– सुरेश भाई*
सन् 1973 में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई थी। उत्तराखंड के सर्वोदय कार्यकर्ता इससे पहले शराबबंदी के लिए सफलतापूर्वक आंदोलन चला रहे थे। साथ ही उन्होंने सामाजिक समानता को लेकर अछूत वर्ग को चारधाम के मंदिरों में प्रवेश करवाया था। स्कूल एवं सार्वजनिक जगहों पर अनुसूचित जाति के साथ जो भेदभाव किया जाता था, उसको कम करके समाज में उन्हें आदर का भाव दिलवाया।महात्मा गांधी के पद चिन्हों पर चलने वाले इन कार्यकर्ताओं ने देखा कि उत्तराखंड में जगह -जगह वनों के व्यावसायिक दोहन के लिए ठेके दिए जा रहे थे तो उससे चिंतित होकर चिपको आंदोलन की शुरुआत दुनिया के सामने एक सीख के रूप में उभर कर आई। इसलिए अप्रैल से दिसंबर 1973 के बीच अनेकों लोगों ने अपना जीवन दांव पर रखकर जंगल काटने वाले ठेकेदारों का खुलकर विरोध किया।उस समय ऋषिकेश के एक ठेकेदार जगमोहन भल्ला को 680 हेक्टैयर से अधिक जंगल की नीलामी लगभग पांच लाख रुपए में कर दी गई थी और इलाहाबाद में स्थित स्पोर्ट्स गुड्स कंपनी साइमंड्स को कटान का ठेका दिया गया था। चमोली से लगभग 60 किलोमीटर दूर फाटा -रामपुर के जंगलों में साइमंड कंपनी अंगू के पेड़ों को काटने के लिए पहुंच गयी थी। अंगू का पेड़ बहुत मजबूत होता है जिससे खेल सामग्री के अलावा अन्य मजबूत फर्नीचर बनाई जा सकती है। गांव के लोग इसकी लकड़ी का इस्तेमाल कृषि औजार के रूप में करते हैं।सरकार ने वन विभाग के द्वारा उत्तराखंड और बाहर के ठेकेदारों को बड़े पैमाने पर राजस्व के लिए वनों की नीलामी प्रारंभ कर दी थी।बड़े पैमाने पर चीड़, देवदार, अंगू, खरसू, मौरु आदि के जंगल कटने लगे। उस समय भागीरथी, अलकनंदा, पिंडर ,कोसी, मंदाकिनी, बालगंगा ,भिलंगना नदियों के उद्गम तक पहुंचने के लिए आज की तरह मोटर सड़के नहीं थी। इसलिए जंगल के ठेकेदारों ने 1970- 80 के बीच में वनों की अंधाधुंध कटाई करके नदियों के बहाव के साथ लकड़ियों के स्लीपर हरिद्वार तक पहुंचाये । हिमालय की इस अमूल्य वन संपदा का इस्तेमाल रेलवे लाइन बिछाने के लिए भी किया जाता रहा है। लेखक की उम्र उस समय 13-14 साल की थी जब गांव के हर जंगल में काटने वाले मजदूरों का तांता लगा रहता था। वे बड़ी मात्रा में अपने खाने-पीने की सामग्री के साथ जंगल काटने वाले औजार आरी- कुल्हाड़ी पीठ पर ले जाते थे। स्थानीय स्तर पर जहां संभव हो सका वहां घोड़े- खचरों से भी सामान जंगल में पहुंचता था । यहां कटान करने वाले मजदूर अधिकांश हिमाचल ,जम्मू कश्मीर, नेपाल और तराई क्षेत्र से आते थे। लेकिन इसका दुष्परिणाम 70 के दशक में सामने आया जब वनों की बुरी तरह हजामत कर देने के बाद जगह जगह बाढ़ और भूस्खलन पैदा होने लगा।अनेकों तरह के मजदूर जंगल में आने से लोग बहुत बेचैन थे। जंगल से महिलाओं को घास, लकड़ी लाने और हक हकूक प्राप्त करने में असुविधा होने लगी ।उस समय समाज सुधार के नाम पर लोगों के बीच सिर्फ सर्वोदय कार्यकर्ता ही गांव -गांव पहुंचते थे। इसी दौर में लोगों ने जब गांव से शराबबंदी का काम भी किया तो फिर वही कार्यकर्ता वनों के व्यावसायिक दोहन के खिलाफ गांव के बीच में चौपाल करने लगे।गांव की यही ताकत चिपको के लिए संजीवनी का काम कर गई।
