रविवारीय
– मनीश वर्मा ‘मनु’
साहब आगे आगे, पीछे पीछे साहब का कुत्ता। बिना किसी बंधन के। साहब का कुत्ता जो ठहरा। कुत्ते के पीछे साहब का वर्दीधारी एक लंबे से डंडे से कुत्ते को नियंत्रण में रखने की पुरजोर कोशिश करता हुआ।
साहब शाम की सैर पर थे शहर के सबसे सुरक्षित इलाके में जो सैर के लिए बहुत ही मुफीद जगह थी। परन्तु बेचारा वर्दीधारी! उसने तो इतनी दौड़ नौकरी पाने के लिए भी नहीं लगाई होगी जितनी उसे अब नौकरी निभाने को लगानी पड़ रही है।
कुत्ते का क्या कभी इधर तो कभी उधर। अपनी मर्ज़ी का मालिक। आखिरकार साहब का कुत्ता जो ठहरा! मर्ज़ी के मुताबिक इधर उधर घुमता हुआ आगे बढ़ रहा था। कभी कुछ जान पहचान वालों ने सामुहिक रूप से आवाज़ देनी शुरू की तो अटक गया। लगा सुर में सुर मिलाने। एक अजीब सा समा। आगे बढ़ने को तैयार ही नहीं। दोनों ही पक्ष अपनी अपनी हदों में रह एक दूसरे का अपने अंदाज़ में अभिवादन करते हुए। कोई भी पक्ष लक्ष्मण रेखा लांघने की जुर्रत नहीं कर रहा था। थोड़ा तो वर्ग का ख़्याल ज़रूर था वरना गले मिलते कहां देर लगती। हालांकि जानवरों में वर्ग की बात अमुमन नहीं देखी जाती है । पर ! साहब के साथ रहते हुए थोड़ा फ़र्क तो आ ही गया था।
बेचारा वर्दीधारी अरदली, जिसने शायद अंग्रेज़ी का ककहरा ढंग से नहीं पढ़ा होगा पर, साहब के कुत्ते को ” कम ऑन टाइगर” कह उसे लगभग पुचकारते हुए अपनी बातों को मनवाने की नाकाम कोशिश करता हुआ। पर, कुत्ता तो कुत्ता ही था। और वो भी साहब का! प्रोटोकॉल का उसे ख़ास ध्यान था। क्यूं मानता भला वो उस वर्दीधारी अरदली की बात?
अब साहब की बारी थी। साहब ने अपने अंदाज़ में उसे बुलाया , पुचकारा। अब पुनः साहब आगे आगे , पीछे पीछे साहब का कुत्ता और वर्दीधारी अरदली। रोज़ का किस्सा है जनाब!
सामयिक प्रस्तुति