– शङ्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती*
संसार में अधिकांश लोग सुख की खोज में भटक रहे हैं। यह सुख कहीं किसी विशेष स्थान पर रखी हुई कोई वस्तु नहीं, जिसे जाकर प्राप्त किया जा सके। सुख चाहने वाले को अपने अन्दर सत्वगुण को बढा लेना चाहिए।सत्वगुण यदि आपमें बढ़ गया तो सुख ही सुख हो जाएगा।
तीन गुण हैं – सत्व, रज और तम। सत्वगुण जब बढ़ता है तो व्यक्ति शान्त और सुस्थिर रहता है। रजोगुण बढ़ता है तो व्यक्ति कर्म में प्रवृत्त होता है और तमोगुण बढ़ता है तो व्यक्ति आलस्य और प्रमाद करने लगता है। संसार में लोगों के कार्यों को देखते हुए हम व्यक्तियों में इन गुणों की न्यूनता या अधिकता का अनुमान लगा सकते हैं।
धर्म स्वाभाव है। यह धर्म धर्मी में निहित रहता है। जिस प्रकार आग से उसकी दाहकता अलग नहीं की जा सकती वैसे ही धर्मी से भी धर्म को पृथक् नहीं किया जा सकता।
अपने धर्मशास्त्रों में किसी भी दशा में अथवा किसी के भी लिए धर्म को न छोड़ने की शिक्षा दी गयी है। परधर्म को भयावह कहा गया है। यहां परधर्म का अर्थ आज के अनुसार दूसरे का (मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि) नहीं हैं। यहां परधर्म से तात्पर्य वर्णाश्रम धर्म से है। इसका अर्थ यह है कि जो जिस वर्ण और आश्रम में स्थित है उसे उसी धर्म के अनुसार जीवनयापन करना चाहिए। ब्राह्मण को क्षत्रिय आदि अन्य वर्णों के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिए और इसी प्रकार अन्यों को भी।
बुद्विमान वही हैजो इहलोक में रहते अपना परलोक भी सुधार ले। सनातन धर्म सदा से ही समग्रता की बात करता है। इसमें कोई भी बात एकांगी नहीं है।इहलोक के साथ-साथ परलोक की भी चिन्ता हमारे धर्मशास्त्र करते हैं। हम सभी को इस लोक में अपने अभ्युदय के लिए प्रयत्न करते हुए परलोक को भी सुधारने का प्रयास कर लेना चाहिए।
यह भी पढ़ें:
- ज्ञान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है
- चार ही सार तत्व हैं – काशी का वास, सज्जनों का संग, गंगाजल और भगवान शिव
- लोग यह समझते हैं कि धन के अर्जन से सुख की प्राप्ति हो जाएगी परन्तु संस्कृत के एक श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और फिर धर्म से सुख होता है। यह प्रक्रिया साफ बताती है कि धन से जब व्यक्ति धर्म करेगा तभी उसे सुख प्राप्त होगा। सीधे धन से सुख नहीं पाया जा सकता।
सामान्य और विशेष – दो प्रकार के धर्म हैं । इनमें भी 37 प्रकार के सामान्य धर्म हैं जिसका पालन कोई भी कर सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार के धर्म है जो तत् तत् विशेष जनों के लिए उल्लिखित हैं।
संस्कृत का आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है। जिस देश का आदर्श वाक्य संस्कृत में हो वह देश स्वतः ही हिन्दू राष्ट्र हो जाता है। इसके लिए अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो इस बात का कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन को धर्ममय बनाया जाए। जब भारत का प्रत्येक व्यक्ति धर्ममय जीवन जीने लगेगा तो अपने आप ही यह देश हिन्दू राष्ट्र हो जाएगा। केवल नामकरण कर देने से हिन्दू राष्ट्र नहीं होगा।
सौजन्य: सजंय पाण्डेय, मीडिया प्रभारी ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य।