दो टूक
– रमेश चंद शर्मा
मानव की मानसिकता
लाखों साल के बाद मानव इस स्थिति, मानसिकता, भाव तक पहुंचा है। एक ओर प्रेम, करुणा, सच, निर्भर, निर्विकार, निर्वैर, पक्षमुक्त, स्वावलंबन, संस्कार, आत्मबल, सहयोग, सहकार, शांति, सदभावना, सौह्रार्द, साझापन, एकजुटता, समझदारी, व्यापकता, पारदर्शी, शरीर, श्रम, प्रतिष्ठा, मेहनतकश, धर्म, आध्यात्म, ज्ञान, विज्ञान, शुभ मंगलमय कल्याणकारी मुबारक संकल्प समर्पण, स्पष्टता, सहजता, सरलता, असंग्रह, मानवता, दया, परहित, सरस, सलिल, साथ, समता, न्याय, सनातन, दिव्य, मानवीय, भाव, के प्रयोग कर आगे बढ़ा।
दूसरी ओर मानव डर, नफरत, द्वैष, कड़वाहट, अलगाव, हिंसा, युद्ध, भूख, भय, भेद भाव, भ्रष्टाचार, मारकाट, झूठ, जुमले, अफवाह, लोभ, लालच, लूट, शोषण, लड़ाई, कब्जा, संग्रह, छीनाझपटी, अत्याचार, अन्याय, असमानता, संकुचन, छोटापन, अहंकार, अहम, भाव, की दलदल में शामिल है।
अपने व्यस्त कार्यक्रमों से थोड़ा समय निकाल कर ज़रा इन बातों पर भी गौर कीजिये:
मानव प्रकृति के शोषण दोहन में शामिल हैं।
विकास विज्ञान के नाम पर विध्वंस की अंधी दौड़ में लगा है।
मानव मानव के साथ के व्यवहार में निम्नस्तर नीचता बेशर्मी ढिठाई की हद तक जा रहा है।
एक ओर शिक्षा साक्षरता बढ़ी मगर ज्ञान समझ संस्कार आत्मबल गायब।
स्वास्थ्य सेवा का बाजार पूंजीकरण के चक्कर में बेहद व्यापक रूप में छा गया मगर स्वास्थ्य गायब।
पुलिस प्रशासन सुरक्षा बलों की बाढ़ आई मगर सुरक्षा गायब।
बाड़ ही खेत को उजाड़ने खाने लगी।
जल, वायु, हरियाली पेड़ पौधे वनस्पति पर्यावरण का भंयकर प्रदूषण नियंत्रण के बाहर।
जीने के लिए आवश्यक तत्वों का विकार शिकार विनाश करने में खुद शामिल।
मौसम का मिजाज बेकाबू होता जा रहा है।
ऋतुएं अपनी हदों को छोड़ने को मजबूर की जा रही है।
नए नए फरेब हथकंडे चालें अपनाई जा रही है।
सत छोड़ सत्ता महाठगिनी को परम माना जा रहा है।
पैसा परमात्मा बनाया जा रहा है।
सरकारें सशक्त एवं जन कमजोर बनाए जा रहे हैं।
साम्राज्यवाद पूंजीवाद निजीकरण के नए अवतार पैदा किए जा रहे हैं।
क्या इन सभी के लिए हम आप जिम्मेदार नहीं हैं? यदि हाँ तो फिर कब तक हम अपनी इन जिम्मेदारियों से बचते फिरेंगे? याद रखें कहीं अंत में हमें बस यह कहना पड़े की अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत। काश ऐसी नौबत नहीं आये।