अरावली पर स्थित जयगढ़ फोर्ट, जयपुर
– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
अरावली माई रोती रही, सरकारें हंसती रहीं
“समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे॥”
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि पर्वतमालाएं हमारी मां के स्तन हैं। जैसे मां अपने स्तनों से शिशु का पालन-पोषण करती है, वैसे ही पर्वत हमें जल, जीवन और संतुलन देते हैं। इसलिए पर्वतों की रक्षा करना केवल पर्यावरण का नहीं, बल्कि मातृत्व के सम्मान का प्रश्न है। अरावली में खनन करना मां के स्तन काटने जैसा अपराध है।
अरावली के अंगों को बड़ी-बड़ी मशीनों से काटकर, खोदकर और बेचने वालों से डरने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें समझाना होगा, रोकना होगा और आवश्यकता पड़े तो उनसे टकराना भी होगा। चोर चाहे कितने भी शक्तिशाली दिखें, उनके पैर कमजोर ही होते हैं। ये मां के चोर हैं, जो मां को टुकड़ों में काटकर बेच रहे हैं। ऐसे लोगों से बचने के बजाय समाज को संगठित होकर उन्हें रोकना होगा।
मां हमें केवल भोजन नहीं देती, वह जीवन जीने की विद्या भी देती है। अरावली ने सदियों से यह विद्या दी है। जो लोग लालच में आकर मां से कमाई करने लगे हैं, उन्हें छोड़कर बाकी सभी को अरावली को बचाने के लिए एकजुट होना होगा।
अरावली में खनन केवल पहाड़ों को नहीं काटता, यह हमारी बोली, माटी, बादलों की चाल और धरती का रंग तक बदल देता है। अरावली राजस्थान के लिए तिरछा कवच बनकर खड़ी है। यह मरुस्थल की भाषा और प्रकृति को अपने भीतर समाहित करती है, वर्षा जल को अपने अंदर सहेजकर मीठे जल में बदल देती है और मरुस्थल तथा अधो-मरुस्थल को जीवन का सहारा देती है।
दूर बंगाल की खाड़ी से आने वाले अधो-खाली बादलों को अरावली अपने ऊपर निचोड़ने के लिए विवश कर देती है। पास के पड़ोसी अरब सागर से उठने वाले बादल तो प्रायः पूरी तरह अरावली पर ही बरस जाते हैं। इनमें से अधिकांश गुरु शिखर, यानी माउंट आबू, पर खाली हो जाते हैं। जो शेष बचते हैं, वे अजमेर, जयपुर और अलवर के ऊपर बरसते हैं। बंगाल की खाड़ी से आने वाले बादल भी इन क्षेत्रों में पूरी तरह खाली होकर हवाओं में विलीन हो जाते हैं।
खनन से अरावली के मेघ अपनी आर्द्रता खो देते हैं। दक्षिण-पश्चिम से तिरछी खड़ी अरावली सिरोही क्षेत्र में बादलों को अपने समानांतर चलने के लिए बाध्य करती है। इसी कारण गुरु शिखर में शेष अरावली क्षेत्र की तुलना में तीन गुना अधिक वर्षा होती है। दोनों दिशाओं से आने वाले बादलों की गति और दशा अरावली के भूगोल से निरंतर प्रभावित होती रहती है।
वायुमंडल में अरावली की भौगोलिक संरचनाएं वर्षा चक्र का संतुलन बनाए रखती हैं। इन पर्वतों पर उगी घास, जंगल और घाटियों की खेती की हरियाली वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों को लगातार सोखती रहती है।
यहां के आदिवासी बादलों और हवाओं के प्रवाह को देखकर वर्षा और तापमान का अनुमान लगा लेते हैं। हवा और बारिश की भाषा उन्हें सूरज और चंदा मामा भी सिखाते हैं। अरावली के इस मूल आदिज्ञान की बोली और समझ को यहां के आदिवासी आज भी पहचानते हैं, जानते हैं और अपनी रोज़मर्रा की बातचीत में इस्तेमाल करते हैं। मां से कमाई करने वाले लोग इस ज्ञान से पूरी तरह कटे हुए हैं।
खनन अरावली वासियों की माटी, बोली, भाषा, बादलों के वेग, क्रम और जल की मात्रा—सब कुछ नष्ट कर देगा। यह केवल बदलाव नहीं, पूर्ण विनाश है। पहाड़ नष्ट होंगे और उनके साथ जीवन विद्या भी—आरोग्य, रक्षण, आहार, विहार और आचार-विचार—सब समाप्त हो जाएंगे। खनन प्रकृति और संस्कृति को मिटाकर अंततः मानवता को भी नष्ट कर देता है।
1991 में, लगभग 35 वर्ष पहले, जब सरिस्का के जंगलों सहित अलवर, गुड़गांव, फरीदाबाद, नूह और मेवात क्षेत्रों में खनन बंद हुआ और संपूर्ण अरावली में इस पर रोक लगी, तब अरावली फिर से हरी-भरी होने लगी थी। सरकार ने हरित अरावली परियोजना भी शुरू की थी और लोगों के मन में आशा की किरण जगी थी।
लेकिन पिछले 10–15 वर्षों में खनन ने फिर तेज़ी से जोर पकड़ लिया। वैध और अवैध—दोनों तरह के खनन होने लगे। जो लोग अरावली के आंसू पोंछ सकते थे, वे सो गए। अरावली माई रोती रही और सरकारें हंसती रहीं। मां से कमाई करने वाले सरकारों तक भी हिस्सा पहुंचाते रहे। ऐसे में अरावली की पीड़ा सुनने वालों के कानों तक आवाज पहुंचने का रास्ता ही बंद हो गया और अपूरणीय हानि होती चली गई।
अरावली माई की यह पर्वत श्रृंखला हमारी मां के स्तन हैं—और मां के स्तनों की रक्षा करना हमारा पहला कर्तव्य है।
*जलपुरुष के नाम से विख्यात जल संरक्षण एवं पर्यावरण संरक्षण कार्यकर्ता। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।
