
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दोबारा पद संभालने के बाद अपने देश को पेरिस जलवायु संधि से अलग कर लिया है। पेरिस समझौते से बाहर निकलने का मतलब है कि अमेरिका को अब अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर वार्षिक आंकड़े जारी करने की आवश्यकता नहीं है। साथ ही पेरिस समझौते से अमेरिका के हटने से विकासशील देशों को जलवायु वित्त देने के लिए अमेरिका की कानूनी ज़िम्मेदारियां कमज़ोर होंगी, अमेरिका की जलवायु कार्रवाई योजना कमज़ोर होगी, उनके जलवायु लक्ष्यों की निगरानी और रिपोर्टिंग में कमी आएगी और जलवायु शमन और अनुकूलन प्रयासों में कमी आएगी। इनके अलावा अमेरिका का यह कदम अंतरराष्ट्रीय समुदाय में एक बुरा उदाहरण स्थापित करेगा। जलवायु मुद्दे को एक उदाहरण के रूप में लेते हुए, कुछ देश जो उत्सर्जन को कम करने या आर्थिक परिवर्तन के दबाव का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं, वे उत्सर्जन में कमी की प्रतिबद्धताओं को नकारात्मक रूप से देखने के लिए अमेरिका से प्रभावित हो सकते हैं, या यहां तक कि वापस लेने की उसकी गति का अनुसरण कर सकते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन के वास्तविक खतरे से निपटने के वैश्विक प्रयासों को नुकसान पहुंच सकता है।
पेरिस समझौते में अमीर देशों ने जलवायु शमन और अनुकूलन के लिए 2020 तक विकासशील देशों को कम से कम 100 बिलियन डॉलर प्रति वर्ष प्रदान करने की प्रतिबद्धता जताई थी। उन्होंने अनुकूलन वित्त को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाने पर भी सहमति व्यक्त की। हालाँकि दोनों लक्ष्यों पर प्रगति हुई है, लेकिन फिर भी कम है। अमेरिका के हटने से वित्तीय सहायता पर भी असर पड़ेगा।
ट्रम्प से पहले जो बाइडन सरकार ने विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा अपनाने और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करने के लिए धन दिया था जो कि वायदा के अनुसार कम था। आशंका है कि अमेरिकी सरकार इसमें कटौती करेगी। अमेरिका के इस कदम से कमजोर देशों की स्थिति और भी ज़्यादा मुश्किल हो जाएगी। उनके इस कदम से जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए प्रयास करने वाले और इसके विनाशकारी प्रभावों से जूझ रहे लोगों के लिए दुखद है और उनके इस फैसले ने पर्यावरणविदों को निराश किया है।
उन्होंने आदेश पर हस्ताक्षर करने से पहले इस वैश्विक समझौते को अनुचित व एकतरफा करार दिया। ज्ञात हो कि राष्ट्रपति ट्रंप ने 2017 में अपने पहले कार्यकाल में भी इस संधि से अमेरिका को अलग कर लिया था लेकिन जो बाइडन ने राष्ट्रपति बनते ही अमेरिका को पुनः इस संधि का हिस्सा बना दिया था। दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप का मानना है कि चूंकि दूसरे कई देश बेखौफ प्रदूषण फैला रहे हैं ऐसे में अमेरिका इस संधि में शामिल होकरअपने उद्योगों को हानि नहीं पहुंचाएगा।उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल में यहां तक कहा था कि संयुक्त राष्ट्र की “हरित जलवायु निधि” अमेरिका से धन हथियाने की साजिश है।
पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन को लेकर एक महत्वपूर्ण समझौता है। ये तापमान को नियंत्रित करने के उपायों संबंधी योजना है। वर्ष 2015 में 196 देशों ने पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और यह जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए पहला व्यापक वैश्विक समझौता है। पेरिस समझौते पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने न केवल दस्तखत किए थे बल्कि संधि के प्रावधानों का अनुमोदन भी किया था। हालांकि यह समझौता कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि नहीं है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय में 2015 में हुए ऐतिहासिक पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को ट्रम्प के निर्णय से बहुत बड़ा झटका लगा है।
पेरिस संधि के अन्तर्गत लगभग 200 देशों ने वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे और आदर्श रूप से 1.5 डिग्री से नीचे रखने के लिए प्रतिबद्धता जताई थी। हाल में अज़रबैजान की राजधानी बाकू में आयोजित हुए कॉप 29 शिखर सम्मलेन में जीवाश्म ईंधन पर अंकुश लगाने का निर्णय लिया गया था जबकि ट्रंप जीवाश्म ईंधन के प्रबल पक्षधर रहे हैं। इसलिए वह पर्यावरण संकट को कोई खतरा न मानते हुए इसे पर्यावरणविदों द्वारा खड़ा किया गया एक हौवा भर मानते हैं। ट्रंप और उनके समर्थक नेताओं का समूह अधिकतम जीवाश्म ईंधन पैदा करने की वकालत करते रहे हैं।
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में चीन के बाद अमेरिका दुनिया में दूसरे नंबर पर है। अमेरिकी सरकार के इस फैसले पर चीन ने कहा कि वह इस घोषणा को लेकर चिंतित है। जलवायु परिवर्तन समस्त मानव जाति के सामने चुनौती है। यूरोपियन संघ के जलवायु नीति प्रमुख वोपके होकेस्ट्रा ने अमेरिकी राष्ट्रपति के फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए समझौतों को ट्रंप जैसे लोग अपनी आत्म केंद्रित दृष्टि के चलते खारिज करते जाएंगे तो न तो भविष्य में संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्थाओं का कोई महत्व रह जाएगा और न ही वैश्विक समस्याओं पर आगे कोई सहमति बन पाएगी। अपने औद्योगिक हितों की चिंता और चुनावी वादे की सनक पूर्ति के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ने यह पहल की है। दरअसल ट्रंप अमेरिकी कंजर्वेटिव पार्टी के उस गुट से सहमत रहे हैं जो मानता है कि जलवायु परिवर्तन और बढ़ता वैश्विक तापमान केवल आशंका है। इसलिए ये लोग कार्बन उत्सर्जन में कटौती से अमेरिका के औद्योगिक हित प्रभावित होने की पैरवी करते रहे हैं।