सर्व विदित है कि उत्तराखंड में महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन, सुंदरलाल बहुगुणा, सोहनलाल भूभिक्षु, मान सिंह रावत, भवानी भाई, राधा बहन, चंडी प्रसाद भट्ट, घनश्याम सैलानी, सुरेंद्र दत्त भट्ट, विमला बहुगुणा और उनके साथ दर्जनों कार्यकर्ता समाज के बीच में जिस तपस्या के बल पर आगे बढ़े, वही उनके लिए चिपको के रूप में जन कारवां बनता गया। यह सीख भी तब मिली जब1970 में अलकनंदा में भयंकर बाढ़ आई जिससे अपार जन-धन की हानि हुई। और, लोगों की खेती- बाड़ी तबाह हुई, उसके पीछे भी वनों का विनाश एक बड़े कारण के रूप में देखा गया था।यह सच्चाई भी है कि जहां-जहां वनों का कटान होता है वहां से बड़े पैमाने पर भू-क्षरण की घटनाएं सामने आती है। संपूर्ण हिमालय क्षेत्र एक उदाहरण है कि लगातार यहां बाढ़ और भूस्खलन के पीछे वनों का दोहन, विकास के नाम पर व पहाड़ों की बेतरतीब कटाई और भूकंप के कारण हिल रहे पहाड़ों का दरकना भी अब कारण बन गया है। चिपको आंदोलन के प्रसिद्ध नेता चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा कहते रहे कि जंगल यहां के सैनिक है। इसलिए इन पर कुल्हाड़ी चलाने से पहले पर्यावरण को पहुंचने वाले व्यापक नुकसान के विषय पर ग़ौर करना चाहिए।
इसलिए चमोली जिले के रामपुर और फाटा में साइमंड कंपनी द्वारा काटे जा रहे पेड़ों का जबरदस्त विरोध प्रारंभ हुआ था।यही कंपनी जोशीमठ के आगे रैणी गांव के जंगल में भी पहुंच गई थी। जहां पर गांव की महिला अध्यक्ष गौरा देवी ने 26 मार्च 1974 को गांव की लगभग 3 दर्जन महिलाओं के साथ मिलकर वन काटने वाले ठेकेदार को अपने जंगल से बाहर खदेड़ दिया था। लेकिन गौरा देवी को प्रेरणा चंडी प्रसाद भट्ट और उनकी टीम से ही मिली थी। रैणी की इस सफल घटना के बाद तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने वनस्पतिशास्त्री वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में 9 सदस्यीय समिति का गठन किया था जिसमें सरकारी अधिकारियों के अलावा विधायक गोविंद सिंह नेगी, चंडी प्रसाद भट्ट और जोशीमठ के ब्लॉक प्रमुख गोविंद सिंह रावत को शामिल किया था। इसके बावजूद भी वनों के व्यावसायिक कटान के विरोध में आंदोलन चलता रहा। जब 2 वर्ष बाद इस समिति की रिपोर्ट आई तो इसके पश्चात अलकनंदा के ऊपरी क्षेत्रों में लगभग 1200 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में व्यावसायिक कटाई पर 10 साल के लिए प्रतिबंध लग गया था। लेकिन सरकार का यह निर्णय पूरे उत्तराखंड के लिए पर्याप्त नहीं था। क्योंकि 1972- 74 के बीच में उत्तरकाशी में वयाली के जंगल को बचाने के लिए कम्युनिस्ट नेता कमला राम के नेतृत्व मे जबरदस्त आंदोलन चलाया गया था ।इसमें टिहरी- उत्तरकाशी के अनेकों कम्युनिस्ट नेता और सर्वोदय कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग उन्हें मिला, जहां उन्होंने जंगल से ठेकेदारों को खदेड़ कर बाहर कर दिया था। इसी दौरान कुमाऊं क्षेत्र में नैनीताल, रामनगर आदि स्थानों पर वन कटान का व्यापक विरोध प्रारंभ हुआ। 1977 में तवाघाट में भारी भूस्खलन के बाद 6 अक्टूबर को नैनीताल में वनों की नीलामी रोकी गई थी। इसी वर्ष 28 नवंबर को छात्रों और पुलिस के बीच वनों की नीलामी के दौरान हुई झड़प के कारण आंदोलनकारियों ने नैनीताल क्लब को आग के हवाले कर दिया था।
