
करौली: सैरनी नदी के किनारे, जहाँ कभी बंदूकों की गड़गड़ाहट और डकैतों की दहशत गूंजती थी, आज हरे-भरे खेतों की लहरें और बच्चों की हँसी गूंज रही है। यहाँ के गुबरेंडा और बाँसवारी जंगलों में, जो कभी लूटपाट का अड्डा थे, अब बाजरे और सरसों की फसलें लहलहा रही हैं। सैरनी, जो कभी खनन की मार और सूखे की त्रासदी में गुम हो चुकी थी, आज फिर से जीवन की धारा बनकर बह रही है। इसके पानी ने न केवल मिट्टी को सींचा, बल्कि उन दिलों को भी जो हिंसा के अंधेरे में डूबे थे। यह कहानी है लज्जा राम की, जो डकैत से किसान बने; भगवती की, जिनकी फसल ने एक डकैत पति को खेती की राह दिखाई; और सैरनी के उन अनगिनत योद्धाओं की, जिन्होंने बंदूक छोड़कर फावड़ा थामा और एक उजड़े क्षेत्र को खुशहाली का आलम बना दिया।
यह बदलाव की गाथा तरुण भारत संघ और स्थानीय समुदाय की मेहनत का नतीजा है। 5 मई 2025 को सैरनी के तट पर एक सम्मान समारोह हुआ, जहाँ जलपुरुष के नाम से विख्यात राजेंद्र सिंह ने 63 जल योद्धाओं को ‘विश्व शांति जल दूत सम्मान’ से नवाजा। ये वे लोग हैं, जिन्होंने सैरनी सहित करौली-धौलपुर की 23 नदियों को पुनर्जनन करने में अपनी जिंदगी झोंक दी। समारोह में जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ के कुलपति कर्नल प्रोफेसर शिवसिंह सारंगदेबोत, नालंदा प्रकाशन के अध्यक्ष नीरज कुमार, और गांधी शांति प्रतिष्ठान के पूर्व युवा निदेशक रमेशचंद्र शर्मा मौजूद थे। रमेशचंद्र ने ‘नदियाँ धीरे बहो’ गीत से समारोह की शुरुआत की, जिसने नदी के प्रति समुदाय के प्रेम को उजागर किया।
इस मौके पर तरुण भारत संघ के 50 सालों के जल संरक्षण कार्यों पर आधारित पाँच खंडों वाली ‘पानी पंचायत पुस्तक’ का विमोचन हुआ। साथ ही, चंबल की तीन सहायक नदियों—सैरनी, नहरों, और तेवर—के पुनर्जनन पर आधारित पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। लेकिन यह समारोह सिर्फ सम्मान या किताबों का उत्सव नहीं था; यह उस क्रांति का जश्न था, जिसने सैरनी के 841 वर्ग किलोमीटर के जलागम क्षेत्र को हिंसा के गढ़ से शांति और समृद्धि का प्रतीक बना दिया।
कभी यह क्षेत्र इतना डरावना था कि कोई अपनी बेटी की शादी यहाँ नहीं करना चाहता था। डकैत या बड़े पटेल ही डर या खरीदकर लड़कियों को ब्याह लाते थे। अलवर के गुर्जरों से रिश्तेदारियाँ थीं, और वही लड़कियाँ जब अपने मायके में तरुण भारत संघ के जल कार्यों की बात करतीं, तो करौली, सवाईमाधोपुर, और धौलपुर के गाँवों में बदलाव की हवा चली। तीन बुजुर्ग तरुण भारत संघ के कार्यालय पहुँचे, और राजेंद्र सिंह और श्रवण शर्मा उनके गाँव गए। वहाँ भगवती ने अपना खेत दिखाया। उसका पति एक नामी डकैत था, जिसने कभी अपनी पत्नी के लिए कपड़े या खाना नहीं लाया। लेकिन तरुण भारत संघ द्वारा बनाए तालाब से भगवती के खेत में फसल लहलहाई। उसने अपने पति के लिए साफा और धोती-कुर्ता खरीदा, और जलपुरुष के हाथों उसे भेंट किया। पति की आँखों में आँसू छलक आए। उसने कहा, “मैंने अपनी पत्नी को कुछ नहीं दिया, लेकिन इस फसल ने मुझे सम्मान दिया। यह बंदूक मुझे लानत देती है।” उसने उसी दिन शपथ ली कि वह खेती करेगा। अदालत से फरारी खत्म हुई, और बंदूक की जगह हल ने ले ली।
