
पुस्तक समीक्षा: सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान
उत्तर प्रदेश के बाँदा नगर के वयोवृद्ध चिकित्सक डॉक्टर शरद चतुर्वेदी की वैज्ञानिक शोध पर आधारित एक पुस्तक प्रकाशित होकर आई है। पुस्तक का नाम है: सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान।
जैसा कि पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है, यह कोई धार्मिक पुस्तक नहीं है, अपितु सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में प्रतिपादित वैज्ञानिक तथ्यों का अनुसंधान है। यह अनेक ग्रंथो के परिशीलन के उपरांत प्राप्त वैज्ञानिक निष्कर्षों, लेखक के अपने प्रकाशित और अप्रकाशित अनेक शोध पत्रों तथा कतिपय ग्रंथो में निष्पादित संकलनों का संग्रह है। इसमें विज्ञान, गणित, चिकित्सा, अंतरिक्ष विज्ञान, जल विज्ञान तथा अनेक सांस्कृतिक विषयों पर पूर्वज वैज्ञानिक ऋषियों के परिचय सहित उनके शोध और अन्वेषणों को उद्धृत किया गया है।
इस तरह यह पुस्तक प्राचीन संस्कृति पर दीर्घकाल से छाई हुई अनास्था की धुंध को साफ करती हुई लुप्त हो चुके वैज्ञानिक तथ्यों का अन्वेषण करके जनमानस को वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करती है। देश और दुनिया की युवा पीढ़ी को समर्पित यह वैज्ञानिक पुस्तक रोचक, पठनीय तथा संग्रहणीय दस्तावेज है।
पुस्तक में कुल 34 विषय हैं। इन समस्त आलेखों पर चर्चा करने से पहले यह इंगित करना अति आवश्यक है कि उन्होनें पूवर्ज वैज्ञानिक ऋषियों के वैज्ञानिक अनुसंधानों का अंधी आस्था, धर्मान्धता और रूढ़ियों से पिंड छुड़ाकर वास्तविक वैज्ञानिक स्वरूप उजागर करने में महत प्रयास किया है और लुप्त प्राय वैज्ञानिक निष्कर्षों को सामने लाकर लोक कल्याण किया है। इसलिए उनका श्रम अनवरत अभिनंदनीय है।

लेखक डाॅ शरद चतुर्वेदी ने पुस्तक को रोचक और पठनीय बनाने की दृष्टि से सबसे पहला और सरल विषय “यज्ञोपवीत” का चयन किया है। उन्होने अनेक ग्रंथो के उदाहरण से यह प्रमाणित करने की सफल चेष्टा की है कि यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना नितांत वैज्ञानिक प्रकिया है और इसके सैकड़ों वैज्ञानिक लाभ हैं। वस्तुतः हमारे पूर्वज ऋषियों ने जिन 16 संस्कारों की परिकल्पना की थी और जो 16 संस्कार संस्थापित किए थे, उसमें सबसे प्रमुख संस्कार यज्ञोपवीत का ही है।
डॉ चतुर्वेदी मानते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषियों ने संस्कारित जीवन यापन की विधा की परिकल्पना की थी। अनेक नियमों के निर्धारण में उन्होंने अध्यात्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक तथा स्वास्थ्य रक्षा के नियमों का समन्वय व समावेश किया तथा उन नियमों को दैनिक व्यवहार में प्रयोग करने की व्यवस्था भी दी, जिससे पूरा समाज निरोग रहते हुए शतायु प्राप्त करता था। यज्ञोपवीत इस नियम का एक अंग है। विडंबना यह है कि वर्तमान में हम अपनी पुरातन परंपराओं को या तो निरर्थक मानकर या अज्ञानतावश अथवा पाश्चात्य संस्कृति के हठात अंधानुकरण के कारण नकारते या छोड़ते जा रहे हैं। ऋषियों के कथनों को यथार्थ रूप में जानने का प्रयास भी नहीं करते हैं।
