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अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस 29 जुलाई पर विशेष
आज बाघों के इतिहास और व्यवहार को जानने की जरूरत है
-ज्ञानेन्द्र रावत*
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यह विडम्बना ही है कि एक ओर जहां हमारे वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और सरकार देश में अक्सर राष्ट्रीय पशु बाघ के संरक्षण और दुनिया में उनकी बढ़ोतरी का दावा करते थकती नहीं हेै, साथ ही यह कि इस मामले में हमने दुनिया में रिकार्ड कायम किया है, वहीं मौजूदा हालात इसकी कतई गवाही नहीं दे रहे हैं। बाघों के गायब होने और उनकी आये दिन होती हत्याएं इसका जीवंत प्रमाण है। विडम्बना यह कि इस बारे में मंत्री महोदय और सरकार की चुप्पी समझ से परे है। उनका दावा है कि नौ साल पहले रूस के सेंट पीटसबर्ग में 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने के लिए दुनिया के 13 देशों ने एक लक्ष्य निर्धारित किया था। इसको भारत ने चार साल पहले 2018 में ही हासिल कर लिया था।
यदि बाघ संरक्षण प्राधिकरण (नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी) की मानें तो सन् 2012 से लेकर 2018 के बीच देश में 656 बाघों की मौत हुई। इनमें 31.5 फीसदी यानी 207 बाघों की मौत का कारण अवैध शिकार रहा, बिजली के करंट से बाघों की मौत भी एक प्रमुख कारण रहा है। प्राकृतिक रूप से हुई बाघों की मौत का आंकड़ा 295 के करीब है जबकि 36 बाघ सड़क या रेल दुर्घटना में मारे गए। उस स्थिति में यह तब हुआ जबकि बाघों के आवास, उनके जीवन के लिए हमारा देश, उसकी स्थितियां सबसे अनुकूल हैं । अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल टाइगर फोरम के अध्ययन में इसकी पुष्टि हुई है। यह अध्ययन दक्षिण एशिया के उपरी हिमालयी इलाके के तीनों देशों के बाघों के आवास माने जाने वाले क्षेत्रों का ट्रैकिंग तकनीक, तस्करी से बचाव, पर्यावरण बदलाव, तापमान जैसे कई बिन्दुओं पर बाघों के रहने लायक क्षेत्र को आधार बनाकर बारीकी से किया गया था। इसमें पाया गया कि इस क्षेत्र की उच्च तापमान विविधता और मध्यम शुष्क स्थिति बाघों के लिए बेहद अनुकूल है। बाघों के आवास की दृष्टि से यह स्थिति संतोषजनक कही जा सकती है। फिर क्या कारण है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को यह कहना पड़ा कि बाघों को बचाने के जो प्रयास हुए हैं, उनकी गति और तेज की जानी चाहिए।
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गौरतलब है कि एक ओर जहां बाघों की तादाद में बढ़ोत्तरी के दावे किए जा रहे हैं, इसके लिए वन्यजीव अभयारण्यों का बेहतर प्रबंधन माना जा रहा है क्योंकि 50 टाइगर रिजर्व में से 21 के प्रबंधन को सर्वश्र्रेष्ठ करार दिया गया है। वहीं देश में सौंदर्य प्रसाधनों और यौनवर्धक दवाइयों के लिए उसके अंगों की तस्करी की खातिर बाघों के शिकार में बढ़ोतरी होना कम चिंतनीय नहीं है। भले सरकार द्वारा बाघ संरक्षण हेतु लाख योजनाएं चलायी जायें, मगर देश में बाघों के शिकार की बढ़ती गति को झुठलाया नहीं जा सकता। इसके अलावा 2019 में बाघों के आपसी संघर्षों में 72 बाघों की मौत भी सवालों के घेरे में है। साल 2020 के शुरूआती महीनों में रणथंभौर बाघ अभयारण्य से 26 बाघों की गुमशुदगी क्या बयां करती है? जबकि इस बाबत आरोप तो नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी (एनटीसीए) की सदस्य, सांसद दीया कुमारी ने खुद ही लगाया था।