लज्जा राम भूड़खेड़ा की कहानी भी कम प्रेरक नहीं। 40 मुकदमों में फँसा यह डकैत जब अपने खेत में पानी देखा, तो उसने हिंसा छोड़ दी। आज वह न केवल खेती करता है, बल्कि गाँव में सम्मानित जीवन जीता है। जगदीश नाहरपुरा, जो जंगल में लूटपाट करता था, अब उसी जंगल में खेती करता है। उसने कहा, “पहले लूट का जीवन था, अब खेती का। दोनों में फर्क है शांति का।” रघुवीर कोरीपुरा ने गर्व से बताया कि कांजरी तालाब ने सैरनी को पुनर्जनन किया, और आज नदी की धारा गाँव की धरोहर बन गई।
यह बदलाव 1992 में शुरू हुआ, जब तरुण भारत संघ ने सैरनी क्षेत्र में जल संरक्षण की नींव रखी। लेकिन 2019 के बाद यह काम रफ्तार पकड़ गया। कांजरी तालाब और 160 जल संरचनाओं—ताल, पाल, झाल, और चेकडैम—ने 48% वर्षा जल (201.6 मिलियन लीटर) को संरक्षित किया। सैरनी के जलागम क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा 616 मिमी है, और इन संरचनाओं ने पानी को रोककर धीरे-धीरे बहने दिया। नतीजा यह हुआ कि बाढ़, जो 1990 में 2% क्षेत्र को प्रभावित करती थी, अब नगण्य है। सूखा, जो 64% क्षेत्र को जकड़ता था, 22.6% तक सिमट गया। भूजल स्तर, जो 2.25 मीटर तक गिर गया था, अब 10 फीट पर स्थिर है। विंध्यान बलुआ पत्थर और शेल की भू-संरचना ने सतही फ्रैक्चर के जरिए भूजल भंडार को समृद्ध किया, और सैरनी सदानीरा बन गई।
खनन इस क्षेत्र का सबसे बड़ा अभिशाप रहा। सिलिका सैंड, मेसनरी स्टोन, और चाइना क्ले के उत्खनन ने नदी को सूखाया और जमीन को बंजर बनाया। 90 सालों में खनन ने सैरनी की सेहत को तबाह किया। मलबे के पहाड़ आज भी खड़े हैं, जो पर्यावरण के घावों की गवाही देते हैं। 1955 से पहले बड़े पैमाने पर खनन हुआ, और तरुण भारत संघ की उच्चतम न्यायालय में याचिका के बावजूद यह कुछ समय तक चला। लेकिन जल संरक्षण ने वन भूमि पर खनन को रोका, और जंगल धीरे-धीरे लौटने लगे। क्षेत्र के 34.3% वन क्षेत्र का आधा हिस्सा खनन ने छीना, लेकिन अब पेड़ों पर कुल्हाड़ी नहीं चलती। मिट्टी का कटाव रुका, गाद कम हुई, और जंगली जीवों की वापसी शुरू हुई।
सैरनी क्षेत्र कभी सहरिया जनजाति का घर था। उनकी सांस्कृतिक धरोहर नदी और जंगल से जुड़ी थी। 40 साल पहले वनाधिकार बदलने और खनन ने उन्हें बेघर कर दिया। वे बारां जिले के जंगलों में चले गए, और उनकी जगह गुर्जर और मीणा समुदाय आए। सहरियाओं के लिए नदी और जंगल ही जीवन थे, लेकिन खनन ने उनकी धरोहर छीन ली। आज सैरनी का नाम उनके संघर्ष की याद दिलाता है। गुर्जर और मीणा, जो पहले जंगल और पशुपालन पर निर्भर थे, अब खेती में माहिर हैं। उनकी धराड़ी परंपरा, जिसमें पेड़ और जीव पूजनीय हैं, जीवंत है। चींटी-चराई से लेकर गाय-जंगल की रक्षा तक, वे अपनी धरोहर को संजोते हैं। कुछ लोग मछली को, कुछ पेड़ों को, तो कुछ जीवों को भगवान मानते हैं। यह आस्था सैरनी के पुनर्जनन में उनकी ताकत बनी।
