लद्दाख में उफनती नदी के तट पर लेखक
पहाड़ पर बाढ़ और सुखाड़
पारचित ग्लेशियर टूटा, लेह उजड़ा
बाढ़ की तबाही: परंपराओं को कुचलता लालची विकास
लेह: मैं 2 सितंबर 2025 से लेह-लद्दाख क्षेत्र में हूँ। यहां कारगिल और लेह के बीच आई बाढ़ ने पूरे इलाके को हिला कर रख दिया है। टूटी सड़कों, दरकते पहाड़ों, गलती फसलों, उजड़े घरों और बेघर हुए लोगों को देखकर मन बहुत दुखी हुआ। यह क्षेत्र कभी बाढ़ का नहीं रहा, यहां बाढ़ आना असामान्य है। लेकिन इस बार ग्लेशियर के टूटने और असामान्य, भयानक बारिश ने पूरे इलाके को संकट में डाल दिया, मानो प्रकृति ने चुप्पी तोड़ दी हो।
2, 3 और 4 सितंबर को इस बाढ़ का सबसे भयानक प्रभाव दिखा। सभी सड़कें बंद हो गईं, संपर्क कट गया और लोग अपने-अपने गांवों में फंसे रह गए। यह बाढ़ प्रकृति के क्रोध का संकेत है। इंसान ने स्वार्थ के लिए न पहाड़ों को छोड़ा, न मैदानों को, न ही समुद्र को। हर जगह बड़े-बड़े प्रोजेक्ट लगाकर लोगों को उजाड़ा जा रहा है। इसका नतीजा है कि जलवायु परिवर्तन तेज़ हो रहा है और जलवायु शरणार्थियों की संख्या बढ़ रही है, जो अब हिमालय की गोद में भी घुसपैठ कर रही है।
कारगिल-लेह क्षेत्र में सदियों से जिंग और जूरा जैसी परंपरागत जल संरचनाएं थीं। यही संरचनाएं इस क्षेत्र को पानीदार बनाए रखती थीं। जूरा का अर्थ है नाला और जिंग पहाड़ों में बने प्राकृतिक तालाब या झील की तरह होता है। पुराने समय में यहां कभी बाढ़ नहीं आती थी। यदि कभी अतिवृष्टि होती, तो जूरा और जिंग अतिरिक्त पानी को संग्रहित कर खेतों तक पहुंचाने का काम करते थे। यही कारण था कि इस कठिन इलाके में भी खेती संभव थी, और जीवन की धड़कन बनी रहती थी।
लेकिन आज विकास की अंधाधुंध परियोजनाओं ने इन परंपरागत संरचनाओं को अप्रासंगिक बना दिया है। परिणामस्वरूप, इस बार की बाढ़ में बड़े-बड़े पत्थर गांवों में आ गए और खेत-खलिहान बर्बाद हो गए। चुशल जैसे इलाके, जहां पानी बहुत कम मिलता था, अब बाढ़ और मलबे से भर गए हैं, जो विकास की कीमत का क्रूर प्रमाण है।
कारगिल और लेह के बीच फैली इस बाढ़ ने खेती को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। खासकर पारचित ग्लेशियर (जिसे स्थानीय लोग पानीखाद ग्लेशियर कहते हैं) के टूटने से बड़ा संकट आया है। जलवायु परिवर्तन के कारण हुई इस बेमौसम बारिश ने लोगों को तीन दिनों तक गांवों में कैद कर दिया, जहां मौत का साया मंडराने लगा।
असल समस्या यह है कि तथाकथित विकास के नाम पर हो रहे नए प्रयोग इस क्षेत्र को और असुरक्षित बना रहे हैं। पिछले 50 वर्षों में भारत की बड़ी परियोजनाओं ने लगभग 6 करोड़ लोगों को विस्थापित किया है। अब लेह क्षेत्र में गचु थांग मैक्रो प्रोजेक्ट के तहत 48,000 एकड़ भूमि पर सोलर एनर्जी प्रोजेक्ट लगाया जा रहा है। इस परियोजना में करीब 40,000 बाहरी लोग बसाए जाएंगे, जबकि लेह-कारगिल की कुल आबादी ही लगभग चार लाख है। जहां पहले कोई नहीं रहता था, वहां इतनी बड़ी संख्या में लोगों को बसाने का अर्थ है नई असंतुलन और नए संकट, जो स्थानीय संस्कृति को निगल जाएगा।
विकास के नाम पर हो रहा यह विस्थापन, बिगाड़ और विनाश ही इस बात का सबूत है कि आज पहाड़ों पर भी बाढ़ आने लगी है।
हिमालय बहुत ही संवेदनशील क्षेत्र है। इस क्षेत्र में बढ़ती हुई लालची विकास की परियोजनाओं ने इसकी संक्रियाओं को तेज कर दिया है, जिसके कारण भूकंप, बादलों का फटना, अति वृष्टि, बेमौसम बारिश होना यहां अब स्पष्ट दिखने लगा है। इसका दुष्प्रभाव पहाड़ों में रहने वाले सभी वर्गों पर पड़ रहा हैं। जिन क्षेत्रों में पहले खेती होती थी, अब वहां खेती खत्म हो गई है और इन जमीनों पर नए होटल बन रहे हैं। इन होटल की बढ़ती संख्या से अब जो पानी पहले खेती में लगता था, उससे दुगनी तिगना खपत इन होटल मे हो रही है। इस बढ़ती खपत के कारण पानी का संकट बढ़ रहा है। पानी के जो झरने थे, वो बड़ी परियोजनाओं के कारण सूखते जा रहे हैं। इसलिए एक तरफ पहाड़ में बाढ़ और दूसरी तरफ सुखाड़ है।
पहाड़ अब बाढ़ और सुखाड़ दोनों से जूझ रहा है। इन हालातों से हिमालय को बचाना बहुत ही जरूरी है। यहां के विकास की नीति और परियोजनाओं को सावधानी से देखने की जरूरत है। यदि इसी तरह इन परियोजनाओं के मालिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बनाया गया तो जिस तरह से इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने उत्तराखंड में जगह – जगह टनल, बांध, बिजली घर बनाकर पहाड़ों को खोखला कर दिया है, अब वही मार कारगिल और लेह आंखों से देख सकते हैं।
इसलिए अब हिमालय की हरियाली और इससे बहने वाली नदियों की अविरलता – निर्मलता को बचाने के लिए एक बड़े हिमालय चेतना अभियान की जरूरत है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षक





हिमालय क्षेत्र को बचाने एक सामग्रिक हिमालय नीति का आवश्यक है तथा Mountain Economy and Ecology पर सर्वस्तरीय जनचेतना का आवश्यक है , समतल क्षेत्र के निवासी को भी हिमालय को समझना, संवेदनशील होना, सक्रिय होना तथा अपना अस्तित्व के लिए हिमालय के साथ स्वयं को जोड़ना होगा….”हिमालय ” केवल भारत के लिए नहीं , हिमालय निर्भर तमाम देशों एवं दुनिया के अस्तित्व के लिए आवश्यक है…. राष्ट्रीय संयोजक , नदी घाटी मोर्चा