सप्ताहांत विशेष: आज हम कहां खड़े हैं?
एक समय ऐसा था जब रिश्ते नाते, तीज त्यौहार, शादी विवाह, सभा बैठक, सम्मेलन कार्यक्रम, मित्रता दोस्ती, मिलना जुलना, आना जाना, विशेष तैयारी, योजना महिनों में चलती थी। फिर पखवाड़े, सप्ताह, दिनों, घंटों से होते हुए मिनटों में सिमट गई। इसे विकास कहा गया। तकनीकी, विज्ञान, यंत्रों ने इसे आगे बढ़ाया। आज हम कहां खड़े हैं और आगे कहां जा रहे हैं? थोड़ी देर रुक कर विचार चिंतन मनन तो कर लें। कम से कम आगे पीछे को याद तो करें।
संदेश वाहक भेजे जाते थे। लनिहार लेने जाते थे। कबूतर, व्यक्ति, सैनिक, दूत, घुड़सवार, ऊंटवाल, हाथी, घोड़ागाड़ी, बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी, बहल, रथ, साईकिल, मोटर वाहन, पत्र, पोस्टकार्ड, चिठ्ठी पत्री, तार, टेलीफोन, मोबाइल, ईमेल, सोशल मीडिया आदि आदि।
पहले घर परिवार, आस-पड़ोस, गली मोहल्ले, मित्र मंडली, रिश्तेदार दूर नजदीक से विशेष आते काम संभालते। परस्पर चर्चा, संवाद, संपर्क, बातचीत, काम का बंटवारा होता। योजना, तैयारी होती। साझा संस्कृति थी। एक दूसरे के सहारे, साथ, सहयोग, सहकार के बिना चलने की कल्पना करना ही मुश्किल, दुश्वार था। कहावतें मुहावरे भी थे। अकेले रहेगा तो कोई छप्पर उठाने भी नहीं आएगा। मौत पर कांधिए भी नहीं मिलेंगे। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
समाज, समूह, सामूहिकता आवश्यकता थी। मिलजुलकर काम करने का आनंद, मौज, सुख, मजा, आदत, मानसिकता, भाव, सोच समझ के साथ साथ माहौल, वातावरण था। समय की मांग भी रही। इसके बिना काम करना आसान भी नहीं था। परस्परावलंबन की सहज आवश्यकता महसूस होती थी। काम करने और करवाने में हक महसूस किया जाता था। आग्रहपूर्वक किसी को काम बताना सहज प्रक्रिया रही। काम पर नहीं बुलाने पर अपनी तौहीन समझते थे। इंतजार करते थे। बिना बुलाए अपनापन मानकर खुद चले जाते थे, औरों को भी साथ ले जाना अपना कर्तव्य मानते थे।
धीरे धीरे हम तथाकथित विकसित होने लगे। विकास के नाम पर नई नई बातें, सोच, यंत्र, व्यवस्थाएं खड़ी होने लगी। सामूहिकता सीमित, संकुचित होने लगी। धीरे धीरे आदतें बदलने लगी, बदली जाने लगी। प्रचार प्रसार, विज्ञापन, साधन सुविधाओं, यंत्रों ने मानसिकता बदलने में जोरदार मदद करी। परस्परावलंबन से परावलंबन की ओर कदम तेजी से बढ़ने लगे। व्यापकता से सीमितता, संकुचितता, समूह के स्थान पर परिवार, परिवार से व्यक्ति तक पहुंचे। अपना कामकाज दूसरे के जिम्मे । अब किसी इवेंट मैनेजमेंट की आवश्यकता होती है। ठेकेदारी प्रथा चल पड़ी है। जीवन से लेकर मौत तक के क्रियाकलाप अब पैसा फेंको तमाशा देखो की तर्ज पर पहुंच गए हैं।
परस्पर साझा संस्कृति, वार्तालाप, संवाद, संपर्क, सहयोग, सहकार की आवश्यकता समापन की ओर बढ़ रही है। अब कंपनियों को ठेके दो और इवेंट मैनेजमेंट करवाओ। थीम सामने रखो। बजट बताओ और फिर आपके लिए सोचने, समझने, करने का काम कोई और करेंगे। आप केवल संख्या, बजट, काम बताओं, और मजे करो।
अब तो मौत, अस्थि संस्कार तक के लिए भी सब कुछ व्यवस्था करने वाली कंपनी तैयार है। आप पैसा तैयार करके रखो बस। आपको कोई तनाव, दबाव, मनाव, चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। कोई साथ है या नहीं चिंता छोड़ो। येन केन प्रकारेण केवल पैसा बनाओ और फिर कंपनी को ठेका देकर मजे से मरो, आपकी व्यवस्था उनके अधीन।
हम कहां जा रहे हैं? यह अभी से सोच समझ कर आओ लौट चलें, अविकास, अविकसित दुनिया में जहां सांझ है, प्रेम है, अपनापन है, संवेदना है, भावना है, संवाद है, संपर्क है, सहयोग है, सहकार है, समय है, सुख दुःख है, कहा सुनी है, लाभ हानि है, मैं, हम है, तू तू मैं मैं है, परस्परावलंबन है। आओ लौट चलें।
*लेखक प्रख्यात गाँधी साधक हैं। प्रस्तुत लेख उनके निजी विचार हैं।