दो टूक
– ज्ञानेन्द्र रावत*
आज देश कोरोना महामारी के चलते आक्सीजन के भीषण संकट से जूझ रहा है। आक्सीजन की कमी से बच्चे, बूढे़ और जवान कभी घर में, कभी सड़क पर, कभी अस्पताल के पूछताछ केन्द्र के सामने, कभी अस्पताल के बाहर तो अंदर भी बेमौत मर रहे हैं और सरकार दावे-दर-दावे कर रही है कि आक्सीजन का कोई संकट नहीं है। लेकिन मौजूदा हालात इन दावों की हकीकत बयां करने को काफी हैं। सारे देश में आक्सीजन के लिए मारा मारी है। लोग आक्सीजन सिलेंडर की रिफलिंग के लिए दर-दर भटक रहे हैं। वहां भी मुंहमांगे कीमत पर आक्सीजन मिल रही है। हां कुछ संस्थाएं, व्यक्ति और गुरुद्वारे लोगों को निशुल्क आक्सीजन देकर मानवता का परिचय दे रहे हैं। जबकि हकीकत यह है कि अस्पतालों में आक्सीजन ही नहीं है। और यदि है भी तो वहां एडमीशन के लिए लाखों की मांग की जा रही है तब कहीं जाकर आक्सीजन वाला बैड मिल पा रहा है। इसके लिए दलाल कहें या सेवक उन्होंने अस्पतालों के बाहर छोडे़ हुए हैं जो सब व्यवस्था सुलभ करा रहे हैं।और तो और आक्सीजन सिलेंडर युक्त ऐम्बुलैंस वाले भी आठ-दस तो कहीं बीस गुणा ज्यादा पैसे वसूल रहे हैं।
यह हालत है तो यह साफ है कि देश में आक्सीजन का संकट है। अगर ऐसा नहीं है तो विदेशी मीडिया क्यों यह सवाल उठा रहा है कि तकरीबन तीन हजार टन आक्सीजन सिलैंडर, कनसन्ट्रेटर सहित भारत को कई देशों से भेजी गयी है, वह कहां गयी। इनमें रेमेडिसीवर इंजैक्शन व अन्य दवायें भी शामिल हैं। अमेरिकी प्रेस ने वाशिंगटन में अमेरिकी राष्ट्रपति के प्रेस प्रवक्ता से यह सवाल पूछा है कि हमारे टैक्स पेयर की रकम से भेजी गयी यह मदद आखिर है कहां। वह गयी कहां। जबकि पिछले दिनों आक्सीजन सहित राहत सामग्री से लदे जहाज-पर-जहाज भारत भेजे गये हैं। इस बारे में पंजाब, राजस्थान और झारखंड का कहना है कि पता नहीं कि आक्सीजन सहित वह राहत सामग्री कहां बांटी गयी। विपक्षी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी और अमेरिकी न्यूज एजेंसी सीएनएन का कहना है कि वह मदद भारतीय हवाई अड्डों पर पड़ी रही है और देश में लोग आक्सीजन और दवाइयों के अभाव में बेमौत मर रहे हैं।
कैसी विडम्बना है कि जो पेड़ हमें पीपल सौ प्रतिशत, बरगद अस्सी प्रतिशत और नीम सत्तर प्रतिशत आक्सीजन देते हैं उनके सहित तकरीब सवा दो लाख जामुन, अर्जुन, तेंदू, बहेडा़ जैसे औषधीय पेडो़ं से घिरा छतरपुर का जंगल बकस्वाहा हीरा खदान के लिए एक बड़े औद्योगिक घराने को पचास साल के पट्टे पर दिया जा रहा है। इसके 62.64 हेक्टेयर क्षेत्र से हीरा निकाला जायेगा । इसके लिए यहां के यह 2.15.875 पेड़ काटे जायेंगे। इनमें चालीस हजार सागौन के भी पेड़ शामिल हैं। कहा यह जा रहा है कि यहां पर खुदाई में पन्ना से भी पन्द्रह गुणा ज्यादा हीरा निकलेगा। इसे क्या कहेंगे? इसे पर्यावरण संरक्षण के प्रति प्रतिबद्ध सरकार का नायाब नमूना कहेंगे। जबकि हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी यह कहते नहीं थकते कि विकास प्रक्रिया में पर्यावरण का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए। यह पर्यावरण संरक्षण का नमूना है या पर्यावरण विनाश का। इससे मोदी सरकार की कथनी और करनी का अंतर स्पष्ट हो जाता है। देश में कहीं भी सड़क मार्ग से चले जाइये, आपको सड़क के दोनों किनारे कटे पेडो़ं के ठूंठ ही ठूंठ अवश्य मिल जायेंगे। साथ ही यह भी कि जो सरकार विकास के नामपर देश में वह चाहे आठ लेन हो या छह लेन की एक्सप्रेस वे हो, आल वैदर रोड हो, पर्यटन स्थलों हेतु, औद्योगिक संस्थानों हेतु पेड़ों के निर्बाध कटान को मंजूरी दे रही हो उससे देश की जनता की प्राणवायु प्रदान करने वाले पेड़ों की रक्षा की उम्मीद ही बेमानी है।
अब जरा एक पेड़ की अहमियत तो समझ लीजिए। एक पेड़ पचास साल में सत्रह लाख पचास हजार रुपये की आक्सीजन का उत्पादन करता है। तीन किलो कार्बन डाई आक्साइड को हर साल सोखता है। तीन फीसदी के लगभग तापमान कम करने में सहायता करता है। अठ्ठारह लाख रुपये के जमीन के कटाव पर होने वाले खर्च पर रोक लगाता है। पैंतीस लाख रुपये के वायु प्रदूषण पर नियंत्रण रखता है। यही नहीं इकतालीस लाख रुपये के पानी की रिसाइकिलिंग करता है। सबसे बडी़ बात यह कि एक व्यक्ति द्वारा जीवनभर फैलाये गये प्रदूषण को तीन सौ पेड़ मिलकर खत्म कर सकते हैं। लेकिन समझ नहीं आता कि सरकारें इस ओर क्यों नहीं सोचतीं और अंधाधुंध पेडो़ं के कटान को ही बढा़वा देकर हमारी हरित संपदा के खात्मे पर तुलीं हैं। यदि सरकारों का यही रवैय्या रहा तो एक दिन पेड़ किताबों की वस्तु बनकर रह जायेंगे।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।