– बृजेश विजयवर्गीय*
मुआवज़े से नहीं, जवाबदेही से रुकेगा हादसों का सिलसिला
क्या जयपुर के पास हुआ हरमाड़ा हादसा प्रशासन को झकझोरने के लिए भी काफी नहीं है? क्या शराब इस हद तक ज़रूरत बन चुकी है कि लोगों की ज़िंदगियां उससे सस्ती पड़ गई हैं?
हरमाड़ा के पास कल हुए सड़क हादसे में 14 निर्दोष लोगों की जान चली गई। यह कोई पहली घटना नहीं है। राजस्थान समेत पूरे देश में शायद ही कोई दिन गुजरता हो जब किसी न किसी जगह भयावह सड़क हादसा न होता हो। प्रशासनिक अमले की भागदौड़ उस दिन तो तेज़ रहती है, मगर अगले ही दिन सब कुछ पहले जैसा हो जाता है — मानो अगले बड़े हादसे की तैयारी जारी हो। यह एक ऐसी व्यवस्था का प्रतिबिंब है जो प्रतिक्रिया तो देती है, पर सुधार नहीं करती।
हरमाड़ा हादसे के बाद मुख्यमंत्री स्तर पर बैठक हुई। अधिकारी जवाब नहीं दे पाए, और परंपरा के अनुसार सरकार ने मृतकों और घायलों को मुआवज़े की घोषणा कर दी। लेकिन क्या यही समाधान है? मुआवज़ा देना किसी भी सरकार की तात्कालिक संवेदना व्यक्त करने की औपचारिकता तो हो सकती है, पर यह समस्या की जड़ पर प्रहार नहीं करता।
मुख्यमंत्री ने यातायात सुधार के लिए एक नए अभियान की घोषणा की है। यह स्वागतयोग्य है, परंतु अभियान तब तक प्रभावी नहीं होंगे जब तक निर्णय ठोस न हों। यदि सरकार सचमुच संवेदनशील है, तो उसे कुछ साहसी कदम उठाने होंगे — क्योंकि लोकतंत्र में चुनी हुई सरकार केवल संवेदना नहीं, शासन की जवाबदेही का प्रतीक होती है।
सवाल उठता है: क्या सरकार शराब से होने वाले राजस्व नुकसान के डर से सड़क किनारे की शराब दुकानों को नहीं हटाएगी? क्या राजस्व अधिक महत्वपूर्ण है या जनजीवन? शराब बिकेगी तो पिए जाने से कौन रोक सकेगा? नशे में वाहन चलाना हादसों का प्रमुख कारण है, और यातायात पुलिस की भूमिका यहां निर्णायक होनी चाहिए। लेकिन सक्रियता सिर्फ अभियानों में दिखती है, रोज़मर्रा की सड़कों पर नहीं।
नो एंट्री क्षेत्रों में भारी वाहन — ट्रक, डंपर, ट्रोले या ज्वलनशील पदार्थ ढोने वाले ट्रक — खुलेआम घूमते हैं। सड़कों पर अतिक्रमण, निर्माण सामग्री का ढेर, आवारा पशु और ओवरलोड वाहन — यह सब रोज़ का दृश्य है। कानून है, लेकिन लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं। जब कोई वीआईपी सड़क से गुजरता है, तो सब कुछ दुरुस्त दिखने लगता है। इसका अर्थ स्पष्ट है — जहां चाह, वहां राह।
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प्रश्न यह भी है कि हमारी सड़कें बार-बार क्यों टूटती हैं? जब 10–12 साल टिकने वाली सड़कें संभव हैं, तो हर साल मरम्मत की ज़रूरत क्यों पड़ती है? यह तकनीकी असंभवता नहीं, प्रशासनिक उदासीनता और ठेकेदारी तंत्र की विफलता का परिणाम है।
टोल नाकों पर भी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए। हर वाहन चालक का नशे की स्थिति में परीक्षण अनिवार्य हो। जो नशे में पाया जाए, उसका ड्राइविंग लाइसेंस स्थायी रूप से रद्द किया जाए। साथ ही, यातायात संकेतकों पर पोस्टर और बैनर लगाना पूर्णतः प्रतिबंधित किया जाना चाहिए — किसी की जयंती या निजी प्रचार से जनहित की सूचनाएं ढकी नहीं जानी चाहिएं।
इन सब सुधारों के लिए नए कानूनों की जरूरत नहीं है। ये मौजूदा नियमों के तहत ही लागू किए जा सकते हैं। अभियानों से जागरूकता तो बढ़ेगी, लेकिन जब तक अधिकारी और नागरिक दोनों जिम्मेदारी को आदत नहीं बनाएंगे, तब तक हादसे नहीं रुकेंगे।
सिर्फ सरकार पर निर्भर रहने से काम नहीं चलेगा। हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। यातायात नियमों का पालन कोई उपकार नहीं, बल्कि सामूहिक सुरक्षा का दायित्व है।
हरमाड़ा हादसे ने फिर वही सवाल उठा दिया है — क्या हमारी संवेदनाएं सिर्फ मुआवज़े तक सीमित रह जाएंगी, या कभी ऐसा दिन आएगा जब हादसों की वजहें खत्म करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाई देगी?
*स्वतंत्र पत्रकार