डाॅ चतुर्वेदी ने हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के अनेक ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद यज्ञोपवीत के वैज्ञानिक महत्व के बारे में जो निष्कर्ष दिए हैं, वे बहुत चौंकाने वाले हैं और वरेण्य हैं, निश्चित रूप से अपनाने योग्य भी हैं। उनके अध्ययन से निष्कर्ष प्राप्त होते हैं कि यज्ञोपवीत एक स्वास्थ्य रक्षक, जीवन रक्षक सरलतम चिकित्सकीय उपकरण है। आयुर्वेद एक्यूप्रेशर एवं एलोपैथिक आदि सभी चिकित्सा पद्धतियों से यज्ञोपवीत के प्रयोग से होने वाले लाभ की पुष्टि प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से होती है। अवसाद और अवसाद जन्म उक्त रक्तचाप वह हृदय रोग से बचने का सहज उपाय इस उपकरण के दैनिक प्रयोग द्वारा संभव है। आशाए लबों को बहुत सहजता से इस उपकरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस उपकरण में कोई व्यय नहीं है, अर्थात यह अत्यंत कॉस्ट इफेक्टिव है, जो कि किसी भी चिकित्सा पद्धति में संभव नहीं है। यह उपकरण शरीर के बाहर उपयोग में लाया जाता है। इस उपकरण के प्रयोग हेतु न कोई औषधि खाना है, न लगाना है। अतः इसका कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं है। सबसे प्रमुख बात यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में मानसिक तनाव व उच्च रक्तचाप एवं हृदय रक्तचाप के रोगियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। इन रोगों से सुविधा संपन्न समाज तथा गरीब समाज अर्थात सभी प्रकार के लोग प्रभावित हो रहे हैं। अतः यज्ञोपवीत अर्थात जनेऊ धारण करने जैसे सरल उपयोग में साधारण अल्प मूल्य वाले निरापद एवं प्रभावी उपाय को अपनाने व प्रयोग करने की और भी अधिक आ वश्यकता है। प्रतिरक्षा करना चिकित्सा की अपेक्षा उत्तम है।
यज्ञोपवीत अध्याय की अंतिम पंक्तियों में डाॅ शरद चतुर्वेदी का कहना है कि : ” उपरोक्त अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर मेरा अभिमत है कि मानसिक तनाव जन्य स्थितियों से बचाए रखने के लिए सरलता से सभी के द्वारा व्यवहारिक किया जा सकने वाला सुरक्षित तथा किसी भी दुष्प्रभाव से रहित एवं अत्यल्प (नगण्य) व्यय साध्य उपाय, जो रक्तचाप, हृदय रोग, मूत्र रोग आदि से सुरक्षित रखने वाला हो, वह यज्ञोपवीत के अतिरिक्त अन्य कोई उपकरण नहीं है। पूर्वाग्रह और आधुनिकता की मरीचिका को त्याग कर इसका उपयोग करना श्रेयस्कर है। अपने इस चिकित्सा समाजशास्त्रीय अध्ययन से समाज को सहमत करने में यदि मैं सक्षम होता हूँ, तो अपना प्रयास सार्थक मानूँगा”।
