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हमारी नयी शिक्षा नीति
बीएड प्रवेश परीक्षाओं का आयोजन नितांत औचित्यहीन
– डा रक्षपाल सिंह चौहान*
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वर्तमान में संचालित शिक्षानीति-1986/1992 के तहत बी .एड. पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु प्रदेश स्तर पर प्रत्येक वर्ष प्रवेश परीक्षाएं आयोजित की जाती हैं और आश्चर्यजनक यह भी है कि प्रवेशार्थियों की संख्या बी .एड .की सीटों से कम होने के कारण इन परीक्षाओं में शून्य अथवा इसके आसपास अंक पाने वाले परीक्षार्थी भी मान्यता प्राप्त बी.एड .शिक्षण संस्थानों में प्रवेश पाकर 2 वर्ष का बी.एड. पाठ्यक्रम पूरा करने का कारनामा करते हैं जो देश के बुद्धिजीवियों ,शिक्षाविदों तथा चिंतनशील समाजसेवीयों की सोच को तो झकझोरता है, लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय दिल्ली एवं प्रदेश सरकारों के मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री , शिक्षा अधिकारीगण के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती जो समूची शिक्षा व्यवस्था के लिए बेहद खतरनाक है। इन्होंने कभी यह सोचने की ज़रूरत नहीं समझी कि क्या एक ओर जहाँ प्रतियोगी परीक्षाओं में शून्य या उसके आसपास अंक पाने वाले अभ्यर्थी बिना अवांछनीय हथकण्डे अपनाये बी.एड. जैसे महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम को पूरा करने में सक्षम होंगे ? वहीं दूसरी ओर ऐसे प्रतियोगी परीक्षार्थी येन- केन प्रकारेण बी.एड .पाठ्यक्रम की डिग्रियां हासिल कर भी लें तो क्या वे विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए उपयुक्त होंगे ?
यहां यह उल्लेखनीय है कि नई शिक्षा नीति-1986/92 के तहत शिक्षा में उदारीकरण का फायदा सबसे अधिक शिक्षा माफिया, नेतागण, नौकरशाहों एवं धनाढ्य व्यवसायियों द्वारा बी.एड, बी.टेक, एम.बी.ए, एमबीबीएस एवं अन्य महत्वपूर्ण पाठ्यक्रमों की मान्यताएं सम्बंधित विधिक संस्थानों के अधिकारियों से सांठगांठ कर व नियमों को ताक पर रखते हुए प्राप्त कर उठाया है। अब वस्तुस्थिति यह है कि कई पाठयक्रम तो विद्यार्थियों के अभाव में हर साल बन्द हो रहे हैं और यदि इन विभिन्न पाठ्यक्रमों की मान्यता समितियों ने निर्धारित नियमों के तहत मान्यतायें दी होतीं, तो देश की आवश्यकताओं से अधिक रोजगारपरक पाठ्यक्रम न खुल पाते और जो खुलते उनमें गुणवत्तापरक शिक्षा पाकर विद्यार्थी अपना व देश का भला करते। अंधाधुंध मान्यताओं की आंधी में नाम के लिए स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों को खोलकर स्वार्थी लोगों ने विश्वविद्यालय तक खोल लिए और अब स्नातक,परास्नातक की ही नहीं बल्कि पीएचडी की भी उपाधियां वितरित करते हुए अपनी आर्थिक स्थिति मज़बूत कर रहे हैं। अफसोस तो इस बात का है कि चाहे सरकार कांग्रेस की रही हो या भाजपा की चल रही हो, मानव संसाधन विकास मंत्रालय एवं प्रदेशों के अधिकारियों की कार्यशैली में अभी भी वांछित बदलाव नहीं हो सका है जिसका ढिंढोरा बड़े जोर शोर से पीटा गया था। यद्यपि शिक्षा व्यवस्था के प्रति लगाव रखने वाले बुद्धिजीवियों ने बी.एड. जैसे महत्वपूर्ण पाठ्यक्रम हेतु प्रवेश परीक्षा में न्यूनतम अंक प्राप्ति की शर्त यथा 33 प्रतिशत अथवा 40 प्रतिशत रखे जाने के सुझाव समय -2 पर दिये जाने की भरसक कोशिशें की हैं, लेकिन नेशनल काउंसिल आफ टीचर एजूकेशन ने इस बाबत कतई ध्यान नहीं दिया।
ज्ञातव्य है कि टीचर एलिजीबिलिटी टेस्ट में सफल होने के लिए सामान्य, ओबीसी एवं एस.सी. वर्गों हेतु क्रमशः 60,55,50 प्रतिशत प्राप्तांक की शर्त रखी हुई है । टी ई टी में बैठने की न्यूनतम शर्त बी.एड. की डिग्री होती है, लेकिन कैसी विडंबना है कि इस डिग्री की प्रवेश परीक्षा में शून्य ही नहीं अपितु माइनस 6 ,माइनस 16 तक प्राप्तांक पाने वाले इस डिग्री को हासिल करने के लिए योग्य माने गए हैं। गौरतलब है कि यह पाठ्यक्रम एन सी टी ई दिल्ली की निगरानी में संचालित होता है और आगे भी यही विधिक संस्था इसे ही संचालित करेगी क्योंकि केन्द्र सरकारों को सदैव इस संस्था पर भरोसा रहा है और भरोसे का कारण तो सरकारें ही जानें ।ऐसी स्थिति में इस संस्था के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई तो हो नहीं सकती तो फिर सरकार को चाहिये कि इसके अधिकारियों को पद्मश्री, पद्मभूषण जैसे राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित करें ताकि इससे बदहाल होती देश की शिक्षा व्यवस्था के प्रति चिंतित देश के लोग चुपचाप अपने घर बैठ जाये। इन हालात में देशवासियों के समक्ष और कोई चारा भी नहीं बचा है।
*लेखक प्रख्यात शिक्षाविद एवं डा बी आर अम्बेडकर विवि शिक्षक संघ आगरा के पूर्व अध्यक्ष हैं।प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।
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