– मौलाना मुहम्मद एजाजुर रहमान शाहीन क़ासमी*
वक़्फ़ एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का अंतरिम फ़ैसला: मुस्लिम संगठनों की आधी जीत, आधा इंतज़ार बाकी
सुप्रीम कोर्ट ने वक़्फ़ एक्ट से जुड़ी कुछ विवादित धाराओं पर अंतरिम फ़ैसला सुनाते हुए मुस्लिम अर्ज़ीगुज़ारों को आंशिक राहत दी है। अदालत ने एक्ट की धारा 3(आर) और 3(सी) को रद्द कर दिया। पहली धारा के तहत यह प्रावधान था कि कोई भी मुसलमान अपनी ज़मीन या जागीर तभी वक़्फ़ कर सकता है जब वह पाँच साल से लगातार इस्लाम का पालन कर रहा हो। अदालत ने इस शर्त को “बेमतलब और मज़ाक़िया” करार दिया, यह कहते हुए कि यह तय करना असंभव है कि कोई व्यक्ति कितने समय से धर्म का पालन कर रहा है।
धारा 3(सी) के मुताबिक़ ज़िले का कलेक्टर यह अधिकार रखता था कि वह यह निर्धारित करे कि दावे की गई संपत्ति सरकारी है या वक़्फ़। सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी निरस्त करते हुए कहा कि नौकरशाही को इस स्तर का इख़्तियार देना वक़्फ़ संपत्तियों पर अवांछित सरकारी दख़ल का रास्ता खोलता है। मुस्लिम पक्षकारों का कहना था कि इस शर्त से भविष्य में वक़्फ़ संपत्तियों पर कब्ज़े की कोशिशें आसान हो सकती थीं, और अदालत का यह फ़ैसला उनकी बड़ी जीत है।
अदालत के आदेश का तीसरा पहलू सेंट्रल वक़्फ़ काउंसिल और 11 राज्यों के वक़्फ़ बोर्डों से संबंधित है। कोर्ट ने दोनों के बीच निर्णय क्षमता को संतुलित किया है और गैर-मुस्लिम सदस्यों की संख्या घटाकर उन्हें अल्पसंख्यक बना दिया है। संगठनों का कहना है कि यह कदम वक़्फ़ संपत्तियों की रक्षा में मदद करेगा।
लेकिन राहत के बीच सबसे बड़ी निराशा ‘वक़्फ़ बाय यूज़र‘ को लेकर रही। यह वह प्रावधान है जिसके तहत वे ज़मीनें और इमारतें भी वक़्फ़ मानी जाती थीं जिन्हें समाज लंबे समय से वक़्फ़ की तरह इस्तेमाल कर रहा है, भले ही लिखित दस्तावेज़ न हों। अदालत ने इस शर्त को एक्ट में दोबारा शामिल नहीं किया। मुस्लिम संगठनों का कहना है कि यह निर्णय उनके लिए मायूस करने वाला है, क्योंकि देश में बहुत-सी ऐसी संपत्तियाँ हैं जिनके औपचारिक काग़ज़ मौजूद नहीं होते, फिर भी लोग पीढ़ियों से उनके इस्तेमाल के आधार पर उनके मालिक माने जाते हैं। यह नियम वक़्फ़ पर भी लागू होना चाहिए था। अब आशंका है कि सरकार इन संपत्तियों पर दावा कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने उन संपत्तियों पर भी कोई राय नहीं दी जो ऐतिहासिक धरोहर हैं और पुरातत्व विभाग के अंतर्गत आती हैं—जैसे ताजमहल, लाल किला और कुतुब मीनार। इस चुप्पी से भी वक़्फ़ बोर्डों की चिंता बढ़ी है।
मुस्लिम संगठनों की प्रतिक्रिया इस फ़ैसले पर बंटी हुई है। कुछ ने इसे अपनी जीत बताया क्योंकि अदालत ने सरकार और ब्यूरोक्रेसी के इख़्तियार सीमित कर दिए हैं। वहीं अन्य संगठनों ने इसे अधूरा फ़ैसला बताया और साफ़ किया कि संसद द्वारा बनाए गए एक्ट की कुछ शर्तों पर उन्हें अब भी एतराज़ है। इन संगठनों ने आंदोलन को तेज़ करने की बात कही है, ताकि ‘वक़्फ़ बाय यूज़र‘ जैसे अहम प्रावधान को फिर से शामिल कराया जा सके।
धार्मिक पृष्ठभूमि में देखें तो वक़्फ़ इस्लामी परंपरा में गहरी अहमियत रखता है। कुरआन में बार-बार अल्लाह की राह में ख़र्च करने की शिक्षा दी गई है। सूरह बकरा (आयत 267) में कहा गया: “ऐ लोग जो ईमान लाए हो! अपनी पवित्र संपत्ति में से अल्लाह की राह में ख़र्च करो।” हदीसों में भी वक़्फ़ की अहमियत बताई गई है। पैग़ंबर मुहम्मद ने खुद बाग़ात और ज़मीनें वक़्फ़ कर दी थीं ताकि समाज इसका लाभ उठा सके। हदीस के मुताबिक़, जो लोग अपनी दौलत अल्लाह की राह में वक़्फ़ करते हैं, यह उनके लिए अंतिम दिन शफ़ाअत का कारण बनेगा।
यानी इस्लामिक धारणा के अनुसार वक़्फ़ न सिर्फ़ व्यक्तिगत पुण्य कमाने का साधन है, बल्कि समाज की उन्नति और भलाई में भी बुनियादी भूमिका निभाता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामुदायिक सरोकार इसके माध्यम से पूरे होते हैं। यही वजह है कि वक़्फ़ की संपत्तियों की हिफ़ाज़त मुस्लिम समाज के लिए संवेदनशील मुद्दा है।
अंततः सुप्रीम कोर्ट का यह अंतरिम फ़ैसला आधा पूर्ण और आधा अधूरा कहा जा रहा है। कुछ धाराओं को रद्द कर मुसलमानों को राहत दी गई है, लेकिन *वक़्फ़ बाय यूज़र* को शामिल न करना और ऐतिहासिक संपत्तियों पर चुप्पी निराशा छोड़ गया है। अब मुस्लिम संगठन आंदोलन और अदालत—दोनों स्तरों पर अपनी लड़ाई आगे बढ़ाने की तैयारी में हैं।
*महासचिव, वर्ल्ड पीस ऑर्गनाइजेशन, नई दिल्ली। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।

