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केदारनाथ आपदा की बरसी 16 जून पर विशेष
– ज्ञानेन्द्र रावत*
आज केदारनाथ आपदा को सात बरस हो चुके हैं। सात बरस पहले 2013 की 16-17 जून की मध्य रात्रि को उत्तराखण्ड की केदारनाथ घाटी में कुदरत ने कहर बरपाया था। दरअसल यह हिमालयी सुनामी थी जिसने बारिश के पानी के रौद्र रूप में 17 जून की सुबह होते-होते समूची केदार घाटी को लील लिया था। इसे जल प्रलय कहें तो कुछ गलत नहीं होगा। यह शायद ही कभी भुलायी जा सके। हां उत्तराखण्ड की शान, रुद्रप्रयाग जिले की पहचान और समूची दुनिया में बाबा केदार के नाम से विख्यात आदि शंकराचार्य द्वारा तकरीब हजार साल पहले बनवाया केदारनाथ मंदिर जरूर बच गया था लेकिन वह उस जलजले से अछूता नहीं रह पाया था। सरकारी आंकड़ों की मानें तो इस सुनामी में साढ़े पांच हजार लोग असमय काल के मुंह में समा गए थे, वैसे गैर सरकारी आंकड़े के हिसाब से असलियत में तकरीब दस हजार से ज्यादा लोग इसमें मारे गए, 90,000 से भी अधिक को सेना ने मलबे से निकाला था, 2000 से ज्यादा मकान जमींदोज हो गए, 11,759 मकान छतिग्रस्त हुए थे, 11,091 मवेशी और 172 छोटे-बड़े पुल इस जलजले में बह गए थे, कई सौ किलोमीटर सड़क का नामोनिशान मिट गया था, 4200 से अधिक गांवों का संपर्क देश से टूट गया था और कुल मिलाकर 1308 हेक्टेयर से ज्यादा खेती योग्य जमीन को यह सैलाब लील गया था। करोड़ों के नुकसान के साथ हजारों-लाखों को बेघर होना पड़ा था सो अलग। विशेषज्ञ कहते हैं केदारनाथ की यह आपदा शुरूआती मानसून और ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का परिणाम थी। भले इस आपदा को सात साल हो गए हैं, जिंदगी पुरानी राह की पटरी पर लौट चुकी है लेकिन आज भी घाटी में उस तबाही के निशान साफ देखे जा सकते हैं। उन्हें देखकर उस खौफनाक मंजर की याद से ही दिल सहम जाता है, घबराने लग जाता है। कारण अभी तक तकरीब 500 नर कंकाल मिल चुके हैं और हर बारिश के बाद केदार घाटी में नर-कंकालों के मिलने से उस भीषण हादसे की याद ताजा हो जाती है।
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दरअसल हिमालयी ग्लेशियरों से हर साल करीब 8 बिलियन टन बर्फ पिघल रही है। इस सदी की शुरूआत से ही पिछली सदी की तुलना में बर्फ पिघलने की रफ्तार में न केवल तेजी आयी है। बल्कि वह दोगुनी से भी अधिक हो गई है। शोध और अध्ययन इसके प्रमाण हैं। इस सुनामी की असली वजह समुद्र तल से 3,960 मीटर की उंचाई पर केदार मंदिर से भी उपर दो किलोमीटर उंचाई पर स्थित चोराबाड़ी ताल कहें या झील के किनारों का भीषण बारिश के चलते फटना रहा है। मंदाकिनी रिवर बेसिन में 14 झीलें हैं। उनमें से चोराबाड़ी भी एक है। ग्लेशियरों से पिघली बर्फ पानी के रूप में इन्हीं झीलों में इकट्ठा होती है। गौरतलब है कि 15-16 जून 2013 को यहां मूसलाधार बारिश हुई जो 325 एम एम रिकार्ड की गई। चोराबाड़ी झील के बर्फ से बने किनारे भीषण बारिश से टूट गए। झील में भरा अथाह पानी भीषण बारिश के पानी के साथ मिलकर बाढ़ के रूप में बहने लगा। यह 15-20 फीट उंची दीवार के रूप में तब्दील होकर नीचे की ओर बढ़ा जो केदार धाम सहित गौरीकुंड, सोनप्रयाग, फाटा और पूरी केदार घाटी में तबाही का वायस बना। बारिश के चलते हुए भूस्खलन ने इसको और भयावह और विकराल बनाने में अहम् भूमिका निबाही। नतीजतन पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, जिलों में तबाही के तांडव ने समूची व्यवस्था भंग कर दी। यहां आपदा के जख्म भरने में अभी भी कई साल लग जायेंगे। