सारिस्का टाइगर रिजर्व
सारिस्का की सीमा पर सवाल, बाघों का घर खतरे में
जयपुर/नई दिल्ली: सारिस्का टाइगर रिजर्व की सीमाओं को पुनर्निर्धारित करने की योजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं ने पर्यावरण संरक्षण को लेकर गंभीर सवाल उठाए हैं। 6 अगस्त 2025 को सर्वोच्च न्यायालय ने इन याचिकाओं को स्वीकार कर लिया, जिसमें पर्यावरणविदों और जागरूक नागरिकों ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) और राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (एनडब्ल्यूबी) पर वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 का उल्लंघन करने का आरोप लगाया है। ये याचिकाएं स्वप्रेरणा रिट याचिका (सिविल) संख्या 1/2023 के तहत दायर की गई हैं, जो सारिस्का टाइगर रिजर्व और वहां स्थित पांडुपोल मंदिर के प्रबंधन से संबंधित है।
याचिकाकर्ताओं ने मांग की है कि 26 जून 2025 को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति और 23 जून 2025 को राजस्थान राज्य वन्यजीव बोर्ड के फैसलों को अवैध घोषित किया जाए। साथ ही, राजस्थान सरकार से सुप्रीम कोर्ट द्वारा बंद की गई खदानों का ब्योरा मांगा जाए, जो इस पुनर्निर्धारण से फिर से खुल सकती हैं। उन्होंने यह भी अनुरोध किया कि भविष्य में किसी भी डिनोटिफिकेशन या सीमा पुनर्निर्धारण के लिए वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972, वन अधिकार अधिनियम, 2006 और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सार्वजनिक चर्चा और ड्राफ्ट अधिसूचना की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से पूरी की जाए।
पीपल फॉर अरावली समूह की संस्थापक नीलम आहलूवालिया ने कहा, “हमें प्रसन्नता है कि भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश की पीठ ने हमारी हस्तक्षेप याचिका आई.ए. संख्या 185511/2025, पीपल फॉर अरावली एंड अदर्स, को स्वीकार किया है। यह याचिका हमारे समूह ने राजस्थान के तीन सक्रिय नागरिकों श्रीमती अदिति मेहता (सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी), सुमेर सिंह भाटी संवता (जैसलमेर ज़िले से) और कैलाश मीणा (सीकर ज़िले से) के साथ मिलकर दायर की थी। यह याचिका इस बात पर केंद्रित है कि मौजूदा महत्वपूर्ण बाघ आवास (सीटीएच) के क्षेत्र को कम किए जाने और संरक्षण सिद्धांतों की उचित समझ के अभाव में 26 जून 2025 को राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड द्वारा की गई कार्यवाही में गंभीर वैधानिक उल्लंघन हुए हैं।”
आहलूवालिया ने बताया कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत, सीटीएच से किसी क्षेत्र की ‘डिनोटिफिकेशन’ केवल जनहित में ही की जा सकती है। “यह स्पष्ट नहीं है कि टाइगर ब्रीडिंग के अभाव को जनहित माना जा सकता है या नहीं। इसके अतिरिक्त, अधिनियम यह कहता है कि किसी भी अनुसूचित जनजाति या अन्य पारंपरिक वन निवासियों को उनके अधिकारों की मान्यता हेतु प्रक्रिया पूर्ण हुए बिना विस्थापित नहीं किया जा सकता और ग्राम सभा की पूर्व सूचना पर आधारित सहमति लिए बिना कोई पुनर्वास नहीं हो सकता। राजस्थान राज्य वन्यजीव बोर्ड और राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की कार्यवाही में इन आवश्यक शर्तों को पूरा करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है,” आहलूवालिया ने कहा।
याचिका में उल्लेख है कि यह मामला 17 अप्रैल 2023 को टी.एन. गोदावर्मन थिरुमलपाड बनाम भारत सरकार रिट याचिका (सिविल) संख्या 202/1995 में सुप्रीम कोर्ट के न्याय मित्र द्वारा दाखिल एक नोट से शुरू हुआ। इस नोट में पांडुपोल मंदिर में श्रद्धालुओं की अनियंत्रित आवाजाही से रिजर्व के प्रबंधन पर पड़ने वाले असर को उठाया गया था। लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस मुद्दे को छोड़कर सीटीएच की सीमाएं बदलने की योजना बनाई गई, जो मूल याचिका का हिस्सा नहीं थी।
सह-याचिकाकर्ता अदिति मेहता, जो संविधान आचरण समूह की सदस्य हैं, ने कहा, “सेंट्रली एम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) ने जब मंदिर में बड़ी संख्या में वाहनों से आने वाले तीर्थयात्रियों के प्रभाव की समीक्षा की तब उसने उससे असंबंधित सिफारिश संख्या XII में यह कहा कि सीटीएच का पुनर्निर्धारण किया जाना चाहिए। रिपोर्ट में यह कहा गया कि सारिस्का वन्यजीव अभयारण्य का क्षेत्र सीटीएच से छोटा है। हमने अपनी याचिका में यह प्रस्तुत किया है कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के अनुसार, सीटीएच का क्षेत्र वन्यजीव अभयारण्य के साथ समान होना आवश्यक नहीं है। न ही कोई ऐसा कानून है जो कहता हो कि सीटीएच केवल राष्ट्रीय उद्यानों या अभयारण्यों