गौरतलब है कि गौरय्या एक घरेलू चिड़िया है जो सामान्यतः इंसानी रिहायश के आसपास ही रहना पसंद करती है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी हाउस स्पैरो, स्पेनिश स्पैरो, सिंध स्पैरो, डेड सी या अफगान स्क्रब स्पैरो, ट्र्ी स्पैरो या यूरेशियन स्पैरो और रसेट या सिनेमन स्पैरो ये छह प्रजातियां पायी जाती हैं। घरेलू गौरय्या को छोड़कर अन्य सभी उप कटिबंधीय और सम सीतोष्ण क्षेत्रों में पायी जाती हैं। असलियत यह है कि कम से कम आठ विविध वंशों यानी जीनस के पक्षियों को गौरय्या कहा जाता है। इसकी विलुप्ति के पीछे अनगिनत कारण हैं। सबसे पहला कारण तो आदमी में प्रकृति और इसके प्रति भावनात्मक जुड़ाव का अभाव और उसके रहन-सहन के तरीकों में बदलाव है। नए-नए तरीकों के बनते बहुमंजिला मकानों की वजह से उनकी छतों पर गौरय्या को अपने घौंसले बनाने की जगह ही नहीं रही। घर की स्त्रियों द्वारा गेंहूं भिगोकर घर के आंगन में सुखाने की प्रवृत्ति के ह्वास के चलते गौरय्या ने घरों से मुंह मोड़ लिया। देश में दिन-ब-दिन बढ़ती टॉवर संस्कृति और पर्यावरण प्रदूषण के कारण इनकी संख्या कम हो रही है। बढ़ते मोबाइल टॉवरों के विकिरण के कुप्रभाव से गौरय्या के मस्तिष्क और उनकी प्रजनन क्षमता पर घातक असर पड़ा है। साथ ही वे दिशा भ्रम की शिकार होती हैं सो अलग। इससे और विकसित व विकासशील देशों में अनलेडैड पेट्रोल के बढ़ते चलन जिसके ईंधन के बाई प्रोडक्ट शिशु गौरय्या के प्रिय आहार छोटे कीड़ों को खत्म कर देते हैं। दरअसल अनलेडैड पेट्रोल के जलने से बनने वाले मिथाइल नाइट्रेट नाम के बेहद जहरीले यौगिक से छोटे-मोटे कीड़े-मकौड़े खत्म हो जाते हैं। ये गौरय्या को बेहद प्रिय हैं जिन्हें वह बड़े चाव से खाती है। जब वे ही उसे खाने को नहीं मिलेंगे तो वह जियेगी कैसे। इसकी तादाद में आई बेतहाशा कमी ने इस प्रजाति के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं। इन हालात में एैसा लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं जबकि गौरय्या के दर्शन ही दुर्लभ न हो जायें।
दरअसल बीते डेढ़-दो दशक से गौरय्या की तादाद में जो अभूतपूर्व कमी देखने में आयी है, वह चिंतनीय है। आज बच्चे अपनी कालोनियों में गौरय्या को ढूंढते रहते हैं। गौरय्या की घटती तादाद के लिए घौंसले बनाने की खातिर कबूतरों से संघर्ष, माइक्रोवेव प्रदूषण, शहरों में बढ़ता बिजली के तारों का जाल, बार-बार उसका घर छिनने, उसे तोड़कर बर्बाद कर दिया जाना, डिब्बाबंद आहार और सुपर मार्केट संस्कृति का बढ़ना वे अहम् कारण हैं जिसके चलते वह हमसे दूर होती जा रही है। यह कहना कुछ को अतिश्योक्ति लगे लेकिन मौजूदा हालात और इंसान के आसपास का वातावरण यह साबित करता है कि कुछ-न-कुछ गड़बड़ जरूर है। सच यह है कि अक्सर घर-परिवारों के आस-पास रहना पसंद करने वाली गौरय्या के लिए आज बढ़ते शहरीकरण और मनुष्य की बदलती जीवन शैली में कोई जगह रह ही नहीं गई है। आज व्यक्ति के पास इतना समय ही नहीं है कि वह अपनी छतों पर कुछ जगह ऐसी खुली छोड़े जहां वे अपने घौंसले बना सकें। वह इतना ही करें कि नालियों, डस्टबिन व सिंक में बचे हुए अन्न के दानों को बहने देने से बचाये और उनको छत पर खुली जगह पर डाल दे ताकि उनसे गौरय्या अपनी भूख मिटा सके। यही कारण है कि आज उसके भूखों मरने की नौबत आ गई है।
आज सरकार में एैसा कोई नेता नहीं है जो पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशील हो और उनके बारे में कुछ जानकारियां रखता हो, उन्हें पहचानता हो। इस मामले में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की जितनी भी प्रशंसा की जाय, वह कम है। एक बार भरतपुर प्रवास के दौरान उन्होंने केवलादेव पक्षी विहार में तकरीब 80 चिड़ियों को उनके नाम से पहचान कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था। देखा जाये तो गौरय्या को बचाने के बारे में आजतक किए गए सभी प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। केवल 20 मार्च को विश्व गौरय्या दिवस मनाने से कुछ नहीं होने वाला। ‘हैल्प हाउस स्पैरा’ के नाम से समूचे विश्व में चलाये अभियान में सरकार का नकारात्मक रवैय्या चिंतनीय है। राष्ट्र्ीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का तो यह राजकीय पक्षी है। दुख यह है कि इस बारे में सब मौन हैं। इन हालातों में गौरय्या आने वाले समय में किताबों में ही रह जायेगी, इसमें दो राय नहीं।
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