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।
केदारनाथ आपदा के कारणों में शक्तिशाली आकाशीय विद्युत का भी कुछ विद्वान जिक्र करते हैं। दुनिया में सबसे भयंकर आकाशीय विद्युत ’प्यूरिटोरिको’ में 14 सितम्बर 2001 में दिखी थी। इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ ट्र्ाॅपिकल मीटरोलाॅजी इसकी पुष्टि करती है।भूविज्ञानी प्रभुनारायण के शोध के अनुसार गंगावतरण में इसका उल्लेख मिलता है। पाश्चात्य विद्वान राल्स टी एस ग्रिफिथ के अनुसार वाल्मीकि रामायण में भी इसका उल्लेख है। नासा तथा योरोपीय स्पेस एजेंसी के अनुसार सेटेलाइट द्वारा इसको पकड़ पाना आसान नहीं है। इससे साबित होता है कि हमारा विज्ञान कितना प्राचीन, अद्भुत और गौरवशाली है। केदारनाथ मंदिर में ड्र्म बजाने वाले की मानें तो उसने सबसे पहले चोराबारी ताल की ओर से आकाश में काले रंग का धुंआ उठता देखा था। उसके बाद पानी के उंचे-उंचे फब्बारे और पत्थरों के बड़े-बड़े टुकड़े सुनामी की तरह हवा में उड़ते हुए केदार मंदिर की ओर आये थे। केदारानाथ क्षेत्र के लोगों का भी कहना है कि उस पानी में बहुत ही दुर्गंध थी। उसके स्पर्श से बहुतेरे लोगों के कपड़े उनके शरीर से गलकर उतर गए थे। इस तथ्य का उदघाटन केदार क्षेत्र के जाने माने पत्रकार अनुसुइया प्रसाद मालासी और पुणे की संजीवनी नामक संस्था के महासचिव ने केदारनाथ आपदा के बाद एक पत्रकार वार्ता में किया था। यही नहीं स्वयं केदार मंदिर के पुजारी का कहना है कि उन्होंने उस समय एक भयंकर बिजली चमकते हुए देखी थी। उसकी आवाज इतनी भयंकर और तेज थी जिसे हरिद्वार स्थित मातृ सदन में प्रो़ जी़.. डी.़ अग्रवाल तक ने सुना था। भारतीय सीमा के अंतिम छोर पर स्थित सरस्वती धारा व्यास गुफा के नजदीक एक छोटी सी दुकान चलाने वाले भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि हमारे दादा-दादी भी ऐसी शक्तिशाली आकाशीय बिजली की बात बताया करते थे। यह जमीन को हजारों फीट गहरे तक फाड़ देती थी। हिमालयी दुर्गम इलाकों में इसे ’’जंदा बज्जर’’, ’’ओरो भैरव’’, ’’पेठा’’ और ’’सबल’’ आदि नाम से जानते हैं। इसका उल्लेख पुरानी संहिताओं में भी मिलता है।
