जगम्मनपुर (जालौन): कभी उत्तर प्रदेश से कोलकाता तक कपड़ा छपाई के लिए बुंदेलखंड के जनपद जालौन में स्थित जगम्मनपुर की प्रसिद्ध तकनीक आधुनिक विकास की अंधाधुंध दौड़ में विलुप्त हो गई है।
आज जो लोग 50 वर्ष या उससे अधिक आयु के लोग हैं उन्हें स्मरण होगा कि वर्ष 1980 तक कक्षा 5 में एक पुस्तक थी जिसका था नाम “हमारा देश – हमारा समाज” जिसमें पढ़ाया जाता था कि जगम्मनपुर क्यों प्रसिद्ध है? पुस्तक में लिखा होता था कि जगम्मनपुर में कपड़ों पर छपाई का उच्च स्तरीय कार्य होता है एवं यहां का किला प्रसिद्ध है।
बुंदेलखंड में 18 व 19वीं सदी का विकसित कस्बा जगम्मनपुर राजतंत्र युग में सेंगर क्षत्रिय राजाओं की राजधानी होने के कारण संपूर्ण सुख सुविधाओं एवं समृद्धि से संपन्न था। यहां अनेक प्रकार की हस्तकला उद्योग एवं कुटीर उद्योग फल फूल कर जनपद जालौन ही नहीं बल्कि बुंदेलखंड का गौरव बढ़ा रहे थे ।
परन्तु आज जगम्मनपुर के बड़ी माता मोहल्ले में उस स्थान पर जहां जो लोग देशी रियासतकाल में कपड़ा छपाई का कार्य करते थे अब वह तो नहीं रहे लेकिन उनके वंशज अवश्य मिले।
अपनी उम्र के 70 वसंत देख चुके दयाराम साध्या ने बताया की आज से लगभग 55-60 वर्ष पहले जगम्मनपुर में रजाई व कालीन छापने का काम होता था जो बुंदेलखंड का प्रसिद्ध उद्योग था। जगम्मनपुर की छपी हुई रजाई एवं कालीन की कोलकाता के बाजार में बहुत मांग थी। जगम्मनपुर में लगभग आधा सैकड़ा परिवार कपड़ा छापने का काम करते थे कपड़ा छापने के कारण इनकी जाति को छीपा कहा जाता था।
इस काम को पूरा होने के लिए बड़ी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। सर्वप्रथम जगम्मनपुर के कोरी जाति के लगभग 40-50 परिवार बाबरपुर बाजार से धागा लाकर बड़े स्तर पर कपड़ा बुनाई का कार्य करते थे। बुनकरों द्वारा बनाए गए कपड़े को धोबियों के द्वारा धोया जाता था तदुपरांत उसे छपाई के लिए लाया जाता था।
जगम्मनपुर में छीपा परिवार के लोग विशेष तकनीक से रंग बनाते थे। रंग बनाने की तकनीक पूछने पर दयाराम ने बताया कि कोंच नगर से आल (उस समय की कोई रंग निर्माता कंपनी रही होगी) का रंग आता था जिसे भट्टी पर उबलते पानी में डालकर कई प्रकार के रंग बनाए जाते थे जैसे काले रंग को बनाने के लिए पुराने लोहे को जलाकर गोंद, कतीला, मेथी आदि को मिश्रित करके जल में डालते थे। लाल रंग के लिए गेऊरी (लाल मिट्टी) के द्वारा कपड़े को कच्चा रंगकर सुख लेने के बाद तांबे के बड़े कड़ाव जिसे तम्हेड़ा कहते थे उसमें गर्म पानी कर आल के रंग डालकर कपड़े को खोलने पानी में डाल देते थे इसमें हर्रा के पानी का उपयोग भी होता था।
छपाई प्रक्रिया में लकड़ी के विभिन्न डिजाइन के सांचों से अनेक प्रकार के रंगों का उपयोग करके कपड़े पर ठप्पा लगाकर छापते थे। उक्त प्रक्रिया अर्थात आल के रंग युक्त पानी में कपड़े को उबाल दिया जाता था जिससे रंग पक्का हो जाता था। ठंडा होने पर कपड़े को सूखने के लिए फैला दिया जाता बाद में ढाई हाथ चौड़ी व साढ़े तीन हाथ लंबी रजाई एवं 20-20 हाथ की नाप के जमीन पर बिछाए जाने वाले फर्स (उस समय के देसी कालीन) तैयार कर लेते थे।
घर के सदस्यों की संख्या के अनुपात से एक परिवार में प्रतिदिन एक दो फर्ज और दो-तीन रजाई तैयार हो जाती थी जिन्हें एकत्र करके उस समय के परिवहन साधन घोड़ा अथवा ऊंट पर लाद कर इटावा एवं औरैया बाजार ले जाया जाता था जहां से उसे दूर के बाजारों में भेजा जाता था। उस समय सब कुछ बहुत सस्ता था। 20 या 25 रुपया का फर्श एवं 15 से 20 रुपए की एक रजाई बिक जाती थी।
पुराने समय को याद कर आह भरते हुए पचासी वर्षीय बाबू साध्या एवं उनकी पत्नी राधा देवी ने बताया उस समय उनके द्वारा तैयार कपड़े का रंग बहुत उम्दा किस्म का होता था। उस समय वह भले ही बहुत कम मूल्य पर बिकता हो, लेकिन सामान्यतः सभी लोगों की आवश्यकताएं सीमित और बाजार में सभी वस्तुएं सस्ती होने पर लोगों की जरूरत भर मजदूरी हो जाती थी। “हम सब सन्तुष्ट और सुखी थे। लेकिन समय बदल गया और महंगाई के कारण बच्चे अपनी जरूरत की पूर्ति हेतु अधिक धन कमाने के लिए शहरों की ओर चले गए और वहीं जाकर बस गए परिणामस्वरूप हम लोगों का पैतृक उद्योग पूर्णता समाप्त हो गया।”
60 वर्षीय पूरन साध्या एवं मनोज साध्या ने पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा की सरकार गृह उद्योग पर बल देकर उन्हें बढ़ावा दे रही है। जनपद जालौन के ही कालपी के कागज उद्योग को जीवित रखने के लिए सरकार द्वारा उद्यमियों को बहुत अधिक आर्थिक सहायता दी गई इसी प्रकार यदि जगम्मनपुर के कपड़ा छपाई उद्योग को जीवित रखने के लिए सरकारी प्रोत्साहन मिलता तो यहां की यह उत्कृष्ट कला विलुप्त ना होती और वर्तमान पीढ़ी को कैमिकल रहित पारम्परिक ढंग से बने सुंदर डिजायन युक्त कपड़े उपलब्ध हो रहे होते।
*वरिष्ठ पत्रकार