दो टूक
– ज्ञानेन्द्र रावत*
कोरोना महामारी की भयावहता अब चरम पर है। हालत यह है कि सरकार का तंत्र इस महामारी के आगे बेबस नजर आ रहा है। सबसे अधिक दुखदायी तो यह रहा कि चुनावी सत्ता की लालसा का परिणाम इतना भयावह हुआ जिसने कोरोना के विस्तार में आग में घी का काम किया। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकडे़ सबूत हैं कि एक अप्रैल से चौदह अप्रैल के बीच असम में कोरोना संक्रमितों की तादाद में पांच सौ सैंतीस से तीन हजार तीन सौ अठानवे, तमिलनाडु में पच्चीस हजार दो सौ चवालीस से बढ़कर पैंसठ हजार चार सौ अठ्ठावन, केरल में तीस हजार से इकसठ हजार, पुडुचेरी में चौदह सौ से तीन हजार और पश्चिम बंगाल में आठ हजार बासठ से बढ़कर कोरोना संक्रमितों की तादाद इकतालीस हजार नौ सौ सत्ताइस तक जा पहुंची। इसी बात का डर सबको खाये जा रहा था कि सत्ता की चाहत का इतना घिनौना रूप सामने आयेगा जो स्थिति को इतनी भयावह बना देगा। असली मायने में यह चुनावी विस्फोट था जिसने लाशों का अंबार बनाने में सबसे अहम भूमिका निबाही।
सबसे बड़ी विडम्बना तो देखिए कि इस संकट की इस घडी़ में कोरोना उपचार से जुड़ी जीवनरक्षक दवाइयों, चिकित्सा उपकरणों, आक्सीजन, फल आदि खाद्य पदार्थों, यहां तक प्लाज्मा की कालाबाजारी जम कर हो रही है और जमाखोरों, मुनाफाखोरों के खिलाफ कार्यवाही ना के बराबर है। लगता है इन लोगों के आगे बेबस है। आखिर क्यों ? कैसे इन मनुष्यरुपी पिशाचों में इतनी हिम्मत आ गयी है कि वे मौत का सौदागर बन बैठे हैं ? होना तो यह चाहिए था कि ऐसे लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही होती लेकिन सरकार इस सबसे मानो आंख मूंदे बैठी है। इससे तो यही ज़ाहिर होता है कि ऐसे लोगों को प्रभावशाली लोगों, नेताओं का वरदहस्त प्राप्त है।जबकि दवाओं, इंजैक्शन, आक्सीजन के अभाव में हजारों की तादाद में रोजाना लोग दम तोड़ रहे हैं, लऔर सरकारी आंकड़े अपनी विश्वसनीयता खोते प्रतीत हो रहे हैं। यदि सरकार कि ही माने तो कोरोना से देश में अब तक दो लाख एक हजार एक सौ सत्तासी से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और दुनिया में हमारा देश सर्वाधिक मौतों वाला चौथा देश बन चुका है। जबकि अमरीका पांच लाख सत्तासी लाख, ब्राजील तीन लाख पचानवे हजार और मैक्सिको में अब तक कोरोना से दो लाख पन्द्रह हजार मौतें हो चुकी हैं। ऐसा लगता है शीघ्र ही हम पहले पायदान पर आ जायेंगे। तभी हमारा विश्व गुरू बनने का सपना पूरा होगा और तभी देश के अच्छे दिन आयेंगे। शायद आजादी के इन सात दशकों में वह स्वर्णिम दिन होगा।
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देश के हालात पर नजर दौडा़एं तो पता चलता है कि यहां अंत्येष्टि स्थल पर फोटोग्राफी पर बंदिश है। यही नहीं एम्बुलैंस के अभाव में लोग शव को ठेले, साइकिल, मोटर साइकिल तक पर ले जाने को मजबूर हैं। हालत इतनी खराब है कि रोगी को अस्पताल ले जाने और वहां से घर लाने के लिए एम्बुलैंस वाले जहां के सात-आठ सौ लगते थे, वहां के चार हजार और जहां के चार-पांच हजार लगते थे, वहां के चालीस-पैंतालीस हजार और उससे भी ज्यादा वसूल रहे हैं। दुख तो यह है कि यह सब जानते-समझते हुए कि यह महामारी न सांसद, मंत्री, विधायक, राज्यपाल, पत्रकार, अफसर, साधारण कर्मचारी, नौकर किसी में कोई भेद नहीं कर रही, हरेक को अपनी चपेट में ले रही है और मरने वालों का आसानी से परिवार वाले अंतिम संस्कार तक नहीं कर पा रहे हैं। वहां भी चौबीस घंटे की वेटिंग चल रही है और तो और निकृष्टता का नमूना यह भी है कि वहां भी वसूली करने से लोग बाज नहीं आ रहे। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के राजघाट का मामला इसका सबूत है जहां अंतिम संस्कार के लिए पंद्रह हजार की मांग की गयी वह भी पुलिस वाले से उसकी पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए।फिर भी लूट-खसोट, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी और जमाखोरी का बाजार अपने चरम पर है। आज सच्चाई यह है कि मानवता और नैतिकता केवल दिखावे की वस्तु बनकर रह गयी है। ऐसा लगता है नर पिशाचों का साम्राज्य है। हालात इसके जीते जागते सबूत हैं। वह बात दीगर है कि कुछ व्यक्ति, संस्थायें ऐसे विषम दौर में भी इंसानियत का परिचय दे रही हैं और राहत कार्यों को बखूबी अंजाम दे रही हैं। हमें उन पर गर्व है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।