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– लता
शाहजहांपुर: कोरोना महामारी की इस भयानक स्थिति में ये कहानी है २८ वर्षीय बिट्टू की। शाहजहांपुर के एक प्रतिष्ठित परिवार से हैं और कुछ अलग पहचान बनाने की उसकी ख्वाहिश है। उनके पिता सतबीर भाटी अनाज का व्यापार करते है और छोटे किसानों को अपनी जमीन खेती करने के लिए देते है और फिर उनसे अनाज लेकर मंडी में बेच देते है। इस काम से अलग बिट्टू के पिताजी रियल एस्टेट का बिजनेस भी करते है। बिट्टू की माता शशि भाटी का निधन बिट्टू की ४ वर्षीय आयु में ही हो गया था । ज़ाहिर है बिट्टू अपनी दोनों बड़ी बहनों का दुलारा भाई है। उनकी दोनों बहनों का विवाह हो चुका है और दोनों ही अपने परिवार सहित नोएडा में रहती हैं।
अपनी माता के निधन के बाद बिट्टू अपनी बुआ और फूफा जी के साथ रहने लगा जो उन्हें बहुत प्यार करते हैं। बिट्टू के फूफा बीर सिंह वर्मा और उनकी बुआ निर्मला वर्मा संदखास में रहते है और उनकी मिठाई की दुकान है। उनका एक खुशहाल परिवार है जिसमें उनके ४ बेटे, बहुएं और दो विवाह योग्य बेटियां हैं। बिट्टू भी उनके बेटे जैसा ही है। बिट्टू को दोनों परिवारों में काफी प्यार मिला है। सभी उसके उज्जवल भविष्य की कामना करते है।
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एक आर्थिक संपन्न घर का बिट्टू मगर कुछ और ही सोचता था जबकि उसके पिताजी व फूफा दोनों ही चाहते थे कि वह अपने गांव में रहकर अपने परिवार का बिजनेस संभाले और अच्छे घराने में विवाह कर ले।
बिट्टू में स्वाभिमान कूट कूट के भरा है। वह खुद के दम पर ही कामयाबी हासिल करना चाहता है। वह चाहता है लोग उसे उसके कर्मों की वजह से जाने ना कि किसी अन्य वजह से।
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जेंतियर इंटर पब्लिक स्कूल से बारहवीं करने की बाद वह अपनी बड़ी बहन के घर नोएडा आ गया और जीएनआईएटी कॉलेज में बी एस सी + आई टी कोर्स में दाखिला ले लिया और फिर कॉलेज ख़तम होने से बाद एक कंपनी में इंटर्नशिप के लिए गुड़गांव रहने आ गया।
घरवालों से दूर अकेले रहना शुरुआत में तो उसे बहुत बुरा लगा पर वह तो अपनी मंज़िल की तलाश में व्यस्त था। परिवार की याद आने पर वह उनसे सिर्फ फोन पर बात किया करता था। एक मुक्कमल जहाँ की आस लिए वह दो साल तक वह अपने परिवार वालों से मिलने नहीं गया और ना ही अपनी बहनों से मिलने नॉएडा ही आया। सभी उससे नाराज़ रहने लगे पर उसे तो कुछ बन कर उन्हें दिखाना था।
उसे एक छोटे शहर और बड़े शहर के बीच का फर्क भी महसूस हो रहा था।शाहजहांपुर में उसके लिए सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। दिल्ली और गुडगाँव जैसे बड़े और महंगे शहरों में बसेरा ज़माना आसान नहीं था। बिट्टू संघर्षरत था।
दरअसल बिट्टू अपने घरवालों से मिलने से पहले अपनी आर्थिक व्यवस्था अच्छी करना चाहता था ताकि जब वह घर जाए तो उनके परिवार को उन्हें देखकर गर्व महसूस हो। कुछ समय बाद अपनी मेहनत से बिट्टू ने साइबर सिटी गुड़गांव में खुद का रहन सहन अच्छा कर लिया और खुशी से रहने लगा। और लगभग ढाई साल बाद वह अपने परिवार से मिलने नए साल पर गया तो उनके लिए खूब सारे तोहफे भी ले गया जिससे परिवार की खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