“सनातन संस्कृति में शंख” शीर्षक में डाॅ चतुर्वेदी बताते हैं कि प्रत्येक मंदिर और घर में शंख आवश्यक रूप से उपलब्ध होता है। शंख का पूजन भी होता है और बजाया भी जाता है। लेकिन शंख का महत्व धार्मिक स्तर तक सीमित है। परन्तु उन्होंने अपने शोध निष्कर्ष में खुलासा किया है कि आयुर्वेद के रोगोपचार में भी शंख का उपयोग होता है। शंख भस्म और शंख द्रव का उपयोग उदर रोग में किया जाता है। शंख में प्रचुर मात्रा में कैल्शियम, फास्फोरस तथा गंधक आदि खनिज तत्व पाए जाते हैं। ये अस्थियों को पुष्ट करते हैं और चर्म रोगों में भी लाभदायक हैं। शंख के वैज्ञानिक महत्व को रेखांकित करते हुए वो बताते हैं कि शंख की ध्वनि का सामंजस्य ॐ की ध्वनि से है। शंख की ध्वनि की आवृतियाँ मस्तिष्क के तंतुओं को सक्रिय करती हैं, जिससे स्मरण शक्ति प्रबल होती है। शंख बजाने से फेफड़ों में वायु की उपलब्धि की क्षमता बढ़ती है, क्योंकि फेफड़ों का आकार भी बढ़ जाता है। इस प्रकार से हम शंख को जहाँ धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व का पाते हैं, वहीं यह भी स्पष्ट है कि शंख शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी वस्तु और उपकरण के रूप में सिद्ध होता है। साथ ही अपनी ध्वनि की विशेष तरंगों द्वारा ब्रह्मांड में व्याप्त ध्वनि तरंगों से सामंजस्य स्थापित करने में सहायक है।
“संजीवनी विद्या” अध्याय में डाॅ चतुर्वेदी की खोज यह है कि संजीवनी कोई एक जड़ी बूटी वनस्पति मात्र नहीं है, वरन संजीवनी एक विद्या है। इस विद्या के चार अंग हैं:~ मृत संजीवनी, विशल्य करणी, सवर्ण करणी तथा संधान करणी। मृत संजीवनी वह औषधि है, जो मूर्छा हरण करके चेतना लाती है। विशल्य करणी शरीर में धातु, काष्ठ, पत्थर, नाखून बाल आदि नासूर के व्रण को विशल्य करती है। सवर्ण करणी टूटी हुई अस्थियाँ और मांसपेशियां जोड़ती तथा उनका पूर्व स्वरूप में पुनर्स्थापित करती हैं। संधान करणी शरीर में पूर्व की भांति शक्ति उत्पन्न करती है। दुर्गा सप्तशती में “मृत संजीवनी विद्या” का उल्लेख है। इस मंत्र को तंत्र शास्त्र के ज्ञाता गुरु के संरक्षण व निर्देशन में विधिपूर्वक सिद्ध करके पाठ करने से मृत प्राय रोगी भी जीवन पा जाता है।
डाॅ चतुर्वेदी ने “जल है जीवन का आधार” शीर्षक से 25 पृष्ठों में जल के महत्व को रेखांकित किया है और जल के धार्मिक, पौराणिक पारिवारिक, सामाजिक तथा वैज्ञानिक महत्व को बहुत ही विस्तार से रेखांकित किया है। भारतीय पुरातन संस्कृत साहित्य में “जल विज्ञान” शीर्षक के अंतर्गत उन्होंने जल विज्ञान पर विस्तृत चर्चा की है। इसके अतिरिक्त “जल चक्र”, “जल प्रदूषण और कारण”, “जल प्रदूषण के दुष्प्रभाव” तथा “जल प्रदूषण निवारण के उपाय” भी बताए हैं। इसके साथ ही जल संरक्षण और जल प्रबंधन पर भी चर्चा की है। इसी क्रम में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय महत्व के ग्राम “जखनी मॉडल” की भी विस्तार से चर्चा की है और यह बताने की चेष्टा की है कि बाँदा के जखनी गाँव के एक अकेले व्यक्ति उमाशंकर पांडे ने 25 वर्षों के सघन प्रयास और परिश्रम से “खेत में मेड़ और मेड़ पर पेड़” योजना के माध्यम से अपने गाँव को विश्व स्तरीय मॉडल बना दिया है। इस गाँव के सभी कुएँ और तालाब 365 दिन पानी से लबालब भरे रहते हैं। इसीलिए भारत सरकार ने उमाशंकर पाण्डेय जी को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया है।