तक ही सीमित होने चाहिए।” उन्होंने बताया कि सीईसी ने गलत धारणा बनाई कि सारिस्का टाइगर रिजर्व केवल एक अभयारण्य है, जबकि इसका बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान भी है। “सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी की सिफारिश थी कि टाइगर ब्रीडिंग की प्रवृत्ति के आधार पर सीटीएच का निर्धारण किया जाए, जबकि अधिनियम के तहत इसमें वनस्पति, सह-शिकारी और शिकार प्रजातियाँ भी शामिल हैं। केवल बाघों की उपस्थिति को आधार बनाना गलत और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के खिलाफ है। सारिस्का में कैराकल, लकड़बग्घा जैसी प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं जिनका भी संरक्षण आवश्यक है। रिपोर्ट में इनके बारे में कुछ नहीं कहा गया। पर्यावरण मंत्रालय की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, सारिस्का में तेंदुओं का घनत्व भारत में सबसे अधिक है (100 वर्ग किमी में लगभग 21.5 तेंदुए)।” मेहता ने यह भी कहा कि सीईसी ने 30 सितंबर 2024 तक अभयारण्य क्षेत्र बढ़ाने की सिफारिश की, लेकिन इसके लिए वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत अधिकारों का निपटान और ग्राम सभा की सहमति जरूरी है। “हमने अपनी याचिका में प्रस्तुत किया है कि उक्त अनुशंसा न तो कानूनी है, न ही वैज्ञानिक,” उन्होंने कहा।
सह-याचिकाकर्ता सुमेर सिंह भाटी संवता, जो जैसलमेर में ‘ओरण बचाओ अभियान’ के संस्थापक हैं, ने कहा, “राज्य वन्यजीव बोर्ड के चार अधिकारियों—अतिरिक्त मुख्य सचिव (वन), प्रधान मुख्य वन संरक्षक, मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक, आदि ने सहमति दी थी। लेकिन दो गैर-सरकारी सदस्यों, विश्वडॉ. रवि सिंह (डब्ल्यू डब्ल्यू एफ इंडिया) और निरंजन वासु ने स्पष्ट रूप से कहा था कि मौजूदा सीटीएच में कोई कमी नहीं की जानी चाहिए और बफर क्षेत्र में कोई बदलाव आगे और विश्लेषण के बाद ही होना चाहिए। उनके मतों को नजरअंदाज करते हुए, सदस्य सचिव ने प्रस्ताव सीधा अध्यक्ष को भेज दिया। जबकि अधिनियम के अनुसार राज्य वन्यजीव बोर्ड एक समूह के रूप में कार्य करता है और अध्यक्ष को एकतरफा निर्णय लेने का अधिकार नहीं है।” उन्होंने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के 18 दिसंबर 2024 के आदेश (आईए संख्या 41723/2022) के अनुसार, सीमा पुनर्निर्धारण के लिए ड्राफ्ट अधिसूचना को सार्वजनिक टिप्पणी के लिए जारी करना अनिवार्य था, जो नहीं किया गया। “यह पर्यावरणीय निर्णयों में जनभागीदारी की भावना के खिलाफ है,” भाटी ने कहा।
याचिका में प्रस्ताव पर भी सवाल उठाए गए हैं, जिसमें सीटीएच क्षेत्र को 881.11 वर्ग किमी से बढ़ाकर 924.49 वर्ग किमी और बफर क्षेत्र को 245.72 वर्ग किमी से घटाकर 203.20 वर्ग किमी करने की बात है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया गया कि 23 सीटीएच साइट्स को डिनोटिफाई कर गैर-संरक्षित क्षेत्र घोषित किया जाएगा। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह भ्रामक है और वास्तव में मौजूदा सीटीएच क्षेत्र को भी कम किया जा रहा है।
वकील विश्वास तंवर, जो पीपल फॉर अरावली समूह के साथ कार्यरत हैं, ने कहा, “राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति ने राज्य बोर्ड की विस्तृत कार्यवाही पर विचार नहीं किया और यह तथ्य भी नहीं देखा कि अध्यक्ष को बोर्ड की सहमति के बिना स्वीकृति देने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है। न तो कोई औपचारिक प्रस्ताव बोर्ड से पारित हुआ है न ही यह स्पष्ट किया गया कि गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा उठाई गई चिंताओं का किस प्रकार समाधान हुआ। समिति की कार्यवाही यह दर्शाती है कि उसने मौजूदा सीटीएच को हटाने के मुद्दे पर विचार ही नहीं किया, जबकि यह अत्यंत महत्वपूर्ण विषय था।”
सह-याचिकाकर्ता कैलाश मीणा, जो उत्तर राजस्थान में अवैध खनन के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करते हैं, ने कहा, “हमने याचिका में कुछ गंभीर रिपोर्टों को शामिल किया है जिनमें दर्शाया गया है कि यदि सीटीएच की सीमाएं इस प्रस्तावित संशोधन के अनुसार बदली जाती हैं, तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा बंद की गईं 50 से अधिक संगमरमर और डोलोमाइट की खदानें फिर से खुल सकती हैं। संशोधित सीमाओं के तहत वे खदानें अब नो-माइनिंग ज़ोन के बाहर आ जाएंगी। यदि इस प्रकार की त्रुटिपूर्ण और पर्यावरणविरोधी प्रक्रिया को अनुमति दी जाती है तो यह एक खतरनाक मिसाल बनेगी जिससे अन्य टाइगर हैबिटैट, नेशनल पार्क और वन्यजीव अभयारण्यों पर भी प्रभाव पड़ सकता है।”
*स्वतंत्र पत्रकार एवं पर्यावरणविद्।

