
सहरिया समुदाय
ग्वालियर: भारत की प्राचीन धरोहर सहरिया जनजाति आज भी कुपोषण की छाया में जी रही है। शहरों की चमक से बस कुछ कदम दूर, फिर भी सहरिया समय की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। शहरों के करीब रहने के बावजूद जीवन स्तर के मामले में यह अन्य जनजातियों की तुलना में अधिक पिछड़ी है। उनके बच्चे भूख से जूझ रहे हैं, युवा बेरोजगारी के अंधेरे में भटक रहे हैं, और बस्तियाँ साफ पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा के लिए तरस रही हैं।
जंगल की गोद में, जहाँ तेंदू पत्तों की सुगंध हवाओं को चूमती है, सहरिया का जीवन एक पुराना राग गुनगुनाता है। शबरी के वंशज हों या भीलों के रिश्तेदार, उनकी जड़ें इतिहास के धुंधलके में खोई हैं। सहरिया भारत की एक प्राचीन जनजाति हैं, जिसकी उत्पत्ति और जानकारी के बारे में कोई एक मत नहीं है। शबरी के वंशज से लेकर भीलों से भी जुड़ाव के प्रसंग मिलते हैं। पर इस बारे में कोई दो राय नहीं है कि यह जनजाति आज भी अति पिछड़ी है। गांव की जिन बस्तियों में इसकी झोपड़ियां रही हैं वहां पीने के साफ पानी की समस्या रही है।
सहरिया का जीवन वनों से बँधा है। वे तेंदू पत्ता, गोंद, लकड़ी इकट्ठा करते हैं, या मजदूरी की कठिन राह चुनते हैं। मगर क्या यही उनकी नियति है? सरकार ने योजनाएँ बनाईं—स्कूल, अस्पताल, रोजगार की बातें—पर इनका असर बस्तियों तक नहीं पहुँचा। कभी नहीं पूछा गया: इन योजनाओं से सहरिया का जीवन कितना बदला? शिक्षा में, स्वास्थ्य में, रोजगार में क्या फर्क आया? सहरिया को केवल वन उपज बटोरने की जिंदगी देना उचित है, या उन्हें अवसरों का आलम देना चाहिए, जैसा अन्य जनजातियों को मिला? यह सवाल हवाओं में तैरता है, बिना जवाब के।
शिक्षा की बात करें या रहन-सहन की बात करें, दोनों ही मामलों में यह अपना वैसा विकास नहीं कर सकी है, जैसा आजादी के बाद इस जनजाति को करना चाहिए था। अगर सहरियाओं में से आईएएस,आईपीएस अधिकारी, प्रोफेसर,डॉक्टर इत्यादि निकलते तो निश्चित तौर पर इस जनजाति का समाज में प्रभाव बनता। योजनाओं के निर्माण में उसकी भूमिका होती है।
आज सहरिया का अस्तित्व सिर्फ यही है कि भारत सरकार ने इसे देश की आदिम जनजातियों में शामिल कर रखा है। भारत सरकार ने उन्हें आदिम जनजाति का दर्जा तो दिया, योजनाएँ तो बनाईं, पर ये योजनाएँ बस्तियों की मिट्टी तक नहीं पहुँचीं। शिक्षा की बात करें, तो सहरिया बच्चे किताबों के सपने ताकते हैं। रहन-सहन की बात करें, तो मिट्टी की झोपड़ियाँ और टूटी छतें उनकी हकीकत हैं। कुपोषण ने उनके नन्हे शरीरों को जकड़ रखा है । साफ पानी, जो जीवन की साँस है, उनकी बस्तियों में दुर्लभ रहा है। और स्वास्थ्य सेवाएँ? वे सहरिया के लिए बादलों से परे का सितारा हैं। सरकार ने उनके लिए योजनाएं अवश्य चलाईं है लेकिन इसका मूल्यांकन कभी नहीं हुआ कि ऐसी योजनाओं से सहरियाओं के रहन-सहन के मामले में, शिक्षा के मामले में, रोजगार के मामले में क्या बदलाव आया है ?