“काल गणना” शीर्षक में डॉक्टर शरद चतुर्वेदी ने विभिन्न कैलेंडर का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है और विश्व के लगभग 20 विद्वानों के मत का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए यह बताया है कि नक्षत्र का सर्वप्रथम ज्ञान भारत को था। चीन और अरब में ज्योतिष का विकास भारत से ही हुआ और 12 राशियों का ज्ञान सबसे पहले भारतीयों को हुआ था। भारत ने प्राचीन काल में ज्योतिष विद्या में अच्छी उन्नति की थी। उनका निष्कर्ष है कि गणित और ज्योतिष का अन्योन्याश्रित संबंध है और भारतीय काल गणना इन्हीं दोनों विधाओं पर आधारित है। भारतीय गणित व ज्योतिष पर लिखित सम्मतियों से स्पष्ट है कि पुरातन काल में इस ज्ञान का आविष्कार भारत में ही हुआ है। भारतीय काल गणना सर्वथा वैज्ञानिक और त्रुटिहीन है।
“ज्योतिषीय कालपरिणाम” शीर्षक में डॉक्टर शरद चतुर्वेदी का निष्कर्ष है कि भारतीय गणितज्ञ और ज्योतिष शास्त्र विदों ने सूक्ष्मतम से महानतम काल गणना की खोज की है, जो विश्व के किसी वैज्ञानिक ने नहीं की है। इससे यह भी परिलक्षित है कि भारतीय खगोल विज्ञान कितना उन्नत था। यह काल गणना की सारिणी आभासित कराती है कि हमारे पूर्वज वैज्ञानिक ऋषि समय यात्रा (टाइम ट्रेवल) की विधि से भली प्रकार परिचित थे, अन्यथा यह कालगणना संभव ही नहीं हो सकती थी।
आदिकाल से एक अनसुलझा और विवादास्पद प्रश्न आज भी हर किसी के मन मस्तिष्क में मंडराता रहता है कि “सृष्टि की उत्पत्ति कैसे हुई ?” अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान आज भी जारी हैं। डाॅ चतुर्वेदी भी इस प्रश्न से टकराये और जूझे। प्रस्तुत पुस्तक में “सृष्टि की उत्पत्ति एवं लय” शीर्षक के अंतर्गत किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए उन्होनें दर्जनों पुस्तकों का विशद अध्ययन किया। जैसे ~ ऋग्वेद, भागवत महापुराण, वेदांत, यहूदी धर्म की मान्यता, ईसाई धर्म की मान्यता, इस्लाम धर्म की मान्यता, जैन धर्म की मान्यता, बौद्ध धर्म की मान्यता तथा वैज्ञानिक मत और अनुसंधान पर आधारित अनेक पुस्तकों में उल्लिखित ढेर सारे संदर्भों को अपने इस लंबे लेख में उद्धृत किया और बहुत ही व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत किया है।
“वैज्ञानिक मत” शीर्षक के अंतर्गत वे लिखते हैं: “अनेक वैज्ञानिकों ने सृष्टि की उत्पत्ति व रचना पर अपने-अपने सिद्धांत व्यक्त किए हैं। यहाँ कुछ प्रमुख सिद्धांतों का उल्लेख करेंगे। अधिकांशतः वैज्ञानिकों ने “बिग बैंग” की थ्योरी का समर्थन किया है। “बिग बैंग” थ्योरी पर स्टीफन हॉकिंस ने कहा कि 15 अरब वर्ष पूर्व सृष्टि की उत्पत्ति से पहले संपूर्ण भौतिक तत्व एक बिंदु में सिमटे हुए थे, फिर इस बिंदु ने फैलना शुरू किया। “बिग बैंग” एक बम जैसा विस्फोट नहीं था, वरन इस क्रिया में प्रारंभिक ब्रह्मांड के कण समूचे अंतरिक्ष में फैल गए। यह एक दूसरे से दूर भागने लगे। इस प्रकार ब्रह्मांड की रचना व प्रसार प्रारंभ हुआ।”
