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-डॉ राजेंद्र सिंह*
औद्योगिक क्रांति के बाद दुनिया में समाजवाद और पूंजीवाद दो रास्ते बने। इन दोनों का लक्ष्य एक ही था, बेहतर दुनिया बनाना, लेकिन रास्ते अलग-अलग थे। पूंजीवाद लाभ के लिए प्रतियोगिता के पथ पर चलना सिखाता है और समाजवाद, समता और सादगी से सभी को जीने का समान हक देकर प्रतियोगिता मुक्त पथ पर चलाने वाला था। बाद में पूंजीवाद जैसी प्रवृत्ति इसमें भी आ गई। इसलिए अब पूरी दुनिया में जो शिक्षा , इंजीनियरिंग और तकनीक है, वह प्रतियोगिता से दूसरों को पछाड़ कर अपने आप को आगे निकालना ही सिखाती है। इस सीख से अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण बढता है। साथ-साथ भौतिक ढांचा और भौतिक साधन बहुत तेजी से बढ़ते है। इनके बढ़ने के कारण दुनिया में आर्थिक ढांचा बहुत बडा बन गया और सुरक्षा का ढांचा टूट गया है।
आज लोभ, लालच और लाभ के लिए जीवन है, शुभ को भूल गए है। शुभ की चाह मिट गई हैं। जब भी आर्थिक ढांचा में मानवीय लालच का तेजी से बढ़ाने का काम होता है, तभी सुरक्षा का ढांचा चरमराकर गिर जाता है। कोरोना इसी की देन है। अर्थिक ढांचा बहुत भारी होने के कारण प्रकृति और मानवता की सुरक्षा का ढांचा कमजोर हो रहा है। इसकी कमजोरी का कारण समझे तो बहुत साफ है कि जब वैश्विक आर्थिक ढांचा बनाने वाले बिल गेट्स और बहुत सारे लोग बड़े -बड़े ढांचे बनाकर भी थोडी बहुत ही राहत समाज को पहुंचाने की कोशिश करते है, तो उससे भी आर्थिक ही ढांचा मजबूत होता है। इसलिए इस समय पूरी दुनिया में अलग-अलग नामों से पूंजीवाद ही पनप रहा है।
चार्ल्स डार्विन ने इस औद्योगिक क्रांति के पूर्व चरण में ही कहा था कि इस ब्राह्मांड में वे ही जीव जीवित रहेगें जो प्रकृति के साथ अनुकूलन करके जीना सीख लेगें। पूंजीवाद प्राकृतिक अनुकूलन नही है। इसमें प्रकृति और मानवता दोनों के ही शोषण की अपार संभावनायें बनी रहती है। यह व्यवस्था किसी का भी पोषण नही करती है। जब व्यवसाय पोषक बनने के स्थान पर शोषक बन जाती है, तब कोरोना जैसे प्रलय की घंटी बजती है।
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इस पूंजीवाद की सबसे बडी देन, दुनिया में एक भारी भरकम भौतिक-आर्थिक ढांचा का निर्माण जिसमे चंद लोगों को बहुत बड़ा लाभ मिला और वो ही दुनिया के प्रभावी नेता भी बने। कोरोना ने इस प्रकार के नेतृत्व को नंगा तो किया है, लेकिन दुनिया की जनता के समझाने और दूसरों को समझने में अभी उतनी सरलता और सहजता का दर्शन नही है। हमें एक बात तो समझ में आती है कि सबका शुभ चाहने वाला समाजवाद, पूंजीवाद की भेंट चढ़ गया है। इसलिए धीरे-धीरे दुनिया से समाजवाद मिटता जा रहा है। पूंजीवाद भी इस कोरोना के प्रलय से अब टिकेगा नहीं।
कोरोना के बाद विश्व के टिकाने का रास्ता प्रकृति अनुकूलन ही है। प्रकृति के विपरीत समाजवाद में भी पूंजी की परिभाषा अच्छी नही थी, इसलिए पूंजीवाद और समाजवाद दोनों में ही प्राकृतिक आस्था नही है और प्राकृतिक संरक्षण सिमटा है। जब भी विश्व में प्रकृति के विपरीत ही सब काम होने लगें तो प्रकृति का बढ़ा हुआ क्रोध महाविस्फोट बनता है और उससे प्राकृतिक आपदायें निर्मित होती है। कोरोना को आपदा भी मान सकते है। महामारी का प्रलय भी कहा जा सकता है। भारत इस महामारी से अपने परंपरागत ज्ञान आयुर्वेद द्वारा बहुत से कोरोना प्रभावितों को स्वस्थ बना सका है। बहुत लोगों के प्राण बचे है। इस आद्युनिक आर्थिक तंत्र में आयुर्वेद जैसी आरोग्य रक्षण पद्धति को सफल बनने का मौका ही नही दिया गया। उसमें आर्थिक लाभ के लिए केवल चिकित्सा तंत्र को ही बढ़ावा है।
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति द्वारा कोरोना से बहुत लोगों को स्वास्थ्य लाभ हुआ है। परंतु इस पद्धति में एैलोपेथिक जैसी गणना आधारित मशीनी चिकित्सा व्यवस्था नही है और ना ही इसका आर्थिक व्यापार का ढांचा दूसरी पैथी जैसा विकसित है। इसलिए स्वास्थ्य व्यापारिक कम्पनियां आयुर्वेद को बढावा नही देती। वे एैलोपैथी को ही बढ़ावा देती है क्योंकि वह आर्थिक पैकेज के साथ विकसित है।
अतः कोरोना अब यह सिखा रहा है कि आर्थिक लाभ के लिए व्यापार हेतु बना ढांचा, अब कारगर एवं स्थाई उपचार नही हैं। इसके स्थान पर शुभ के लिए बना भारतीय ग्राम स्वाराज्य का ढांचा ही सफल होगा। उसी को अपनाकर दुनिया को कोरोना से सुरक्षा प्राप्त हो सकेगी। अतः अब दुनिया की केन्द्रीय आर्थिक तंत्र के विपरीत महात्मा गांधी द्वारा बताया हुआ रास्ता ही कारगर साबित है।सुरक्षा हेतु शुभ विचार करना होगा। शुभ साझे रास्ते पर चलाता है। लाभ निजी रास्ते पर चलाता है। हमे निजी करण को रोकना और सामुदायीकरण करना होगा। वह सहकारिता से ही संभव हैं। कोविड-19 से आगे का रास्ता शुभ के लिए ही होना चाहिए।
*लेखक पूर्व आयुर्वेदाचार्य हैं तथा जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।[the_ad_placement id=”sidebar-feed”]