मुद्दा
– डॉ. राजेन्द्र सिंह*
भारत की किसानी व्यापार नहीं है, संस्कृति है। संस्कृति की ट्रेडिंग नहीं हो सकती है। डंकल प्रस्तावों के माध्यम से खेती को विश्व व्यापार संगठन की सूची में सम्मिलित किया गया, यह भयानक अपराध है। खेती हिन्दुस्तान की संस्कृति रही है, व्यापार कभी नहीं थी। अब नए परिदृश्य में विश्व व्यापार संगठन ने व्यापार में खेती को सबसे ऊपर शामिल कर लिया है। इसको रोकने के लिए भारत भर में सर्वोदय समाज, पर्यावरण, सामाजिक, प्रकृति पुनर्जनन के कार्यों में लगे हुए कार्यकर्ता व संस्थानों ने 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में खेती को विश्व व्यापार संगठन (डब्लू टी ओ) से बाहर रखने का विचार प्रबल बनाया था। लेकिन उस समय किसान यूनियन खेती को उद्योग के दायरे में लाने हेतु काम कर रही थी।
भारत के सर्वोदय संगठनों ने यह भी माँग उठाई थी कि, यूरोप, अमेरिका की खेती भारत जैसी नहीं है। वहाँ की खेती को यहाँ की खेती से अलग तरीके से देखा जा सकता है। लेकिन उस काल में अंतरराष्ट्रीय संगठनों के दबाव ने यह बात स्वीकार नहीं की और खेती को उद्योग के दायरे में स्वीकार कर लिया।
पिछले 4 महीनों से किसान आंदोलन भारत भर में चल रहा है। अन्नदाता दिल्ली के चारों तरफ सड़कों पर पड़ा है। भारत सरकार राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठनों के दबाव में आकर किसानों की बात नहीं सुन रही है। सरकार का चरित्र, भारत में तानाशाह जैसा है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत कमजोर दिखाई दे रहा है। सरकार की इस कमजोरी का फल किसानों को भुगतना पड़ रहा है। भारत को तो विश्व व्यापार संगठन को अपनी सच्चाई बताकर, इससे बाहर हो जाना चाहिए था। अभी भी वक्त है, सरकार को इस हिंसा में कुछ पहल करना चाहिए।
भारत के कुछ किसान आंदोलनकारियों को नए कृषि कानून रदद् कराने व कृषि उपज की खरीद गारंटी वाला कानून बनवाने के लिए अब आंदोलन को तेज करने की जरूरत है। किसान के अनाज की जमाखोरी छूट कानून, मंडी बंदी कानून, बंधुआ किसान कानून ये तीनों ही खतरनाक है। किसान के लिए इसको रद्द कराके कृषि उत्पादों का न्यूनतम लाभकारी समर्थन मूल्य, गारंटी कानून 2020-21 बनवाना चाहिए। इस कानून के लिए पिछले तीन दशकों से रस्साकशी जारी है। लेकिन सरकारें किसानों को धोखा दे रही है। जरूरत नया कानून बनवाने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ, खासकर विश्व व्यापार संघ पर दबाव डालने की है। तभी भारत की खेती संस्कृति बनी रह सकती है।
भारतीय खेती को व्यापार व उद्योग के रूप में बनाना भारतीय संस्कृति, धरती, प्रकृति व मानवता की सेहत के खिलाफ है, इसलिए भारत की सेहत ठीक रखना है, तो हमें खेती को विश्व व्यापार संघ से बाहर करवाना जरूरी है। यह कार्य भारत के तरूण, युवा, विद्यार्थियों को ही करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ विकास अधिकार, बाल अधिकार व आदिवासी अधिकार प्रस्ताव, सतत् विकास लक्ष्य (डब्लू टी ओ)-15 पेरिस एग्रीमेंट, पृथ्वी शिखर सम्मेलन-21 आदि इसी प्रकार के अन्य प्रस्तावों में यह बात स्वीकार की गई है कि जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण एवं मानवता के विरूद्ध कोई भी ऐसा काम नहीं किया जाए, जिससे जलवायु परिवर्तन का संकट बडे़, समुद्र का तल ऊपर उठे, बेमौसम अकाल-बाढ़, हरियाली घटे, तापक्रम बढ़े।
इन सभी घटनाओं से ही लोग बे पानी, विस्थापित होकर, खेती व गाँव, देश छोड़ने को मजबूर है। यह सब खेती के उद्योगीकरण व बाजारीकरण ने परिस्थिति बनायी है। इस नई बनती परिस्थिति को हम संगठित होकर, समझकर रोकें और भारत के पुनर्निर्माण हेतु खेती को संस्कृतिमय प्रतिष्ठा दिलाने का काम करें। इस हेतु सभी को एकजुट होकर इस कार्य को समझने और अंतरराष्ट्रीय संगठनों के दबाव में भारत को घुटने टेकने से बचाना है। हमारे नए चंद उद्योगपतियों का भारत में कंपनी राज होने से रोकने की पहल करने की जरूरत है। यह पहल किसान आंदोलन के नैतिक समर्थन व ऊर्जा से ही संभव होगा, लेकिन इस काम को करने के लिए अब भारत के सभी शैक्षिक संस्थानों को एकजुट होकर भारतीय आस्था एवं पर्यावरण की रक्षा के कार्यों में लगने की जरूरत है।
पर्यावरण शिक्षा विषय को शिक्षा में उच्चतम न्यायालय के आदेश से दिखावटी तौर पर शामिल करने से संभव नहीं होगा। यह काम गहराई से समझने, समझाने व संगठित होकर, अहिंसक सत्याग्रह करने से ही संभव होगा। अतः हम सब को समय रहते हुए इस कार्य में तत्काल प्रभाव से जुटना होगा। यदि भारत की खेती को विश्व व्यापार संघ के एजेंडे से बाहर नहीं किया गया तो तेजी से अतिक्रमण, प्रदूषण और शोषण का प्रभाव बढ़ेगा। इससे विनाश तेजी से बढ़ेगा और फिर भारत पुनर्निर्माण संभव नहीं होगा। भारत पुनर्निर्माण की शुरूआत खेती को संस्कृति बनाने से ही संभव है।
*लेखक स्टॉकहोल्म वाटर प्राइज से सम्मानित और जलपुरुष के नाम से प्रख्यात पर्यावरणविद हैं। यहां प्रकाशित आलेख उनके निजी विचार हैं।