रविवारीय: बिल्ली रानी की विदेश यात्रा
– मनीश वर्मा’मनु’
अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर एक बिल्ली दिखती है। बेख़ौफ़, अपनी मस्ती में बस इधर से उधर घूमती हुई। बिल्ली का दिखना और वो भी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे पर, जहां बिना इजाजत के परिंदा भी पर नहीं मार सकता है! यात्रियों के बीच बिल्ली का होना एक कौतूहल तो पैदा करता ही है, बहुत से लोगों का मानना है कि बिल्ली का रास्ता काट जाना अपशकुन होता है! पर हमें एक बात आज तक समझ में नहीं आई आखिर यह बात बिल्लियों के साथ ही क्यूँ?
पर, क्या करे बेचारा इंसान? जिस खतरे को देख नहीं पा रहा है तो उससे डरना स्वाभाविक है। इंसानी फितरत है यह। कितना भी तार्किक हो अपने दिल को समझा ले। आखिरकार बाल बच्चे और परिवार का सवाल है!
हाँ तो बिल्ली रानी हवाई अड्डे से धीरे से सबकी आंखें बचाकर घुस गई एक अंतरराष्ट्रीय उड़ान भरने जा रहे विमान में। छोटी सी बिल्ली कहां किसी के नज़र में आने वाली। विमान के अंदर जाकर एक कोने में अपनी जगह तलाश बैठ गई सुकून के साथ। कहां उसे पासपोर्ट और वीज़ा के चक्करों में पड़ना था? ना ही सुरक्षा जांच और बोर्डिंग के झमेलों से गुजरना था।
कभी- कभी ना इंसान भी कितना लाचार हो जाता है। अपने मर्जी के मुताबिक कहीं आ – जा भी नहीं सकता है। कहने को बस ‘वासुदेव कुटुंबकम्’! हमसे तो अच्छी ये बिल्ली ही है। जानवर होते हुए भी इंसानों के बीच रहती है। अब इंतहा देखिए, पासपोर्ट और वीज़ा की औपचारिकताओं के बिना, मैडम बोर्डिंग स्टाफ को किनारे करते हुए अंतरराष्ट्रीय उड़ान भरने को तैयार एयरक्राफ्ट में जाकर बैठ गई।
अब अंतरराष्ट्रीय उड़ान और वो भी लंबा, पर शुक्र है कि रास्ते में उसे खाने पीने की दिक्कतें नहीं आई। ये अंतरराष्ट्रीय उड़ान वाली फ्लाइट हैं ना ये अपने यात्रियों को खिलाती पिलाती खूब हैं। नन्ही सी जान कितना खाती बेचारी। पुरी रात का सफर तय करके सभी के साथ बिल्ली रानी भी पहुंच गई पर्थ। अब बाकियों की तरह इसे वहां फिर से कहां औपचारिकताओं में पड़ना था? विदेशों में तो तमाम तरह की औपचारिकताएं होती हैं। यहां जाओ, वहां जाओ। यहां बैग खुलवाओ आदि आदि। नन्ही सी छोटी सी जान अपने आप को फिर से इन तमाम झमेलों से बचाते हुए बाहर आ गई।
एयरपोर्ट से बाहर आते ही उसके मुँह से निकली वाह। खुबसूरत सा शांत शहर। ऊंची ऊंची खूबसूरत इमारतें। शांत समुद्री किनारा। लोगों के कोलाहल से दूर। मैडम तो इंडिया से आईं थीं, जहां चलते हुए भी लोगों के शरीर टकराते थे और यहां यह आलम है कि लगता है शहर में लोग ही नहीं हैं। शहर छुट्टी पर है। शहर और शहर की शांत आबोहवा हमारी बिल्ली रानी को भा गया। खूब घूमना फिरना शुरू कर दिया। उसकी कल्पनाओं से परे एक बेहद खूबसूरत शहर। उसे ऐसा लगा कि वो स्वर्ग लोक में विचरण कर रही है। हां उसे यहां खाने की समस्या आ गई। इंडिया तो था नहीं कि जहां सड़कों पर बहुत कुछ मिल जाता था। यहां बड़ी मशक्कत करनी पड़ी खाना खाने के लिए। खैर, दो चार दिन तो बस जलसे ही जलसे थे। जहां मन किया उधर घूम लिया। सुरक्षित जगह। जानवरों के जान की भी कीमत थी। पर, घर तो आखिर घर ही होता है। यहां उसके साथ कोई बात करने वाला नहीं। कोई खेलने वाला नहीं। सभी अपने आप में ही लिप्त। ऐसा लगता किसी को भी किसी से भी मिलने की फुरसत ही नहीं। भाषाई दीवार भी आड़े आ रही थी। धीरे धीरे अब बिल्ली रानी बोर हो चली।अब उसे बड़ी शिद्दत से अपने घर की याद सताने लगी। यहां सब कुछ अच्छा था, पर फिर से घर तो आखिर घर ही होता है तमाम मुश्किलों के बावजूद।
अब बिल्ली रानी ने तय कर लिया। अब उसे यहां नहीं रहना है। अब उसे अपने घर जाना है। उसने तय कर लिया था। उसने फिर से रूख कर लिया अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे की ओर। बिल्ली रानी ने अपना वो फ्लाइट भी पहचान लिया जिससे वो यहां तक आइ थी। फिर से वो तमाम तरह की औपचारिकताएं और बोर्डिंग स्टाफ की नजरों से अपने आप को बचाते हुए जाकर एक कोने में दुबक गई। पुनः रात भर का सफर तय कर बिल्ली रानी पर्थ की खूबसूरत यादों के साथ पहुंच गई इंडिया।
भाई अपना घर तो अपना ही होता है। दूसरों के घर में लाख सुविधाएं हों, पर कोई असर नहीं पड़ने वाला!
“अपना घर तो अपना ही होता है”