– डॉ. राजेंद्र सिंह*
“कोरोना मुक्ति” सेवा से, सफलता मिल रही है
कोरोना भारत में अब अपने उच्चतम शिखर पर हैं, अब उसे नीचे हो जाना चाहिए। नीचे जायेगा तब, जब सभी भारतवासी अपने घर पर रहकर, अपने अधूरे कामों को पूरा करने में जुटेंगे। खेती की धूप और खेत का काम, कोरोना को अपने पास नहीं आने देता। अपने गेहूं ,सरसों की बुआई के काम को समय पर पूरा करने की अत्यंत जरुरत है, इसलिए स्वास्थ्य टेस्टिंग आदि की व्यवस्था करके अपने खेती के काम अलग-अलग रहकर कर पूरा करना चाहिए।
भारत की किसानी, जवानी और पानी, प्रदूषण से और अधिक संकट में अब नहीं आएगी। यह बीमारी प्रकृति की लक्ष्मण रेखाओं को अपने रहन-सहन, खान-पान से लांघने वालों को ही आई है। यह बाजार या प्रयोगशाला में पैदा हुई या प्रकृति ने पैदा की है? अभी इस पर बहस लम्बी चलती ही रहेगी। हमें इस बहस से ऊपर उठकर अपने काम में लगना है। हम जैसे लोगों को अलग-अलग रहकर, काम करने से यह बीमारी हमारे पास नही आएगी । किसानी ही भारत की आत्मा है, वही हमें कोरोना से जीतने में मदद करेगी। बशर्ते कि हम इस बुरे वक्त में कोरोना से मुक्ति का रास्ता खोज ले। शहरों से यह गाँव में आ गया है। यहाँ यह प्रभावहीन होगा।
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कोई जिता सकता है, तो वह है ‘अनुशासन‘। अन्यथा हमारे जीवन में हम जितनी अनुशासनहीनता और लापरवाही बरतेगें, कोरोना का उतना ही परपंच बढ़ेगा। इससे बचने का समय बहुत कम है। इसलिए आज से संकल्प करें कि कोरोना के साथ कोई लापरवाही नहीं करेंगे। ये धोखेबाज बीमारी है। धोखा देकर आती है, जो इस बीमारी को लेकर आता है, उसे सबसे ज्यादा ईमानदारी और अनुशासन से अपने जीवन में व्यवहार करना चाहिए। एक व्यक्ति की लापरवाही से ही यह बहुत लोगों की जान ले सकता है। इसलिए जो यह जानता है उसे अपने आप को बचाने के साथ-साथ, दूसरों को बचाना भी उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। तभी इस जानलेवा धोखा देने वाली बीमारी से भारत जीतेगा।
जिस अनुशासन के कारण भारतीय 700 साल पहले तक दुनिया के गुरु थे, वह सम्मान कोरोना को हराकर, हम पुनः प्राप्त कर सकते हैं। कोरोना जहाँ एक तरफ हम पर हमला कर रहा है, वहीं दूसरी तरफ हमें दुनिया को अनुशासन सिखाने वाला अवसर भी सृजित कर रहा है। इसे हमें एक अवसर मानकर ही देखने और इसके साथ व्यवहार करने की जरूरत है।
अनुशासित लोग ही सेवा का काम कर सकते हैं और जरूरतमंदों को मदद कर सकते हैं। इसलिए कोरोना से जीतने का संकल्पपूर्ण अनुशासन के बाद ही सेवा और चेतना जगाने का काम बनता है। दुनिया और भारत देश में स्वैच्छिक कार्य से जुड़े व्यक्तियों, संगठनों और संस्थाओं का यह दायित्व आन पड़ा है। पहले कोरोना को हराने वाला लोक शिक्षण, जिसमें माक्स लगाना, घर में रहना, बातचीत करते वक्त या खड़े होते समय 1 मीटर की दूरी बनाए रखना, सफाई स्वास्थ्य के लिए, गांव व शहरों में जरुरतमंदो की मदद करना। यह काम नौकरी के नहीं हैं, सेवा के हैं। इन्हें सेवा भाव से ही किया जा सकता है। इसलिए सभी स्वैच्छिक सेवा में लगे व्यक्तियों, संगठनों और संस्थाओं ने आगे आकर, इस सेवा के भाव से काम किया है। कोरोना वायरस को हराने के लिए अनुशासन और सेवा दोनों लगे है। इसलिए हम सब की इस तत्परता से इन कार्यों में धीरे-धीरे काबू मिल रहा है।
भारत में कोरोना जैसी बीमारी से बचने का व्यवहार और संस्कार पहले से ही मौजूद है। हम पहले किसी भी मित्र या दोस्त से मिलते वक्त हाथ नही मिलाते थे, उसका कंठ, गाल नही चूमते थे बल्कि दूर से ही अपने हाथों को जोड़कर उनका सम्मान और प्यार करते थे। इसलिए हमारे देश में बीमारी आने के रास्ते हमारे पुराने आरोग्य रक्षण में निहित थे। लेकिन अब हम इस रास्तों को भूल गए है। अब हमने दूसरे देशों के तरीके अपना लिए है, जो खुद बीमार होकर, बीमार न होने वाली व्यवस्था को बीमार बनाने का काम कर रहे है। अब हमें सोचना है कि हम अपने ‘‘स्वाबलंबी जीवन के तरीकों को अपनाएं और कोरोना को भगाएं”। इस धोखा देने वाली बीमारी को फैलाने वाले देशों व व्यक्तियों से बचें। हां हम वासुधैव कुटुम्बकम् तथा जय जगत को मानने वाले थे और हैं । लेकिन इसका अर्थ यह नही है कि हम अपनी विविधता को भूलकर, दूसरों की नकल करने लगे हैं । कोरोना हमारे बीच दूसरों की जीवन पद्धति को अपनाने से आया है। हम भारतीयों को अपनी जीवन पद्धति की अच्छाईयों पर विचार करने का यह खास अवसर है। इसे अवसर मानकर ही हम इस काम में जुटे है। सफलता भी मिली है।
*लेखक पूर्व आयुर्वेदाचार्य हैं तथा जलपुरुष के नाम से विख्यात, मैग्सेसे और स्टॉकहोल्म वॉटर प्राइज से सम्मानित, पर्यावरणविद हैं। प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।