रविवारीय: रिश्तों की बुनियाद
– मनीश वर्मा’मनु’*
रिश्तों के मनोविज्ञान को समझने के लिए हमें सर्वप्रथम रिश्तों की बुनियाद को समझना होगा।
किसी भी अपरिचित व्यक्ति से जब हमारे संबंध बनते हैं, हम एक दूसरे के करीब आते हैं। दोस्त बनकर, दोस्ती को आगे बढ़ाते हैं, तो कहीं न कहीं कुछ कॉमन बातें होती हैं, यथा – एक जैसी रुचि, समान कार्य स्थल, समान सोच आदि वो बातें हैं, जो रिश्तों की बुनियाद बनती हैं। रिश्तों को आगे बढ़ाने के लिए सबसे पहले हमें उस बुनियाद को समझना होगा। आखिर किसी भी व्यक्ति से आपका रिश्ता तो जुड़ा, पर क्या दो अपरिचित एक लंबे समय तक बिना किसी बुनियाद के रिश्तों में साथ रह सकते हैं। शायद नहीं। ऐसे रिश्ते तो लंबी यात्राओं के दौरान हमने अक्सर बनते हुए देखा है, पर क्या, वो रिश्ते लंबी दूरी तय कर पाते हैं? शायद नहीं।
सामाजिक ताने-बाने की डोर रिश्तों में निहित होती है। हर रिश्ते की अपनी एक अलग बुनियाद होती है और कमोबेश वही रिश्तों की गर्माहट और बेरूखी के लिए कसूरवार भी होती है।
पुराने समय में, सेपियंस काल में जब मनुष्य खानाबदोशी की जिंदगी जीता था। समूह में रहा करता था। उस वक्त उसे ना तो समाज की परिभाषा मालूम थी और ना ही परिवार की। बच्चे समूह में रहते और बड़े होते थे। ना ही बच्चों को मालूम था कि उसके पिता कौन है और ना ही पिता को मालुम था कि कौन बच्चा उसका है। रिश्तों की समझ ही कहां थी तब। सभी हंसी खुशी एक साथ रहा करते थे। वो तो जैसे -जैसे हमारे कदम सभ्यता की ओर बढ़े, हम पहले समाज और फिर परिवार और उसके बाद रिश्तों के बारे में जानने लगे। समूह से हटकर हमने पहले तो समाज का निर्माण किया फिर परिवार बनाया।
समय बीतता गया और वर्तमान में तो हम घोर व्यक्तिवादी हो गए हैं। सभ्यता की ओर जब हमने कदम बढ़ाया था तो हमने ही पहले जंगलों को साफ कर गांव बनाए थे और अब खुद ही अपने बनाए हुए कोकून में सिमटकर रह गए हैं। समाज और परिवार कहां चला जा रहा है। किसी को खबर नहीं।
लोगों के रिश्ते, आप देखेंगे बहुत छोटी-सी बात पर टूट जाया करते हैं। आप उसे क्या कहेंगे? ज्यादा सोचने और दिमाग खपाने की जरूरत नहीं है। इन बातों में कोई रॉकेट सायंस नहीं है जो हम नहीं समझ सकते।
इन रिश्तों की बुनियाद काफी कमजोर हुआ करती है। रिश्तों की बुनियाद अगर मजबूत करनी है तो रिश्तों को मैच्योर बनाएं। समय दें। रातों-रात रिश्ते नहीं पनपते। अगर इमारत मजबूत बनानी है, तो नींव मजबूत बनानी ही होगी। उसी तरह रिश्तों की बुनियाद भी मजबूत बनने के लिए समय लेती है।
आप रिश्तों में गर्माहट तभी महसूस कर पाएँगे, जब उसकी बुनियाद मजबूत हो।
यह अक्सर देखा गया है कि लोग रिश्ते तो काफी तेजी से जोड़ लिया करते हैं। उनमें गर्माहट भी लाने की कोशिश करते हैं, पर वे रिश्ते क्षणिक होते हैं। बड़ी जल्दी दम तोड़ जाया करते हैं।
आज के रिश्तों के संदर्भ में, यह कहने की हिम्मत की जा सकती है कि रिश्ते बनते तो बड़ी जल्दी से हैं, पर उनमें दरारें भी बड़ी जल्दी पड़ती हैं। क्या आपने कभी सोचा है क्यों?
जहां तक मेरी अपनी समझ है, आज के रिश्तों की बुनियाद प्लेस वैल्यू पर होती है, न कि फेस वैल्यू पर । आप बखूबी समझ सकते हैं कि जिन रिश्तों की बुनियाद ही स्वार्थ पर टिकी हुई हो, तो वे मजबूत एवं टिकाऊ कैसे हो सकती हैं।
अगर रिश्तों में स्थायित्व ढूंढना है, तो फिर रिश्तों में एक साथ गर्माहट, तल्खी, सब का सामंजस्य स्थापित करें, समय दें, जिस प्रकार बड़ी बड़ी इमारतों की बुनियाद को मजबूत बनाने के लिए एक तय समय-सीमा दी जाती है। आप रिश्तों की गहराई को अपने अनुसार बयां नहीं कर सकते हैं। रिश्ते कब गहराई ले लेते हैं यह समय पर ही पता चल पाता है। रिश्तों में जुनून होता है। कुछ हद तक जरूरी भी है, पर अजीब-सा जुनून नहीं।
रजनीश ने अपनी एक पुस्तक में लिखा है की रिश्ते अपने स्वभाव से अस्थिर या विचलनशील होते हैं । इसका मतलब यह हुआ कि ये किंचित सार्वभौमिक या ब्रह्मांडीय शक्तियों के प्रभाव में होती हैं । आधुनिक दौर में रिश्तों के क्षरण का एक सामान्य कारण छुपे छुपे प्रतिस्पर्धा में लिप्त होना है और उपभोक्ता युग में ऐसी स्पर्धा के प्रचुर अवसर आते हैं । यही प्रच्छन्न स्पर्धा आपसे शालीनता, सतुलन और व्यावहारिक सौंदर्य छीन लेती है और हम सभी एक दूसरे से निरंतर आहत होते रहते हैं । सह अस्तित्व के मानकों को अपनाने के लिए ऊंची नैतिकता की जरूरत होती है । स्वार्थ पोषित रिश्तों का ग्राफ अलग होता है ।