विडम्बना है कि हमारे यहां सालों से वन्यजीव-ंमानव संघर्ष के खतरनाक स्तर तक पहुंचने के मद्देनजर एक नेशनल एक्शन प्लान की तैयारी जारी है। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इस दिशा में नीति, क्षमता, विकास, लैंडस्कैप स्तर पर पायलट प्रोजेक्ट, संघर्ष रोकने की गरज से नवीन तकनीक के उपयोग और जन-वन सहभागिता जैसे मुद्दों पर मंथन जारी है। बाघ सहित इस दिशा में गुलदार, हाथी, भालू, जैसे वन्यजीव जहां खतरे का सबब बने हुए हैं, वहीं बंदर, लंगूर, जैसे जानवरों ने भी वनकर्मियों की परेशानियां बढ़ा रखी
हैं।
यह हालत कमोबेश पूरे देश की है। इन संघर्षों में मानव और वन्यजीव दोनों को ही भारी कीमत चुकानी पड़ती है। इस समस्या के निदान हेतु राष्ट्रीय स्तर पर समग्र कार्ययोजना पर विचार किये जाने की कई बार पहल की गई है। इस दिशा में कर्नाटक, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र् समेत कई राज्यों में प्रयास भी हुए हैं। पाया गया है कि 71 फीसदी से अधिक भूभाग वाले राज्य उत्तराखण्ड में मानव-ंवन्यजीव संघर्ष चिंताजनक स्थिति में पहुंच गया है। इसका अहम् कारण बाघों का दिनोंदिन आलसी होते जाना है। वह अब जंगल में हिरन, सांभर, चीतल, जंगली सुअर, नीलगाय जैसे मुश्किल से हाथ आने वाले जानवरों की अपेक्षा आबादी की ओर आसानी से मिलने वाले गाय, भैंस, बकरी आदि पालतू जानवरों को अपना शिकार बना रहे हैं। उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी के वनक्षेत्र में किये अध्ययन से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इससे न केवल उनका विचरण क्षेत्र सीमित हो रहा है बल्कि उनकी फुर्ती में भी कमी देखने को मिल रही है। जबकि उनकी फुर्ती, ताकत और प्रभाव अद्धितीय है। उनमें इलाके के स्वामित्व को लेकर संघर्ष आम बात है जिसका परिणाम अक्सर मौत होता है।
आम तौर पर बाघ एकांतप्रिय होता है लेकिन उसके सामाजिक जीवन को नकारा नहीं जा सकता। वह अपने परिवार के दायित्व को बखूबी निभाता है। बच्चों के पालन पोषण, उनको भोजन उपलब्ध कराना, शिकार करना, उसके तरीके सिखाना, शिकार के मांस को साझा करने और जंगल में रहने के तरीके के बारे में बताता है। यही नहीं शरारत करने पर उन्हें डांटने के साथ न मानने पर अपनी गर्जना से डराता भी है। वह एक दिन में कुल मिलाकर छह से सात किलोमीटर के इलाके में घूमता है लेकिन आजकल वह तीन-चार किलोमीटर के बाद ही थकहार कर बैठ जाता है।