खेती इस क्षेत्र की रीढ़ बन गई। पहले केवल 4% जमीन खेती के लिए उपयुक्त थी, लेकिन जल संरक्षण ने इसे दोगुना कर दिया। जहाँ पहले एक मन बाजरा भी मुश्किल था, वहाँ अब 100 से 300 मन पैदा होता है। गेहूं और सरसों, जो कभी नहीं उगते थे, अब 200-400 मन की पैदावार दे रहे हैं। खरीफ में ज्वार, बाजरा, तिल, अरहर, उड़द, मूंग, और रबी में गेहूं, जौ, चना, सरसों, मटर जैसी फसलें वर्षा-चक्र के साथ जुड़ गई हैं। मछली पालन और सिंघाड़े की खेती ने अर्थव्यवस्था को नया आयाम दिया। कुवरराज महाराजपुरा ने कहा, “हमारा गाँव, जो वीरान था, आज पानी और खुशहाली से भर गया।”
महिलाओं की भूमिका इस क्रांति का दिल है। पहले पानी ढोने का कष्ट और रतौंधी जैसी बीमारियाँ उनकी जिंदगी थीं। अब जल की उपलब्धता ने उनका श्रम कम किया, और बेहतर पोषण ने स्वास्थ्य सुधारा। बच्चे, खासकर लड़कियाँ, स्कूल जाने लगीं। सामुदायिक निर्णयों में महिलाएँ हिस्सा ले रही हैं, और पर्दे की जगह पारदर्शिता ने ले ली। शीशराम दाउदपुर ने कहा, “सैरनी ने हमें नया जीवन दिया। अब हमारी बेटियाँ पढ़ रही हैं, और गाँव में शांति है।”
2017 में बनी सैरनी संसद ने सामुदायिक जल प्रबंधन को नई दिशा दी। इसने फसल-चक्र को वर्षा-चक्र से जोड़ा और कम पानी वाली फसलों को बढ़ावा दिया। ग्राम सभाएँ वृक्षारोपण और हरियाली बढ़ाने में सक्रिय हैं। नदी के दोनों किनारों के परिवार और जलागम क्षेत्र के लोग मिलकर निर्णय लेते हैं। यह विकेंद्रित मॉडल आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने कहा, “सैरनी का पुनर्जनन अहिंसा और सत्य का उदाहरण है। यह पानी, प्यार, और शांति लाता है, और अपराध को खत्म करता है। समाज को अपना काम खुद करना चाहिए।”
खनन के घाव अभी पूरी तरह भरे नहीं हैं। मलबे के पहाड़ और बंजर जमीन सैरनी की सेहत को चुनौती देते हैं। लेकिन तरुण भारत संघ का कम लागत वाला मॉडल—3.20 रुपये प्रति किलोलीटर—ने चमत्कार किया। एक साल में ही अन्न, चारा, दूध, घी, और मछली से कई गुना मुनाफा होता है। चमन सिंह, जगदीश, और छाजूराम जैसे जल योद्धाओं ने क्षेत्र में बदलाव की मशाल जलाई। चमन सिंह का अपहरण हुआ, लेकिन डकैतों ने उनके कार्यों को देखकर उन्हें सम्मान के साथ छोड़ दिया।
पहले यह क्षेत्र बागियों का गढ़ था। विदेशी या बाहरी लोग डर से नहीं आते थे। आज लंदन की लूसी जैसे पर्यटक बिना डर के गाँवों में घूमते हैं। अपराध शून्य के करीब है। शिक्षा बढ़ी, और जल, जंगल, और जमीन साक्षरता फैली। बच्चे स्वस्थ हैं, और महिलाएँ सामाजिक कार्यों में आगे हैं। गाँवों में घी, दूध, और सब्जियाँ उपलब्ध हैं, और खर्च कम हो गया।
सैरनी की यह गाथा केवल एक नदी की नहीं, बल्कि एक समाज की पुनर्जनन की है। यहाँ के लोग, जो लाचारी और बेकारी में जीते थे, आज सम्मान और समृद्धि के साथ जी रहे हैं। सैरनी संसद और ग्राम सभाएँ जंगल, जमीन, और पानी की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध हैं। यह मॉडल पूरे भारत के लिए प्रेरणा है। सैरनी की लहरें आज शांति, समृद्धि, और अहिंसा का संदेश दे रही हैं, जो साबित करता है कि पानी बदलाव की सबसे बड़ी ताकत है।
*लेखिका जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ से एनवायर्नमेंटल साइंस में डॉक्टरेट कर रही हैं और सैरनी नदी में जल संरक्षण से जैवविविधता संवर्द्धन उनके शोध का विषय है।