— ज्ञानेन्द्र रावत*
120 दिन से दिल्ली गैस चैंबर में, जहरीली हवा में सांस लेने को मजबूर दिल्ली वाले
बच्चे खेल भी नहीं सकते, साँस लेना दूभर
भ्रष्टाचार ने सारी योजनाएँ धराशायी कर दीं
हर साँस अब जहर बन चुकी है। दिल्ली में पिछले 120 दिनों से लोग लगातार जहरीली हवा में जी रहे हैं और इस बार का सर्द मौसम अब तक का सबसे भयावह प्रदूषित मौसम साबित हो रहा है। राहत के कोई आसार नहीं। ग्रैप की तमाम पाबंदियाँ लगती हैं, घोषणाएँ होती हैं, लेकिन हवा और दमघोंटू होती जाती है। दावे चाहे जितने किए जाएँ, हकीकत यही है कि राजधानी सचमुच गैस चैंबर बन चुकी है।
यह संकट नया नहीं। देश में वायु प्रदूषण हर साल लाखों लोगों की जान ले रहा है। 2022 में अकेले इसी कारण 17.2 लाख मौतें हुईं—यह आँकड़ा 2010 के मुकाबले पूरे 38 फीसदी अधिक है। यानी दस साल में ही प्रदूषण से होने वाली मौतें एक तिहाई से ज्यादा बढ़ गई हैं। यह कोई साधारण आँकड़ा नहीं, यह एक खामोश महामारी है जो चुपचाप घर-घर में दस्तक दे रही है।
वायु गुणवत्ता के आँकड़े खुद सवालों के घेरे में हैं। दिल्ली में 39 मॉनिटरिंग स्टेशन हैं, लेकिन औसत एक्यूआई निकालते वक्त सभी स्टेशनों के आँकड़े शामिल नहीं किए जाते। सीपीसीबी के पूर्व अधिकारी खुलकर कहते हैं कि डेटा के साथ चालाकी करना आसान हो गया है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण भी मानती हैं कि पहले सीपीसीबी के आँकड़े विश्वसनीय होते थे, अब नहीं रहे। निगरानी में न गंभीरता है, न सावधानी। नतीजा यह कि साफ हवा का हक अब सिर्फ मुहावरा बनकर रह गया है।
दिल्ली अकेली नहीं तड़प रही। गाजियाबाद समेत पूरा एनसीआर जहरीली चपेट में है। कुछ दिन पहले गाजियाबाद दुनिया का एकमात्र ऐसा शहर था जिसकी वायु गुणवत्ता “गंभीर प्लस” श्रेणी में थी। दिल्ली का एक्यूआई अभी भी 400 के पार बना हुआ है, कुछ इलाकों को छोड़कर। अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से दिल्ली की हवा तय सीमा से सोलह गुना अधिक प्रदूषित है। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि पीएम 2.5 का सालाना औसत 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज्यादा नहीं होना चाहिए। अमेरिका ने 9 रखा है, भारत ने अपनी भौगोलिक-जलवायु परिस्थितियों को देखते हुए 40 माइक्रोग्राम का मानक तय किया, लेकिन दिल्ली में यह औसत 79.81 तक पहुँच चुका है। यानी एक दिन भी इस हवा में साँस ले लें तो बीमार पड़ने की पूरी संभावना है, और यहाँ तो महीनों से यही हाल है। स्वास्थ्य आपातकाल से कम कुछ नहीं।
यह जहरीली हवा शरीर के हर अंग पर हमला बोल रही है—दिमाग, आँखें, हृदय, फेफड़े, लिवर, हड्डियाँ, त्वचा, नाक-गला, पेट और प्रजनन तंत्र तक—कोई अंग सुरक्षित नहीं। पीएम 2.5 के भयावह स्तर ने बीमारी का खतरा 8.6 फीसदी तक बढ़ा दिया है। खाँसी, जुकाम, एलर्जी, गले में खराश, आँखों में जलन तो शुरुआती लक्षण हैं। सबसे ज्यादा खतरा साँस, फेफड़े, हृदय, नाक-गले के मरीजों को है। बुजुर्ग और बच्चे सबसे कमजोर कड़ी हैं। अस्पतालों में इनकी भीड़ इसका जीता-जागता सबूत है।
