नई दिल्ली: मीरा (परिवर्तित नाम) कई दिनों से घर में अकेले रहकर आसपास की असामान्य घटनाओं से गहरे दुख में डूबी थी। उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। खाने की इच्छा खत्म हो चुकी थी, और रातें बिना नींद के कट रही थीं। उसका मन हमेशा बेचैन रहता, और कभी-कभी दुख इतना गहरा जाता कि वह लगातार रोती रहती। उसे लग रहा था कि उसको जैसे अवसाद यानि डिप्रेशन ने घेर लिया है। उसका मन भटका-सा रहता, और कोई समाधान नहीं दिखता था। मीरा को ऐसा लगता था जैसे उसके जीवन में अंधेरा-ही-अंधेरा छा गया है। अकेलापन उसके ऊपर हावी होता जा रहा था, मानो वह एक अंतहीन अंधेरी गुफा में खो गई हो। तभी उसकी पुरानी सहेली आशा, जो सामाजिक संस्था सम्पूर्णा में पेशेवर कार्यकर्ता के रूप में काम करती है, उसके घर पहुंची और मीरा की जिंदगी में उम्मीद की किरण बनकर उभरी।
आशा सादगी की मिसाल थीं। उनकी आँखों में करुणा और चेहरे पर स्नेह की मुस्कान थी। मीरा की हालत देखते ही उन्हें उसका दुख समझ आ गया। उन्होंने बड़े प्यार से मीरा का हाल-चाल पूछा। आशा के वात्सल्य भरे शब्दों ने मीरा के दिल को छू लिया, और वह अपने दर्द को रोक न सकी। उसने बताया, “कुछ दिनों से मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। रात को नींद नहीं आती, और दिन में भूख नहीं लगती।” आशा ने उसे गले लगाकर बातचीत का सिलसिला शुरू किया और कहा कि वह नियमित रूप से अवसादग्रस्त लोगों से संवाद करती हैं। उनकी आवाज में आत्मविश्वास और अनुभव की गहराई थी। मीरा ने उत्सुकता से पूछा, “आपको दिन-रात बहनों की समस्याओं से जूझने में क्या मिलता है?” आशा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “जब मैं किसी को परामर्श देती हूँ और उसके समाधान के लिए प्रयास करती हूँ, तो मुझे दो लाभ मिलते हैं। एक, मैं समस्या को गहराई से समझने की स्थिति विकसित करती हूँ, और दूसरा, सामने वाले की समस्या का समाधान होता है। यह मेरे लिए आत्मिक संतुष्टि का स्रोत है।”
आशा ने मीरा की आँखों में देखकर कहा, “प्लीज़ आप अकेले मत रहिए। अपने कमरे में हर वक्त बंद रहना अवसाद को जन्म देता है। कई बार हमें लगता है कि अपनी समस्या किसी को बताने से सामने वाला हमारे बारे में क्या सोचेगा? यही सोच हमें संवादविहीनता की ओर ले जाती है। हम एकाकी हो जाते हैं, जो सर्वथा अनुचित है। यह एक चक्रव्यूह है, जिसे हमें स्वयं तोड़ना है, वरना हम अवसाद में और गहरे डूबते चले जाते हैं। अपनी भावनाओं को किसी अपने के साथ अवश्य बाँटो। यदि कोई व्यक्ति आपको जज करे, तो उसका कोई संज्ञान न लो। हम इस पूरी कायनात में एक सूक्ष्म इकाई हैं। कुंठित मन अपने आप में अनेक कहानियाँ गढ़ लेता है और अपने को इस धरा पर अकेला महसूस करता है, जिससे वह जीवन से पूर्णतः निराश हो जाता है। इसके विपरीत, जब हम यह मान लें कि किसी अपने के साथ बात साझा करने में कोई बुराई नहीं, तो संकोच खत्म हो जाएगा। कभी-कभी हमारा अहम भी किसी को अपना समझने में आड़े आ जाता है, जो हमें और अकेला करता है।”
आशा ने आगे समझाया, “अपने को कमजोर या शक्तिशाली समझना ही व्यक्ति की भूल है। संतुलित व्यवहार ही व्यक्ति को सफल जीवन जीने की ओर अग्रसर करता है। हमें प्रतिदिन यह आँकने, जाँचने, और परखने की आवश्यकता है कि हमने दिनभर में कितनी बार असंतुलित व्यवहार किया। धीरे-धीरे संतुलित व्यवहार हमारी आदत बन जाएगा, और यही प्रक्रिया हमें कुंठा और बड़बोलेपन से बचाएगी। जीवन एक खुली किताब की तरह सत्य, स्वतंत्र, और रंगीला होना चाहिए। ऐसे कार्य क्यों करें, जो हर किसी से छिपाने पड़ें? गलतियाँ हो जाएँ, तो उन्हें स्वीकार करें। यदि हम ऐसी शख्सियत बन जाएँ, जिसमें कुछ छिपाने को ही नहीं, जैसा है सबके सामने है, तो ऐसी शख्सियत में अवसाद होने की संभावनाएँ बहुत कम हैं। ड्यूल पर्सनैलिटी की अवधारणा भी जीवन में कई बार अवसाद का कारण बन जाती है।”