लेकिन अचानक कोरोना के इस काल में बिट्टू के उपर परेशानियों का पहाड़ टूट पड़ा है। लॉकडाउन होने के बाद पैसा बाज़ार कंपनी जहां वह मैनुअल टेस्टिंग का काम करता था , उस कंपनी ने उसका इस्तीफा मांग लिया। लॉकडाउन होने से व्यापार में मंदी होने के कारण कंपनी काम करने वाले लोगो की तनख्वाह देने में असमर्थ हो गई थे। सिर्फ बिट्टू के ही डिपार्टमेंट से लगभग १५० लोगो को नौकरी छोड़ने के लिए कह दिया था। उनमें से कुछ लोग नौकरी छोड़ने के बाद अपने गांव वापस चले गए तो कुछ लोग नौकरी छोड़ कर अपना खर्च चलाने के लिए १०-१२ हजार की नौकरियों पर लग गए।
यह एक इम्तेहान के घड़ी थी। बिट्टू के सारे सपने जैसे एक ही झटके में बिखर गए। कुछ समय बाद ही आर्थिक तंगी होने लगी । जो पैसे बचाये थे वे गुडगाँव जैसे शहर में बसर करने में सक्षम नहीं थे। मकान का भाड़ा और खाने का खर्च।स्वाभिमानी बिट्टू घरवालों से पैसे भी नहीं मांग सकता था। ढाई महीने लॉक डाउन में कहीं आ जा भी नहीं सकता था। ऐसे में तो बड़े बड़ों के हौसले पस्त हो गए थे। कोरोना की वजह से हुई आर्थिक मंदी से उबरने का भी उसे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। क्या पता कब स्थिति सुधरे और फिर कब उसे एक अच्छी नौकरी मिले। ऐसे में बिट्टू को एक निर्णय लेना था। कइयों के मुकाबले वह किस्मतवाला था कि उसके पास वापिस अपने घर शाहजहांपुर जाने का एक विकल्प खुला था। भविष्य की अनिश्चितता देख आखिर उसने एक सही फैसला कर ही लिया कि वह घर वापिस चला जायेगा। फिर अपना गुड़गांव वाला किराए का मकान खाली कर वह अपने गांव शाहजहांपुर चला आया।
उसके पिता और परिवार के अन्य बड़ों को भी बिट्टू की ज़रुरत थी। उसके आने के बाद सब अब मिल कर इस विकट परिस्थिति का सामना कर रहे है और इस उम्मीद में है कि इस त्रासदी के बाद वह फिर से एक नई शुरुआत कर पाएंगे। जहां तक बिट्टू का सवाल है, अब घर छोड़ वापिस बाहर जाने का उसका कोई इरादा नहीं है। कोरोना और लॉक डाउन से उसने एक सीख ली है कि स्वावलम्बी बनने के लिए घर छोड़ना ज़रूरी नहीं है। अब तो वह शाहजहांपुर में ही रहकर अपनी एक अलग पहचान बनाने का प्रयास करेगा। उसने कहा कि वह हार नहीं मानेगा चाहे जितनी भी विपरीत परिस्थिति हो। अब वह अपना एक अलग से बिजनेस शुरू करेगा परन्तु अपने पिता और फूफा के पैसों से नहीं बल्कि सरकार से लोन लेकर वह अपना खुद का सॉफ्टवेयर डेवलपर और मैनुअल टेस्टिंग का काम शुरू करेगा। उसे आज पैसे का महत्त्व पता चल गया है और नियति के विधान को भी वह समझने लगा है। उसे पता चल गया है कि आज घर की सम्पन्नता के पीछे उसके पिता और फूफा ने कितनी अनथक मेहनत और त्याग की होगी। उसे अब पूरी उम्मीद है कि उसने आज तक जितना भी सीखा है वह वयर्थ नहीं जाने देगा और अपने परिवार जनों के बीच अपने गांव में रहकर ही वह अपनी नई जिंदगी की शुरुआत करेगा। उसके इस फैसले से उसका परिवार भी बहुत खुश है और उसे इस काम के लिए प्रोत्साहित कर रहा है। और करें भी क्यों नहीं ? आखिर उनका बिट्टू वापिस तो लौट आया है। परन्तु सारे बिट्टू जैसे सक्षम तो नहीं हो सकते। आज की विकट परिस्थिति से जूझने के लिए हमें एकजुट हो ऐसे लोगों का साथ देना चाहिए। समय की यही एक पुकार है।
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