक में रची–बसी हैं.
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भोजपुरी, मगही, अंगिका, मैथिली, बज्जिका जैसी बिहार की विभिन्न भाषा–बोली में अतीत की समृद्ध परम्परा को समेटे जो लोकरंग यहाँ के लोक साहित्य, लोक गीत–संगीत एवं लोक नाट्य में भरे पड़े हैं उनके मूल रूपक का आस्वादन कराती मृदुला सिन्हा की यह पुस्तक लोरी, कहावतें, बुझौअल अर्थात् पहेली, गारी यानी गाली, के साथ ही बिरहा, फाग, चैता, कजरी के उन बोलों को जीवन्त कर बैठी है जिसे बालपन में हर किसी ने कभी न कभी सुना होगा. इन्हीं के साथ लोक अभिनय के रंग झिझिया, डोमकक्ष, सामा चकवा से रँगे ठेठ बिहारीपन को उजागर करते हुए यह पुस्तक घर–परिवार के रिश्ते–नाते, सम्बन्ध–सम्बन्धी, खान–पान और पहनावे की लोक परिपाटी को बड़े ही मनोरम रूप में संजोया है.
प्रकृति के सानिध्य में पेड़–पौधे, वृक्ष–लता, पशु–पक्षी, जीव–जन्तु, नदी–सरोवर के साथ ही ग्रामीण देवी–देवता का गुण–गान करती यह पुस्तक कुछ ऐसे तथ्यों को भी अपने भीतर समेटे हुए है जो सलीमा के पर्दे पर रूढ़ हो कर शेष भारत और विश्व के अनेकों देशों में आज भी मुखर है. बिहार के सम्मानित पुत्र संगीतकार चित्रगुप्त ने हिन्दी और भोजपुरी फ़िल्मों में अपनी ही धरती के गीतों को यहीं के लोक धुनों में अपनी रचनात्मकता के छौंके के संग जिस सुरीले रूप में प्रस्तुत किया है वह लोक गीत भी इसी पुस्तक में अपने मूल रूप में मुद्रित है. ‘चंदा मामा आरे आव पारे आव’ जैसा मधुर लोरी गान ऐसे ही ढेरों गीतों में से एक है. इसी प्रकार अपनी प्रथम फ़िल्म ‘वचन’ में संगीतकार रवि ने ‘चंदा मामा दूर के, पूए पकाए गुड के’ की प्यारी थपकी से बालपन को सहलाया है तो राजकपूर ने अपनी फ़िल्म में बिहार की प्राचलित पहेली को गीत–संगीत का हिस्सा बनाया है. संगीतकार शंकर–जयकिशन के संगीत में मुकेश और लता मंगेशकर का गाया ‘इचक दाना बिचक दाना’ पहेली गीत तो सभी की स्मृति में आज भी जीवित है. इस पुस्तक में ‘हरी थी मनभरी थी नौ लाख मोती जड़ी थी, राजा जी के बाग़ में दोशाला ओढ़े खड़ी थी’ पहेली को देख कर मन पुलक से भर उठता है.
इस पुस्तक की समीक्षा करते हुए जब मैं इसकी लेखिका प्रसिद्ध साहित्यकार तथा गोवा प्रदेश की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा से बतकही में रमा हुआ था तब उनके मुख से ही पुस्तक में वर्णित लोकरंग की छटा के प्रस्फुटन ने मुझे अपनी माटी की सोंधी महक से भीतर तक सराबोर कर दिया. इस प्रकार बिहार के लोकरंग को पुस्तक में निरुपित करने वाली वो प्रथम लेखिका तो बन ही चुकी हैं साथ ही पूर्व में दशकों पहले दिल्ली में रहते हुए ‘दूरदर्शन’ के राष्ट्रीय चैनल पर बिहार के लोकगीत को स्वयं गा कर प्रस्तुत करने वाली प्रथम गायिका होने का सौभाग्य भी इन्हीं के हिस्से आता है. पुस्तक के आवरण पर अंकित विश्व प्रसिद्ध बिहार की ‘मधुबनी पेंटिंग’ का चित्र भी इसी मिटटी के लोकरंग का एक ऐसा रंग चित्रित करती है जिस पर दृष्टिपात करते ही ह्रदय में लोकरंग का इंद्रधनुष स्वतः ही प्रगट हो उठता है. पर यह पुस्तक अंतिम नहीं है. मृदुला जी ने ही मुझे बताया कि इसके बाद लोक संस्कृति के भिन्न–भिन्न रंगो को समेटे शीघ्र ही दूसरी पुस्तक भी ‘राष्ट्रीय पुस्तक न्यास’ से आ रही है जो बिहार के लोकरंग में ढेरों अनूठे रंगों से सभी को परिचित करायेगी.
इस पुस्तक का वाचन करते हुए स्मृतियों के आकाश पर विचरण को तत्पर जब मन पंक्षी विस्मृत हो चुके उन सब दृश्य–परिदृश्य को सहसा नैनों के समक्ष उपस्थित पाता है जो अभी तक लुप्तप्राय हो गए थे तब अचरज के सानिध्य में ह्रदय इसी में पूरी तरह से रम जाता है. पुस्तकें यूँ तो ढेरों होती हैं जिन्हें हम अपने निजी संग्रह में स्थान देते हैं परन्तु ऐसी पुस्तक कम ही होती है जो आपके संग्रह में स्थान पाने के पूर्व स्वतः ही आपके मन में आसन जमा लेती है. यह पुस्तक ऐसी ही एक विशिष्ट निधि है जिसे सहेज कर आप संस्कार–संस्कृति–सरोकार की त्रिवेणी से परिवार सहित पवित्र हो जाते हैं.
*डॉ. राजीव श्रीवास्तव वरिष्ठ लेखक, कवि–गीतकार, सिने इतिहासवेत्ता, फ़िल्मकार एवं व्याख्याता हैं.