फ्रेड हायल ने “बिग बैंग” थ्योरी नाम दिया। डाॅ चतुर्वेदी ने इसी क्रम में अनेक वैज्ञानिकों के मत भी संग्रहीत किये और उन्हें प्रस्तुत किया है। जैसे एडविन हबल, केइटी मार्क, एलबर्ट आइंस्टाइन, अलेक्जेंडर फ्रेडमैन, जोडी लेयाइट्रा, फेडहोसले तथा राबर्ट विल्सन आदि।
ऐसा माना जाता है कि अतीत में ब्रह्मांड सघन और गर्म था। पूरा ब्रह्मांड एक बिंदु में समाहित था। इस छोटे से बिंदु से पूरे ब्रह्मांड का उद्भव हुआ है। ब्रह्मांड के प्रारंभिक विस्तार के बाद ब्रह्मांड के जमने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। इस कारण से सबएटॉमिक कणों की रचना हुई। यह सबएटॉमिक कण इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन से मिलकर बने थे। इन कणों की बहुलता से हाइड्रोजन का निर्माण हुआ। बाद में हीलियम और लिथियम का निर्माण हुआ। कणों के संगठित होने पर तारों और ग्रहों का निर्माण हुआ। इनमें मौजूद भारी पदार्थों का इन तारों या सुपरनोवा के अंदर विश्लेषण हुआ और इसके बनने में भी इन प्रतिक्रियाओं की भारी भूमिका रही। इसलिए “बिग बैंग” सिद्धांत ब्रह्मांड की प्रारंभिक अवस्था या उत्पत्ति की व्याख्या नहीं करता, किंतु ब्रह्मांड के सामान्य क्रमिक विकास को ही दर्शाता है। इसी गुत्थी को सुलझाने के लिए डाॅ चतुर्वेदी ने कुछ विलक्षण वैज्ञानिक, ब्रह्मांड खगोलीय तथा दार्शनिक सिद्धांतों को भी प्रस्तुत किया है। इनकी संख्या दस है। ये सभी दस सिद्धांत अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत किए गए हैं। इसी क्रम में डाॅ चतुर्वेदी सृष्टि के विनाश, लय अथवा प्रलय के विषय पर भी विभिन्न वैज्ञानिकों और धर्मों की मान्यताओं को भी अपने लेख का विषय बनाते हैं।
“सृष्टि का लय” शीर्षक में डाॅ शरद चतुर्वेदी ने सर्वप्रथम भारतीय सांस्कृतिक मत की विस्तृत चर्चा की है। इसके उपरांत यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म की मान्यताओं को प्रस्तुत किया है तथा अंत में “वैज्ञानिक पक्ष व कथन” शीर्षक में खगोल वैज्ञानिकों का अनुमान भी प्रस्तुत किया है। आधुनिक वैज्ञानिक अन्वेषण व शोध में अनवरत संलग्न है, किंतु तीन प्रमुख कारण सृष्टि के लय के संबंध में वैज्ञानिकों ने कल्पित किए हैं। यथा, सूर्य के अत्यधिक गर्म हो जाने पर पृथ्वी जीवन रहित होकर एक जली हुई चट्टान की तरह रह जाएगी। एक भयंकर ध्वनि के साथ ब्रह्मांड समाप्त हो जाएगा। अत्यधिक शीत के कारण ब्रह्मांड जम जाएगा।
हम ग्लोबल वार्मिंग की चर्चा और चेतावनी आए दिन सुनते हैं। भय इस बात का है कि यदि ग्लोबल वार्मिंग इतनी बढ़ गई कि ध्रुव प्रदेश की बर्फ भारी मात्रा में पिघल गई, तो दुनिया की संपूर्ण आबादी कई मीटर पानी में डूब जाएगी अर्थात अत्यधिक ताप और परिणामतः जल प्रलय का भय व्यक्त किया जाने लगा है। हम आप कभी नहीं चाहेंगे कि प्रलय जैसा समय कभी भी आए।