आशा ने अवसाद को आज के युग की सबसे बड़ी बीमारी बताया। “कोरोना वायरस ने एक से दूसरे को संक्रमित कर लाखों परिवारों को काल का ग्रास बनाया, ठीक उसी प्रकार अवसाद भी संक्रामक है। जब परिवार का एक सदस्य अवसाद का शिकार हो जाता है, तो जागरूकता के अभाव में धीरे-धीरे अन्य सदस्य भी इसके शिकार हो जाते हैं। 21वीं शताब्दी में अवसाद के मरीज बढ़ते जा रहे हैं। चाहे न्यूयॉर्क की सड़कें हों, टोरंटो की गलियाँ, यूरोप की पगडंडियाँ, या किसी भी देश की राजधानी, हर जगह अवसादग्रस्त लोग बौखलाए-से नजर आते हैं। हर व्यक्ति को इस व्याधि के बारे में जानने और समझने की आवश्यकता है।” उन्होंने जोड़ा कि अपनी विचारों, भावनाओं, संवेदनाओं, और शारीरिक-मानसिक वेगों को व्यक्त न कर पाना भी अवसाद का बड़ा कारण है। “किसी मित्र, माता-पिता, गुरु, या ऐसे व्यक्ति से बात करें, जिसके साथ आप निर्बाध रूप से अपनी बात रख सकें। यदि इसके बाद भी स्थिति न सुधरे, तो घबराएँ नहीं, मनोचिकित्सक को अवश्य दिखाएँ। घर पर अकेले न रहें, क्योंकि अकेलापन घातक सिद्ध हो सकता है।”
आशा ने मीरा को बचपन की मासूमियत की याद दिलाई, जब मेहमानों के आने पर पड़ोसी के घर से कुर्सी, चीनी, या कोई वस्तु माँग लेना कितना सहज था। “आज हम अपनी बाहरी शक्ल को सुंदर बनाने के चक्कर में मेकअप की दुनिया में गुम हो गए हैं। दिखावा हम पर हावी हो गया है, और मासूमियत जैसे खो सी गई है। हम अपने माता-पिता, सगे-संबंधियों से भी परेशानियाँ छिपाते हैं, झूठ बोलते हैं, और अंत में अपने को समस्याओं से घिरा पाते हैं। अपनी बात को सशक्त तरीके से परिवार के लोगों से कहें। जिस घर में एक व्यक्ति अवसाद का शिकार होता है, वहाँ धीरे-धीरे इस प्रकार के विकार पूरे परिवार में फैल सकते हैं। परिवार में परस्पर प्रेम रहना चाहिए। यदा-कदा लड़ाई भी करें, लेकिन चुप होकर बैठ जाना अवसाद को जन्म देता है।”
आशा ने सुझाया, “हम निश्चय करें कि हमारे आसपास यदि कोई मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति है और अवसाद का शिकार हो सकता है, तो तुरंत उसे अपना मित्र बनाएँ। आपकी यह पहल उसे अपनी बात साझा करने की हिम्मत देगी। मित्र बनाएँ, प्रेम करें—यही जीवन का मंत्र है।” उन्होंने कहा कि चीन में आत्महत्या की दर विकसित देशों में सर्वाधिक है, क्योंकि वहाँ नास्तिक प्रवृत्ति के लोग अपनी असफलता का स्पष्ट कारण न ढूंढ पाने पर अवसादग्रस्त हो जाते हैं। इसके विपरीत, सनातन धर्म पूर्वजन्म के कर्मों और प्रारब्ध को इंगित करता है। “हम अपनी सफलता या असफलता को कर्मों का परिणाम मानकर सहज स्वीकार करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का संदेश हमें संतुष्ट और संतोषी जीवन जीना सिखाता है। छोटी-छोटी परेशानियों पर मुस्कुराना सीखें, दुख और अवसाद को अपने पास न फटकने दें।”
आशा ने अवसाद के लक्षणों पर विस्तार से बताया: चिड़चिड़ापन, कुंठाएँ, बहुत अधिक बोलना या कम बोलना, पलायन करना, सामान्य नींद में विघ्न, नींद न आना, भूख में कमी, लगातार वजन कम होना, थकान महसूस होना, अपच, मुँह सूखना, कब्ज, अतिसार, सिर, पेट, सीने, पैरों, जोड़ों में दर्द, भारीपन, पैरों में पसीना, साँस लेने में दिक्कत, चिंता। “इनका अर्थ यह नहीं कि ये लक्षण हों, तो हम अवसादग्रस्त हैं। लेकिन यदि हम पूर्व में सतर्क हो जाएँ और सकारात्मक विचारों के सहारे सामाजिक कार्यों में लग जाएँ, तो अवसाद पर शुरू में काबू पाया जा सकता है। जब तक आप सामान्य नींद और भोजन का आनंद ले रहे हैं, तब तक डरने की बात नहीं। लेकिन जैसे ही अवसाद का प्रभाव दैनिक जीवन पर पड़ने लगे, तुरंत मनोचिकित्सक से मिलना चाहिए।”
*डॉ शोभा विजेंदर दिल्ली स्थित एनजीओ, संपूर्णा, की संस्थापिका और अध्यक्षा हैं, जिसकी स्थापना 1993 में हुई थी।