सुंदरलाल बहुगुणा चिपको आंदोलन के केंद्र बिंदु में थे।आंदोलन के लिए उनकी दिशा और अनुभव के कारण कार्यकर्ता हमेशा उनके नेतृत्व के साथ आगे बढ़ते रहे। इसी दौरान सेवाग्राम से नई तालीम की शिक्षा लेकर पहुंचे समाज सेवक बिहारी लाल ने बालगंगा घाटी में चिपको आंदोलन को सविनय अवज्ञा आंदोलन के रूप में चलाया। उन्होंने यहां जंगल के ठेकेदारों को गांव -समाज की तरफ से पूर्ण असहयोग देने की पहल की। उसका परिणाम यह रहा कि किसी भी गांव में जंगल के ठेकेदारों को पानी से लेकर आटा पिसाई के लिए पंनचक्की तक का इस्तेमाल नहीं करने दिया गया। जिससे ठेकेदारों को उल्टे पांव वापस लौटना पड़ा। 1977- 78 में ही हेंवल घाटी में पेड़ों की कटाई के खिलाफ सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में आंदोलन हुआ। टिहरी गढ़वाल के नरेंद्र नगर में पेड़ों की नीलामी रोककर कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार भी किया गया। 9 जनवरी 1979 में बडियार गढ़ में विरोध के दौरान बहुगुणा को जेल में डालने से चिपको आंदोलन की खबर पूरे देश-दुनिया में पहुंच गई थी। दूसरी ओर चमोली जिले में चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में लगातार एक के बाद एक वन क्षेत्र से ठेकेदारों को वापस जाना पड़ रहा था। लगभग एक दशक तक चले आंदोलन के बाद सन् 1981 में बहुगुणा ने हजार मीटर से ऊपर वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध के लिए अनिश्चितकालीन अनशन किया था। उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 सदस्यीय समिति बनाकर 15 वर्षों तक के लिए वनों की व्यवसायिक कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया था। जो पूरे मध्य हिमालय के लिए एक राहत की तरह महसूस किया गया था।
इसका प्रभाव केवल 1993 तक रहा ।इसके बाद केंद्र की सरकार ने 1000 मीटर से ऊपर वनों की कटाई पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया । जिसके बाद उत्तराखंड में 1994 में रक्षा सूत्र आंदोलन प्रारंभ हुआ। जिसने टिहरी और उत्तरकाशी में वनों के व्यापक कटान को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस आंदोलन से जुड़े सभी कार्यकर्ता चिपको से सीख कर आगे बढ़े हैं। इस आंदोलन ने करोना काल में भी वनों के कटान को रुकवाया है। लेकिन वनों के व्यावसायिक दोहन के तौर तरीके अब हर स्थान पर बने सड़क मार्ग के कारण बहुत आसान हो गये है। केवल उत्तरकाशी, चमोली और टिहरी का उदाहरण है कि हर रोज विशेष सीजन में लगभग 200 से अधिक ट्रक लकड़ी के रायवाला पहुंचाये जाते है ।इसी तरह कुमाऊं क्षेत्र से वनों का व्यावसायिक दोहन जारी है। जिसकी तमाम लकड़ी हल्द्वानी डिपो में जमा होती है । चिपको की सीख को आगे बढ़ाते हुए लोगों का विरोध जारी हैं। चिपको आंदोलन के कारण दुनिया में वन संरक्षण के प्रति एक नई चेतना पैदा हुई है। सरकार ने 1988 में वन अधिनियम बनाया इसके साथ ही वन्यजीव और जैव विविधता को लेकर अनेकों कानून बनाए गए हैं। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय बनाने की तरफ सरकार के कदम आगे बढ़े हैं ।भूलना न होगा की चिपको आंदोलन के प्रखर कार्यकर्ता के रूप में कुंवर प्रसून, विजय जडधारी ,धूम सिंह नेगी, प्रताप शिखर, छात्र जीवन में डॉ शेखर पाठक, डॉ शमशेर सिंह बिष्ट, पूर्व सांसद प्रदीप टम्टा ,पीसी तिवारी, कुंवर सिंह सजवान, साहब सिंह सजवान , सुदेशा बहन ,कलावती देवी चमोली से शिशुपाल सिंह कुंवर, मुरारी लाल आदि दर्जनों कार्यकर्ताओं और हजारों महिलाओं के अद्भुत साहस और कार्य को कभी नहीं भुलाया जा सकता है क्योंकि इन लोगों ने अपनी जवानी का अधिकांश समय इस कार्य में व्यतीत किया है।
*लेखक सामाजिक कार्यकर्ता है।