पुस्तक के अंतिम अर्थात 34वें अध्याय में “रामचरितमानस” पर चर्चा है। डाॅ चतुर्वेदी ने मूल रूप से दो प्रथक प्रेस में मुद्रित प्रतियों में पाठान्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनके पास अपने पूर्वजों से प्राप्त लिथो प्रेस बनारस से मुद्रित रामचरितमानस है और गीता प्रेस गोरखपुर की रामचरितमानस सहित अनेक रामायण का संग्रह है। बहुत सारे संदर्भ प्रस्तुत करते हुए उनका संक्षिप्त निष्कर्ष है कि, “श्री गोस्वामी जी ने समाज को संगठित करने का कार्य किया है, न कि विघटन का और वह भी अपनी लेखनी और कवित्व क्षमता से। हमें उनके प्रति उपकृत होना चाहिए। गोस्वामी जी के समय अकबर का शासन था। सनातन धर्म पर निरंतर आघात होते चले आ रहे थे और हो रहे थे। इस पर विडंबना यह थी कि सनातनी समाज भी स्वयं में शैव, वैष्णव और शाक्त समूहों तथा इनकी अनेक उपशाखाओं में विभक्त हो चुका था। वैमनस्य की स्थिति आपसी संघर्ष तक पहुँच जाती थी। गोस्वामी तुलसीदास ने शैव, वैष्णव तथा शाक्त समुदायों को समान स्तर पर लाकर वैमनस्य समाप्त कराया। उपरोक्त विषम परिस्थितियों में श्री गोस्वामी जी ने अपनी अद्भुत विचारशीलता, कल्पनाशीलता एवं काव्य क्षमता से जनसाधारण को ग्राह्य सरल भाषा में रामचरितमानस की रचना की, जिसकी सामान्य जनमानस तक संदेश पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका रही और आज भी है।”
“ऋषि परम्परा के वैज्ञानिक और उनके अन्वेषण” खंड में डाॅ चतुर्वेदी इस सत्य का स्मरण कराने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं कि भारत के प्राचीन ग्रंथों में अनेक वैज्ञानिक सिद्धांतों और सूत्रों आदि का उल्लेख है, जो उत्तरोत्तर उद्घाटित हो रहे हैं। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि गुरुत्वाकर्षण की सर्वप्रथम जानकारी भास्कराचार्य ने दी। भास्कराचार्य ने “सिद्धांत शिरोमणि”, “लघु भास्करीय” तथा “महाभास्करीय” ग्रंथों की रचना की। डाॅ चतुर्वेदी ने जिन ऋषि वैज्ञानिकों की उपलब्धियों की चर्चा अपने लेख में की है, उनमें महर्षि विश्वामित्र, ऋषि अगस्त्य, ऋषि भारद्वाज, अश्विनी कुमार, ऋषि कणाद, बौधायन, पतंजलि, वाराहमिहिर, आचार्य सुश्रुत तथा महर्षि चरक आदि हैं। डाॅ चतुर्वेदी आशा करते हैं कि अब पुनर्जागरण का समय आ गया है। हमें अपने पूर्वजों के वैज्ञानिक ज्ञान और अनुसंधान को सहेज कर रखना ही होगा।
डाॅ शरद चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक के छह खंडो मे वेदों के अध्ययन प्रस्तुत किए हैं और यह भी इंगित किया है कि वेदों में रोगों के नाम और उपचार का उल्लेख है। इसी क्रम में “भारतीय ज्ञान एवं दर्शन के अप्रतिम ग्रंथ” खंड में अनेक ग्रंथों में वर्णित वैज्ञानिक अनुसंधानों पर गंभीर चर्चा की है। “मांगलिक चिन्ह स्वास्तिक”, “मानव धर्म”, “हमारी प्राचीन वैमानिक कला”, “आर्यों के मूल निवास”, “स्वर्ग एक धारणा अथवा वास्तविकता” जैसे अछूते विषयों सहित “हिन्दू शब्द की व्युत्पत्ति” विषय पर भी अद्भुत, अनोखे तथा वैज्ञानिक चिंतन एवं शोध के आधार पर नयी अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं।