बाघों के दिन-ब-दिन बदलते व्यवहार से वन्यजीव विशेषज्ञ खासे चिंतित हैं और बाघों को पुराने -ढर्रे पर लाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। एक अध्ययन के मुताबिक बाघ लगभग 15-16 सालतक चुस्त-दुरुस्त रहता है। इस दौरान उसे शिकार करने में कोई परेशानी नहीं होती। इसके बाद वह कमजोर होने लगता है। यही वजह है कि वह आसान शिकार की तलाश में मानव आबादी की ओर रुख करता है। बीते सालों में एक नयी बात देखने में आयी है कि वह शिकार के लिए मानव आबादी की ओर जाता तो है लेकिन वापस लौटना नहीं चाहता और वहीं आसपास अपना ठिकाना बना लेता है। क्योंकि वहां शिकार के लिए उसे जंगली जानवरों के मुकाबले गाय, भैंस, बकरी आदि पालतू जानवर आसानी से मिल जाते हैं। सामान्यतः बाघ एक बार में 15 किलो के लगभग मांस खा लेता है। उसकी प्रवृत्ति है कि वह एक बार शिकार करने के बाद हफ्ते बाद ही शिकार करता है। इसीलिए आसानी से मिलने वाले शिकार के लोभ में अब वह मानव आबादी से दूर नहीं जाता। नतीजतन किसान को खेती और मवेशी चराने जैसे कामों में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। मानव-वन्यजीव संघर्ष का एक यह भी अहम् कारण है।
यहां अपने जीवन के 37 साल बाघ अभयारण्यों में गुजारने वाले प्रख्यात वन संरक्षक दौलत सिंह शक्तावत की मानें तो – “जहां तक अभयारण्यों का सवाल है, तो इसके लिए विडालवंशी ही यहां के सबसे बड़े आकर्षण हैं। यहां मैं रणथंभौर बाघ अभयारण्यण की एक ऐसी बाघिन का जिक्र करना जरूरी समझता हूॅं। उसे टी-16 के नाम से जाना जाता था। वह दशकों तक लाखों बाघ प्रेमियों की आंख का तारा बनी रही थी। वह भारत के जंगलों की एकमात्र ऐसी बाघिन थी जिसकी दुनिया में सबसे ज्यादा तस्वीरें खींची गईं। उसकी दर्जनों डाक्यूमेंटरी बनाई गईं। उसे दुनिया में यह प्रसिंद्धि राजबाग झील के तीन मीटर लम्बे मगरमच्छ को मारने के बाद मिली थी। इसके बाद वह बहुत ही कुशल मगरमच्छ शिकारी बन गई थी। वह असाधारण रूप से बहुत दबंग बाघिन थी जो बिना किसी हिचकिचाहट के अपने शावकों के साथ पर्यटक वाहनों के पास से निकल जाती थी। अनेकों पुरुस्कार-सम्मान के साथ उसे लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड का दुर्लभ गौरव प्राप्त है। बाघों के इतिहास में वह हमेशा याद रखी जायेगी। क्योंकि उसने अपनी उपस्थिति से एक अमिटछाप छोड़ी है।”
असलियत यह है कि बाघ जंगल, संरक्षित क्षेत्र या फिर अभयारण्य, कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। बीते चार सालों में तकरीब 300 करोड़ से अधिक की वन्यजीव उत्पादों की बरामदगी सबूत है कि वन्यजीव तस्करों को किसी का भय नहीं है। संयुक्त राष्ट्र् की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया में बाघों की प्रजातियों के अस्तित्व को बनाए रखना मौजूदा हालात में उनके प्राकृतिक आवासों के लिए खतरा बना हुआ है। सरकार बीते दस सालों में तकरीब 530 बाघों की मौत का दावा करती है जब कि वन्य जीव विशेषज्ञ यह तादाद उससे भी कहीं अधिक बताते हैं । इनके आवास स्थल जंगलों में अतिक्रमण, प्रशासनिक कुप्रबंधन, चारागाह का सिमटते जाना, जंगलों में प्राकृतिक जलस्रोत तालाब, झीलों के खात्मे से इनका मानव आबादी की ओर आना घातक है, मानव जीवन के लिए भी भीषण समस्या है। तात्पर्य यह कि आपसी संघर्ष और दिनोंदिन बढ़ते अवैध शिकार के चलते इनकी मौतों का आंकड़ा भी हर साल बढ़ता जा रहा है। इन हालात में बाघों की तादाद में बढ़ोतरी का दावा बेमानी लगता है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद् हैं।
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