गुना के बमोरी ब्लॉक में सूरज सहरिया की आवाज दिल को चीरती है। “कुपोषित सबसे ज्यादा हैं। गाँव में रोजगार नहीं, पलायन करना पड़ता है। कमजोरी, बुखार में भी कड़ी मेहनत। सहरिया लोग 35-45 साल में चल बसते हैं। हमारी महिलाएँ सबसे ज्यादा कमजोर, बच्चे कुपोषित,” वे कहते हैं। सूरज की बात उस माँ की पुकार है, जो अपने बच्चे का पेट भरने को तरसती है; उस मजदूर की, जो बुखार में भी लकड़ी का बोझ ढोता है। उनकी कमजोर माँएँ और कुपोषित बच्चे सहरिया की दुखद हकीकत को उजागर करते हैं—एक ऐसी जिंदगी, जो समय से पहले थम जाती है।
रोजगार की बात करें, तो सहरिया युवाओं का भविष्य खाली कागज सा है। ग्वालियर के अवनीश आदिवासी की आवाज में बेबसी और गुस्सा झलकता है: “घाटीगांव, भीतरवार, डबरा ब्लॉक में अनगिनत युवा बेरोजगार घूम रहे। सरकार की कोई सुनवाई नहीं। सहरिया को आज तक एक भी नौकरी नहीं मिली। महँगाई में घर चलाना मुश्किल है। युवा न मजदूरी कर पा रहे, न नौकरी पा रहे। चार-पाँच हजार पढ़े-लिखे युवा बेरोजगार हैं, कुछ की उम्र भी निकल रही।”

अवनीश की बात उस नौजवान की व्यथा है, जो पढ़ाई के बाद भी खाली हाथ खड़ा है; उस सपने की, जो बेरोजगारी की दीवार से टकराकर बिखर गया। सहरिया का अस्तित्व सिर्फ कागजों में है—भारत सरकार की आदिम जनजाति सूची में। सरकारी आरक्षण का लाभ उनके दरवाजे तक नहीं पहुँचा। न कोई आईएएस, न डॉक्टर, न प्रोफेसर—उनका नेतृत्व खामोश है, उनकी आवाज समाज के कानों तक नहीं गूँजती। अगर सहरिया से अधिकारी, शिक्षक, चिकित्सक उभरते, तो उनकी बस्तियों की तकदीर बदलती। उनकी आवाज योजनाओं को आकार देती। मगर आज वे उपेक्षा के साये में जी रहे हैं।
सूरज सहरिया और अवनीश आदिवासी की आवाजें दर्द की गूँज हैं—35-45 साल में टूटते जीवन, कमजोर माँएँ, बेरोजगार युवा। क्या सहरिया को मुख्य धारा में लाने, उनकी धरोहर को सहेजने का समय नहीं?
सिर्फ कागजों में सिमटीं सरकारी योजनाएँ उनके जीवन को ना तो रोशनी दे पायीं हैं, न नेतृत्व को जन्म। मगर उनकी संस्कृति—जंगल देवताओं की पूजा, वनों की रक्षा, कला का हुनर—एक जीवंत गीत है, जो मान्यता की प्रतीक्षा में है। सहरियाओं के जीवन को बदलने या उन्हें मुख्य धारा में लाने के लिए नए सिरे से प्रयास करने की आवश्यकता है। सरकार को यह विचार भी करना होगा कि क्या उसे सहरिया जनजाति को सिर्फ वन उपज बटोरने तक सीमित रखना है या उसे भी अन्य जनजाति की तरह अवसरों का लाभ दिलाकर आगे बढ़ाना है।
सहरिया केवल दुख की कहानी नहीं है। उनकी संस्कृति एक अनमोल खजाना है, जो जंगल की छाँव में चमकता है। ग्राम और जंगल देवताओं की पूजा, वनों और जीवों की रक्षा—सहरिया प्रकृति का सच्चा रक्षक है। उनकी कला, उनका शिल्प, उनकी लोककथाएँ—ये सब एक जीवंत धरोहर हैं। इस धरोहर को न केवल बचाना है, बल्कि दुनिया के सामने लाना है। मंच देना है, ताकि सहरिया का हुनर निखरे, और समाज उनकी हकीकत से रू-ब-रू हो।
तो सहरिया की पुकार आखिर कब तक अनसुनी रहेंगी? सूरज और अवनीश की आवाजें लाखों दिलों की चीख हैं। सरकार को नए सिरे से सोचना होगा—योजनाओं का मूल्यांकन, शिक्षा के दरवाजे, स्वास्थ्य की सुविधाएँ, स्वच्छ जल, और रोजगार के रास्ते। सहरिया युवा नौकरियों का हकदार है, नेतृत्व का सपना देखने का हकदार है। उनकी संस्कृति को मंच मिले, उनके पर्यावरण संरक्षण को सम्मान।
गुना से ग्वालियर तक, सहरिया की बस्तियाँ उस सवेरा का इंतजार कर रही हैं, जहाँ कुपोषण की छाया न हो, जहाँ बेरोजगारी का अंधेरा न हो। यह देश क्या उनकी उम्मीदों को पंख देगा, या वे सिकुड़ते जंगलों की घटती छाँव में तबाह हो जायेंगे?
*समाजिक कार्यकता एवं भारत सरकार जल शक्ति मंत्रलय के द्वारा समान्नित वाटर हीरो।