केदार घाटी भूकंप और पारिस्थितिकी दृष्टि से काफी संवेदनशील और कमजोर है। वैज्ञानिक भी इसकी पुष्टि करते हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राकृतिक आपदाओं भले वह भूकंप हो, भूस्खलन हो, बादल फटने की घटना हो या फिर आकाशीय बिजली गिरने की घटनाएं हों या फिर बाढ़ हो, का उत्तराखण्ड से काफी पुराना सम्बंध है। इसे यदि यूं कहें कि आपदायें उत्तराखण्ड के लोगों की नियति बन चुकी हैं, तो गलत नहीं होगा। यह उनके जीवन का अभिन्न अंग हैं। वह चाहे 1803 का गढ़वाल में आया भूकंप हो, 1868 में बिरही की बाढ़ हो, 1880 का नैनीताल के पास आया भूस्खलन हो, 1893 में बाढ़ से बनी बिरही की झील हो, 1951 में सतपुली की बाढ़, 1979 में रुद्रप्रयाग के कौंथा में बादल फटने की घटना हो,1991 में उत्तरकाशी का भूकंप, 1998 में मालपा में भूस्खलन, 1999 में चमोली और रुद्रप्रयाग में आया भूकंप, 2010 में बागेश्वर में भूस्खलन, 2012 में उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग की बादल फटने की घटनाएं आदि इस बात की जीती-जागती मिसाल हैं कि आपदाओं का उत्तराखण्ड के लोगों से चोली-दामन का साथ रहा है। इन आपदाओं में हजारों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। देखा जाये तो भूस्खलन और बादल फटने की घटनायंे ंतो यहां आम हैं।
गौरतलब है कि आपदाओं को रोक पाना किसी के बस में नहीं है। लेकिन यदि आपदा प्रबंधन तंत्र मजबूत और प्रभावी हो, समय पर राहत और बचाव अभियान शुरू किया जाये तो निश्चित ही आपदा से होने वाली हानि को कम किया जा सकता है। यह भी सच है कि आपदा में मरने वालों को लौटाया तो नहीं जा सकता लेकिन पीड़ितों के जख्मों को समय पर राहत पहुंचाने से कम जरूर किया जा सकता है। दुख इस बात का है कि आपदा के समय की गईं घोषणाएं घोषणाएं ही रह जाती हैं और पीडितों का कोई पुरसाहाल नहीं होता और वे सालों राहत, मुआवजे और पुर्नवास की बाट जोहते रहते हैं। इस दिशा में राज्य संसाधन के अभाव का ही रोना रोते रहते हैं। यहां तो हाईकोर्ट भी राज्य सरकार को आदेश दे चुकी है कि वह पीड़ितों को समय रहते मुआवजा दे ताकि वे अपने जीवन को व्यवस्थित कर सकें। सरकारी सूत्रों के अनुसार सरकारी प्रयासों के बावजूद यहां आपदा की दृष्टि से संवेदनशील और अतिसंवेदनशील 400 से ज्यादा गांव ऐसे हैं जो आज भी विस्थापन और पुर्नवास की आस में पलक पांवड़े बिछाये बैठे हैं।
सबसे चिंता की बात तो यह है कि उसी चोराबाड़ी झील के पास फिर से पानी इकट्ठा हो रहा है जो 2013 में विनाश का कारण बनी थी। सेटेलाइट द्वारा खींची तस्बीरें और सिग्मा स्टार हेल्थकेयर सेंटर इसका साक्षी है कि 2013 जैसा खतरा फिर मंडरा रहा है। वहां पानी इकट्ठा होने वाली झीलों की तादाद बढ़ती जा रही है। ये ग्लेशियर से बनी झीलें हैं। ग्लेशियरों से पिघली बर्फ इसकी अहम वजह है। भूगर्भ विज्ञानियों का मानना है कि यदि वहां इसी तरह झीलें बनती रहीं तो यह खतरनाक संकेत है। और यदि इस क्षेत्र में लगातार मूसलाधार बारिश हुई तो परिणाम 2013 जैसे गंभीर और विध्वंसक हो सकते हैं। वह बात दीगर है कि वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक इन झीलों को केदार मंदिर से पांच किलोमीटर दूर बतायें, लेकिन आसन्न खतरे को नकारा नहीं जा सकता। इस दिशा में सरकार और प्रशासन की लापरवाही का दुष्परिणाम राज्य की जनता को उठाना पड़ेगा। इसमें दो राय नहीं।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद् है।
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