दिल्ली में ब्रेन स्ट्रोक का खतरा भी तेजी से बढ़ रहा है। हर साल करीब 30 हजार लोग ब्रेन स्ट्रोक के शिकार होते हैं और इनमें से लगभग 35 फीसदी की मौत हो जाती है—यानी तीन में से एक मरीज की जान चली जाती है। विशेषज्ञ बताते हैं कि अब प्रदूषण सिर्फ साँस की बीमारी नहीं रहा; यह मस्तिष्क के रक्तप्रवाह और स्नायु कोशिकाओं को भी नुकसान पहुँचा रहा है। डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर या हृदय रोग से पहले से जूझ रहे लोगों को कई गुना अधिक जोखिम है।
सबसे दिल दहला देने वाली तस्वीर बच्चों की है। डॉक्टर उन्हें खुले में खेलने से साफ मना कर रहे हैं। गंगाराम अस्पताल के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. नीरज गुप्ता बताते हैं कि पिछले कुछ दिनों में साँस की बीमारियों से पीड़ित बच्चों की तादाद पचास फीसदी से ज्यादा बढ़ गई है। खेलते वक्त बच्चों की साँस तेज चलती है, ऐसे में पीएम 2.5 के कण सीधे साँस की नली और फेफड़ों में पहुँच जाते हैं। संक्रमण की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। ऊपर से उत्तर भारत में काली खाँसी (हूपिंग कफ) का नया वैरिएंट तेजी से फैल रहा है। पीजीआई चंडीगढ़ के शोध में खुलासा हुआ है कि बॉर्डेटेला होल्म्सी नामक बैक्टीरिया अब पर्टुसिस जैसे ही लक्षण पैदा कर रहा है। यह संक्रमण खासकर 5 से 10 साल के बच्चों में तेजी से फैल रहा है और इसका नियंत्रण मुश्किल हो रहा है।
हिमाचल प्रदेश इन दिनों साँस लेने की एकमात्र उम्मीद बना हुआ है। शिमला, धर्मशाला जैसे पर्यटन स्थलों पर एक्यूआई 50 से भी कम है। कम वर्षा की वजह से इस बार हिमाचल की हवा पिछले दो सालों से बेहतर है। डॉक्टर मरीजों को सलाह दे रहे हैं—कुछ दिन हिमाचल चले जाइए, जान बच सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली की जहरीली हवा पर सख्त टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि हालात बहुत गंभीर हैं, मास्क से स्वास्थ्य की रक्षा नहीं हो सकती। एनसीआर में वायु प्रदूषण के लिए दीर्घकालिक समाधान चाहिए। साल भर सभी प्रदूषणकारी गतिविधियों पर पाबंदी नहीं लगाई जा सकती, लेकिन कूड़े की समस्या का स्थायी हल जरूरी है। दिल्ली में हर गली-सड़क कूड़ाघर बन चुकी है। कचरे में आग लगाने पर कोई रोक नहीं। बाहर से आने वाले प्रदूषण पर भी कोई रोकटोक नहीं।
सबसे बड़ी बाधा भ्रष्टाचार है। इसी की वजह से प्रदूषण नियंत्रण की तमाम योजनाएँ कागजों से धरातल पर नहीं उतर पातीं। हर साल नई-नई घोषणाएँ होती हैं, लेकिन अमल नहीं होता और समस्या जस की तस बनी रहती है। अगर दिल्ली को सचमुच प्रदूषण मुक्त करना है तो मूल स्रोतों—कोयला आधारित बिजली संयंत्रों, डीजल जनरेटरों—पर स्थायी विकल्प ढूँढना होगा। पर्यावरण नियमों, नीतियों और मानकों का ईमानदारी से पालन करना होगा। और सबसे जरूरी—आम जनता को भी इस लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
तब तक दिल्ली और पूरा उत्तर भारत इसी जहर में साँसें गिनता रहेगा। साफ हवा अब कोई लग्जरी नहीं, जीवन-मृत्यु का सवाल बन चुकी है।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद् हैं।
