जैव विविधता की चीख: जंगल खोकर सांसों पर संकट
हर गिरता पेड़ हमारी सांसों का हिस्सा ले जाता है, फिर भी जंगल तेजी से सिमट रहे हैं। पर्यावरण, पारिस्थितिकी, जैव विविधता, कृषि, भूमि की दीर्घकालिक स्थिरता और मानव जीवन खतरे में हैं। संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी है कि हर साल एक करोड़ हेक्टेयर जंगल लुप्त हो रहे हैं, मानो धरती का हरा आंचल फट रहा हो। 1990 से 2020 के बीच 42 करोड़ हेक्टेयर जंगल खत्म हुए, और बीते दो दशकों में 78 मिलियन हेक्टेयर पहाड़ी जंगल नष्ट हो चुके हैं, जो 85 फीसदी पक्षियों, स्तनधारियों और उभयचरों का घर हैं।
एशिया में 39.8 मिलियन हेक्टेयर जंगल गंवाने के साथ सबसे आगे है, उसके बाद उत्तरी अमेरिका (18.7 मिलियन), दक्षिणी अमेरिका (8.3 मिलियन) और अफ्रीका (6.4 मिलियन) हैं। दुनिया के आधे से अधिक जंगल रूस (81.5 करोड़ हेक्टेयर), भारत (80.9 करोड़), ब्राजील (49.7 करोड़), कनाडा (34.7 करोड़) और अमेरिका (31 करोड़) में हैं। हर साल जर्मनी, आइसलैंड, डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड जैसे देशों के बराबर जंगल खत्म हो रहे हैं। लंदन के थिंक टैंक एनर्जी ट्रांसमिशन कमीशन के मुताबिक, हर मिनट दस फुटबॉल मैदान जितने जंगल कट रहे हैं।
भारत में 2023 में 21,672 हेक्टेयर और 2022 में 21,839 हेक्टेयर जंगल नष्ट हुए। 2001 से 2023 तक 23.3 लाख हेक्टेयर जंगल गायब हो गए। 2015 से 2020 के बीच 6,68,400 हेक्टेयर वनों का खात्मा हुआ, जो ब्राजील के बाद दूसरा सबसे बड़ा आंकड़ा है। 2013 से 2023 के बीच 95 फीसदी जंगल अवैध कटाई और आग से नष्ट हुए। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश में आग से जंगल सबसे ज्यादा तबाह हुए। भारत में बीते पांच-छह सालों में नीम, जामुन, शीशम, महुआ, पीपल, बरगद और पाकर जैसे पांच लाख से अधिक छायादार पेड़ों का अस्तित्व मिट गया, जैसा कि कोपेनहेगन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने बताया।
धरती का फेफड़ा कहलाने वाले अमेजन के जंगल विनाश के कगार पर हैं। बढ़ते तापमान, भयावह सूखा, वनों की अंधाधुंध कटाई और आग की घटनाओं ने 10 से 47 फीसदी हिस्से को खतरे में डाल दिया है, और 18 फीसदी पहले ही नष्ट हो चुका है। जर्नल नेचर के शोध के अनुसार, 2050 तक अमेजन का आधा हिस्सा सवाना बन सकता है। ब्राजील में जंगल विनाश सबसे अधिक है, फिर कांगो और बोलीविया का नंबर आता है। पर्यावरणविद् बर्नार्डों फ्लोर्स कहते हैं कि खतरे के दायरे में पहुंचने के बाद हमारे पास कुछ नहीं बचेगा।
मानव के लोभ ने प्रकृति के साथ इतनी छेड़छाड़ की है कि इसका दुष्परिणाम मौसम में आए भीषण बदलाव, पारिस्थितिकी तंत्र और आर्थिक-सामाजिक ढांचे के चरमराने के रूप में सामने आया है। वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और वनस्पति व जीव विज्ञानी चेता रहे हैं कि पुरानी स्थिति लौटाने का समय बहुत कम बचा है, और यह टेढ़ा काम है, क्योंकि वापसी की उम्मीद केवल पांच फीसदी से कम है। यदि वनों की कटाई पर अंकुश नहीं लगा, तो प्रकृति की लय बिगड़ जाएगी और वैश्विक तापमान में दो डिग्री की बढ़ोतरी रोकना असंभव होगा। इससे सूखा, स्वास्थ्य संकट और आर्थिक नुकसान बढ़ेगा, जिसकी भरपाई असंभव होगी।
पेड़ गर्मी से राहत, जैव विविधता को स्थिरता, कृषि को ताकत, सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुरक्षा और जलवायु को संतुलन देते हैं। अमरीका की ए एंड एम यूनिवर्सिटी का अध्ययन कहता है कि 100 मीटर के दायरे में पेड़ों की मौजूदगी मानसिक तनाव कम करती है। 6.13 करोड़ मानसिक रोगियों पर हुए शोध में पाया गया कि हरियाली के बीच रहने वालों में अवसाद की आशंका कम होती है। प्रोफेसर एंड्रिया मेचली कहती हैं कि जैव विविधता प्राकृतिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए जरूरी है।
जैव विविधता वाली जमीनों पर कब्जे बढ़ रहे हैं, खासकर उप सहारा अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, मध्य पूर्वी यूरोप और दक्षिणी एशिया में। 2008 के बाद से ये घटनाएं बढ़ी हैं, जिससे भूमि असमानता, किसान विद्रोह, ग्रामीण पलायन, गरीबी और खाद्य असुरक्षा बढ़ रही है। कंपनियां ऊर्जा, उत्पाद और सामग्रियों के लिए जैव विविधता पर नजर रख रही हैं, और 2030 तक 400 अरब डालर का निवेश होगा, जो मौजूदा समय से 20 गुना ज्यादा है।
ग्लासगो के काप-26 में 144 देशों ने 2030 तक जंगलों को बचाने का संकल्प लिया, लेकिन इसके लिए 900 अरब डालर चाहिए, जबकि अभी तीन अरब डालर खर्च हो रहे हैं। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी की वैज्ञानिक रैसल गैरेट कहती हैं कि 130 अरब डालर सालाना चाहिए। यदि 2030 तक वनों की कटाई पर काबू नहीं पाया गया, तो कार्बन उत्सर्जन से पर्यावरणीय समस्याएं और विकराल हो जाएंगी।
2004 के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता केन्या की पर्यावरणविद् बंगारी मथाई ने कहा था कि जल, जंगल और जमीन आपस में गहरे जुड़े हैं। प्राकृतिक संसाधनों का उचित प्रबंधन आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इसके बिना शांति कायम नहीं हो सकती। नोबेल शांति समिति भी पर्यावरण, लोकतंत्र और शांति के अंतरसंबंधों को मानती है। संसाधनों के बिना गरीबी से लड़ना और शांति कायम करना असंभव है। यदि हम नहीं चेते, तो पुरानी झड़पें बढ़ेंगी और संसाधनों पर नई लड़ाइयां शुरू होंगी। मथाई ने महात्मा गांधी के शब्दों के साथ कहा, “मेरा जीवन ही मेरा संदेश है। एक पेड़ जरूर लगाएं।”
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

