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रमेश चंद शर्मा

मैं खण्ड, पाखण्ड, अखण्ड, मालूम नहीं।
मैं नासमझ, नाचीज, नालायक, लायक मालूम नहीं।
मैं साथी, संगी, ढोंगी, लालची, सफेद हाथी मालूम नहीं।
मैं पागल, मस्ताना, मनमौजी, खोजी मालूम नहीं।
मैं चलता, फिरता, रुकता, झुकता मालूम नहीं।
मैं जानता, पहचानता, समझता, मानता मालूम नहीं।
मैं कर्ता, धर्ता, भर्ता, रोता, सोता, जागता मालूम नहीं।
मैं अच्छा, बुरा, भला, निठल्ला मालूम नहीं।
मैं अपना, पराया, औरों का, छोरों का मालूम नहीं।
मैं दूर, मजबूर, मजदूर, कायर, शूर मालूम नहीं।
मैं धरती, आकाश, हवा, पानी, आग मालूम नहीं।
मैं मानव, पशु, पक्षी, वनस्पति, प्रकृति मालूम नहीं।
मैं आप, ताप, पाप, बेटा, बाप मालूम नहीं।
मैं मैं, तू, वो, सो, जो, को मालूम नहीं।
मैं तन, मन, जन, धन, घन, वन मालूम नहीं।
मैं प्रारम्भ, प्रारब्ध, मध्य, अंत, किनारा मालूम नहीं।
मैं मेरा, तेरा, तुम्हारा, हमारा, किसका मालूम नहीं।
मैं सच्चा, झूठा, लूटेरा, मारक, तारक मालूम नहीं।
मैं आशी, प्यासी, तरासी, उदासी, दासी मालूम नहीं।
मैं वासु, देव, मानव, दानव, कुछ और मालूम नहीं।
मैं खुशबू, बदबू, गंध, सुगंध मालूम नहीं।
मैं अंकित, लिखा, छपा, मिटा, फैला मालूम नहीं।
मैं कविता, शब्द, वाक्य, लेख, ब्रह्म मालूम नहीं।
मैं सुधा, जहर, ठोस, तरल, गैस, कुछ मालूम नहीं।
मैं खरा, खोटा, बडा, छोटा, पतला, मोटा मालूम नहीं।
मैं मैं हां मालूम नहीं, मालूम नहीं, मालूम नहीं।
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