ध्वनि प्रदूषण की बढ़ती मार
दिल्ली के पालम में रहने वाली रमा देवी हर सुबह ट्रैफिक के शोर से जागती हैं। उनके घर के पास हाइवे पर गाड़ियों के हॉर्न और इंजनों की आवाज दिन-रात गूंजती रहती है। “पहले यह सब आदत में था, लेकिन अब नींद नहीं आती, चिड़चिड़ापन और थकान रहती है,” रमा बताती हैं। उनकी यह शिकायत उन लाखों लोगों की तरह है, जो शहरों में बढ़ते ध्वनि प्रदूषण से जूझ रहे हैं। यह शोर अब केवल कानों को परेशान नहीं करता, बल्कि जीवन को छोटा कर रहा है, स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है, और मानसिक शांति छीन रहा है।
अमेरिका के मैसाचुसेट्स में हुए एक अध्ययन के अनुसार, न्यूयॉर्क में ध्वनि प्रदूषण के कारण लोगों की औसत आयु 10.2 महीने कम हो रही है। इसका सबसे बड़ा कारण कार, ट्रेन, और हवाई जहाज से होने वाला शोर है। भारत के महानगरों में भी हालात चिंताजनक हैं। दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में ट्रैफिक, रेल, और निर्माण कार्यों का शोर दिन-रात जारी रहता है। दिल्ली के ही रोहिणी के अजय कुमार, जो एक दुकान चलाते हैं, कहते हैं, “पास के हाइवे पर ट्रकों की आवाज से रात को नींद टूट जाती है। सुबह उठते ही सिर भारी लगता है।”
ब्रिटेन की स्वास्थ्य सुरक्षा एजेंसी के शोध के अनुसार, जो लोग नियमित रूप से ट्रैफिक या ट्रेन के शोर का सामना करते हैं, उन्हें नींद की कमी, तनाव, अवसाद, मधुमेह, और हृदय रोग का खतरा ज्यादा होता है। इस शोध में यह भी पाया गया कि सड़क यातायात के शोर से अच्छे स्वास्थ्य के एक लाख साल, ट्रेनों के शोर से 13,000 साल, और हवाई जहाज के शोर से 17,000 साल कम हो गए हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के अनुसार, 65 डेसीबल से अधिक का शोर ध्वनि प्रदूषण माना जाता है। 75 डेसीबल का शोर नुकसानदायक और 120 डेसीबल पीड़ादायक होता है। रात में 30 डेसीबल और दिन में 65 डेसीबल तक की आवाज को सुरक्षित माना जाता है। लेकिन शहरों में यह स्तर अक्सर पार हो जाता है। उदाहरण के लिए, एक बस का हॉर्न 90 डेसीबल, निर्माण कार्य में ड्रिलिंग 110 डेसीबल, और हवाई जहाज 140 डेसीबल तक शोर पैदा करता है। घरेलू उपकरण जैसे वाशिंग मशीन 70 डेसीबल, मिक्सर 85 डेसीबल, और डीजे की आवाज 100 डेसीबल तक पहुंचती है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, 53 डेसीबल तक का यातायात शोर स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव नहीं डालता, लेकिन इससे ऊपर का शोर खतरनाक है।
लंदन के सेंट जार्ज यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया कि ध्वनि प्रदूषण का असर केवल जागते समय नहीं, बल्कि सोते समय भी होता है। दिल्ली में रहने वाली ममता शर्मा, जिनके घर के पास एक निर्माण स्थल है, बताती हैं, “ड्रिलिंग की आवाज से मेरा बेटा रात में बार-बार जागता है। उसे पढ़ाई में ध्यान देने में दिक्कत होती है।”
वैज्ञानिकों का कहना है कि शोर से कोर्टिसोल हार्मोन बढ़ता है, जो लंबे समय तक शरीर में रहने पर दिल और दिमाग को कमजोर करता है। यह तनाव हार्मोन हृदय की धड़कन को बढ़ाता है और शरीर को तनाव की स्थिति में रखता है। 76 फीसदी लोग मानते हैं कि शोर उनकी याददाश्त पर असर डाल रहा है। शोध बताते हैं कि शोर के माहौल में रहने से पांच साल में हृदय रोग का खतरा बढ़ जाता है। लंबे समय तक शोर झेलने से डिमेंशिया और अवसाद का खतरा भी हो सकता है।
ध्वनि प्रदूषण का असर प्रजनन स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल की एक रिपोर्ट के अनुसार, लंबे समय तक शोर के संपर्क में रहने से पुरुषों में नपुंसकता और महिलाओं में बांझपन का खतरा बढ़ता है। मुंबई की सुनिता, जिनकी शादी को पांच साल हो चुके हैं, कहती हैं, “डॉक्टर ने बताया कि तनाव के कारण हमें बच्चा होने में दिक्कत हो रही है। हमारे घर के पास रात-दिन ट्रैफिक का शोर रहता है।”
ग्रामीण इलाकों में भी शोर का प्रभाव कम नहीं। उत्तर प्रदेश के एक गांव में रहने वाले रामलाल बताते हैं, “पहले हमारा गांव शांत था, लेकिन अब पास की फैक्ट्री की आवाज से रात को नींद नहीं आती।” शोध बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में अचानक तेज शोर का असर शहरों की तुलना में तीन गुना ज्यादा होता है। यूनाइटेड नेशंस ने शहरी ध्वनि प्रदूषण को पर्यावरण के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक बताया है।
शहरों में कुछ जगहों पर ‘सुपरलाक’ जैसे प्रयोग शुरू हुए हैं, जहां पैदल यात्रियों के लिए शांत क्षेत्र बनाए गए हैं। लेकिन रमा जैसे लोग कहते हैं, “ये काफी नहीं। सरकार को और सख्त कदम उठाने चाहिए।” राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) के निर्देशों और सरकारी आदेशों के बावजूद शोर का स्तर मानकों को पार करता जा रहा है। लोग अब जागरूक हो रहे हैं, लेकिन शोर का यह खामोश हमला रुकने का नाम नहीं ले रहा। व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर पर कदम उठाने की जरूरत है, ताकि जीवन की गुणवत्ता को बचाया जा सके।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।

