दिल्ली की बाढ़ कोई प्राकृतिक बाढ़ नहीं है, फिर भी दिल्ली यमुना के पानी में डूब गई। यमुना का पानी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया था। यमुना का जो रौद्र रूप लोगों ने देखा, दरअसल वह यमुना का असली स्वरूप था। यमुना उस स्थान पर बही, जिस स्थान पर पहले बहती थी। बहुत सालों के बाद यमुना उस स्थान पर पहुंची, जहाँ होनी चाहिए थी।
फिर भी इस बाढ़ से बचने के लिए हथनी कुंड के पानी को हरियाणा, उत्तर प्रदेश की नहरों को खोल देते तो इतनी तबाही न होती। यह बाढ़ का पानी पूरे हरियाणा को पोषित करते हुए यमुना जी में मिल सकता था। यह पानी कम बारिश वाले इलाकों के लिए उपयोगी बन सकता था। बाढ़ के पानी से कोटला लेक, नज़फगढ़ लेक आदि में भूजल भरण किया जा सकता था। बाढ़ से विस्थापित – प्रभावित लोगों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ा। सरकार के सिंचाई विभागो को आगे कर्तव्यपूर्ण तरीके से काम करना होगा। यदि दिल्ली को बाढ़ से बचना है, तो यमुना की ज़मीन को यमुना के लिए ही छोड़ देना चाहिए।
नदियों और नालों पर तीन बड़े संकट हैं -अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण। इस संकटों से अभी दिल्ली बहुत प्रभावित है। यदि हम इस वक्त नहीं जागे तो जलवायु परिवर्तन का संकट हम सभी को लील जायेगा। फिर उसका समाधान निकालना बहुत मुश्किल होगा। यमुना के रेड जोन, ब्लू जोन और ग्रीन जोन में किसी भी तरह का कोई अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। यदि अतिक्रमण होता है तो आगे का प्रलय इससे भी भयंकर होगा। इसलिए आगे के प्रलय से बचने के लिए यमुना की ज़मीन पर किसी भी तरह के क़ब्ज़े नहीं होने चाहिए। यमुना की खादर की ज़मीन पर जो क़ब्ज़े हुए हैं, उन्हें हटाना चाहिए। क़ब्ज़ों को हटाकर, यमुना को अविरल प्रवाह देना होगा। यदि शुद्ध सदानीरा होकर, यमुना वहीं बहती रहेगी तो देश समाज, आत्मा, आध्यात्म और प्रकृति का बहुत फायदा होगा।
स्वस्थ समाज और जीव -जगत का निर्माण तभी होगा, जब हमारी नदियाँ अविरल बहेगी। चंबल में मथारा, नाहरपुरा, भूडखेडा, कोरीपुरा आदि गांवों में लोगों ने जल के रक्षण-संरक्षण का काम अपने स्वराज्य से किया और पानीदार बन गए। यहां के लोग अब चोरी-डकैती छोड़कर खेती, पशुपालन करके आनंद ही आनंद में रहते है। यह तभी संभव हुआ जब उन्हें जल स्वराज्य का अहसास हुआ। अब पूरी दुनिया के लोग यह पानी का काम देखने के लिए आ रहे हैं। जो लोग सरकार की तरफ देखते रहे, वे बेपानी हैं।
हमारी पिंड से लेकर ब्रह्मण्ड़ की कल्पना जल स्वराज्य में छुपी हुई है, जिससे हम नए समाज की कल्पना बहुत अच्छे ढंग से कर पायेंगे। इसलिए जल को स्वराज्य देना पड़ेगा। ये प्रकृति की अपनी आजादी नदी धीरे बहे, हवा धीरे बहे, वो जीवन धीरे बहे। लेकिन वो अपनी आजादी से स्वराज्य में बहता हो, वह ही जीवन का स्वराज्य होता है।
हम सबको स्वराज चाहिए। लोकमान्य तिलक जैसे महान व्यक्ति ने कहा कि स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और बापू ने हमें स्वराज्य दिला दिया, तब देश के लोगों ने खड़े होकर स्वराज्य प्राप्त कर लिया। लेकिन अभी प्रकृति, नदी और जल को स्वराज्य नहीं मिला। स्वराज्य प्रकृति के प्राकृतिक स्वरूप से ही बना है।
हमारे जीवन को बनाने वाले जल को भी स्वराज्य चाहिए। स्वराज्य का उदय, सूरज के स्वराज्य से होता है। यह अपने आप सब कुछ करते हुए नियमित चलता है। स्वराज कर्तव्य पालन से आरंभ होता है। जब कोई कर्तव्य को ठीक से पूरा कर लेता है, तो अधिकार उसका सुनिश्चित हो जाता है। हमें उम्मीद थी कि हमारा स्वराज्य हमारी प्रकृति के स्वराज्य को सहज रूप से दे देगा, लेकिन जिस तरह का विकास का क्रम चला, उस क्रम ने प्रकृति का दर्शन ,प्रकृति का प्रेम, सम्मान और प्रकृति के प्रति मानवीय आस्था, पर्यावरण की रक्षा – सुरक्षा भाव हमसे अलग होते और बिखरते चले गए। उसका परिणाम है कि, ना तो पानी को स्वराज है, ना धरती को और ना नदी को स्वराज्य है।
वैज्ञानिक मानते हैं कि,सृष्टि के सारे जीव और वृक्ष संपदा सब पानी से हैं। हमने नदियों के स्वराज्य को छीन लिया और उनके अधिकारों को अपना अधिकार मान बैठे हैं। आज हम इतने अंधे हो गए हैं कि, हमें प्रकृति नहीं दिख रही। हमारे आज के विकास ने बरसाती नालों को मैला ढोनें वाला नाला बना दिया है। पुराने जमाने में नाले का मतलब होता था, जिसमे बरसात का साफ-सुथरा पानी प्रवाहित होता हो। हम खुद नालों में स्नान करके आनंद लेते थे। अब तो उनके पास खड़ा होना भी मुश्किल है।
दिल्ली में जो बाढ़ आई, उस बाढ़ के स्वरूप को समझने और समाधान खोजते वक्त यह बात अब बहुत गहरी बैठ गई है कि सुखाड़-बाढ़ की मुक्ति की युक्ति जल स्वराज्य ही है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात और मैग्सेसे तथा स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित जल संरक्षक।