बाँदा निवासी होने के कारण “बाँदा गौरव” शीर्षक वाले खंड में डाॅ शरद चतुर्वेदी ने बताया है कि अब तक चारों युगों में बाँदा में अध्यात्मिक, धार्मिक, ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक कृतित्व एवं पुरातन सभ्यता के दिग्दर्शन कराने वाले अप्रतिम साहित्य की रचना हमारे ऋषियों और मनीषियों ने की है। जैसे वैदिक युग में महर्षि वामदेव, त्रेतायुग में महर्षि वाल्मीकि, द्वापर युग में महर्षि वेदव्यास तथा कलियुग में गोस्वामी तुलसीदास का योगदान उल्लेखनीय है। यहाँ के विशेष स्थानों में ऋषि वामदेव नगरी, कालिंजर सहित अन्य अनेक दुर्ग तथा चित्रकूट का महत्व अनेक ग्रंथों में है। कालिंजर दुर्ग के शासक कीर्ति सिंह की पुत्री वीरांगना दुर्गावती का यशोगान इतिहास की किताबों में दर्ज है, जिसने अकबर जैसे महान शासक के छक्के छुड़ाकर एक इतिहास रच दिया।
अपने आत्मकथ्य में डाॅ शरद चतुर्वेदी ने अपनी पीड़ा और व्यथा व्यक्त करते हुए कहा है कि, “मुगल आक्रान्ताओं और ब्रिटिश शासकों ने हमारी सांस्कृतिक धरोहर को छिन्न भिन्न भिन्न कर दिया और हमें अपनी वैज्ञानिक संस्कृति और पूर्वजों की उपलब्धियों को जानने का अवसर ही नहीं मिला। विडंबना है कि भारत को स्वतंत्र हुए 76 वर्ष हो गए, लेकिन हम अब भी अपने पाठ्यक्रमों में अपने ऋषि वैज्ञानिकों और शोध कर्ताओं का नाम सम्मिलित नहीं कर पाए। अपनी इस प्रस्तुति में मेरा इसी दिशा में एक लघु प्रयास है।”
निश्चित रूप से “सनातन संस्कृति एवं अध्यात्म में वैज्ञानिक अनुसंधान” एक अद्भुत, अनूठी, अतुलनीय, पठनीय तथा संग्रहणीय पुस्तक है। हर जिज्ञासु और वैज्ञानिक चेतना वाले पाठक को यह पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहिए और सहेज कर रखना चाहिए। किसी भी द्रष्टि से यह धार्मिक पुस्तक हरगिज नहीं है, बल्कि शुद्ध वैज्ञानिक अनुसंधान परक शोध पुस्तक है। यह पुस्तक कनाडा से प्रकाशित हुई है और भारत में इसके वितरक हैं~ “पुस्तक भारती” ~ 168, नेहियान, वाराणसी।
80 वर्षीय जिज्ञासु शोधार्थी वैज्ञानिक एवं चिकित्सक डॉक्टर शरद चतुर्वेदी ने लगभग 50-55 वर्षों तक हिंदी, संस्कृत तथा अंग्रेजी के सैकड़ो धार्मिक, अध्यात्मिक तथा वैज्ञानिक ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद अध्यात्म में वैज्ञानिक तत्वों और तथ्यों का अनुसंधान किया है। संभवत इस तरह का अद्भुत और अनूठा प्रयास किसी विद्वान ने पहली बार किया है। यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि समय समय पर उनके अनेक शोध लेख पर देश-विदेश की हिन्दी और अंग्रेजी की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, जिनकी सूची बहुत लंबी है।
*संपादक, मुक्ति चक्र, बाँदा, दिल्ली