रविवारीय: क्या श्रद्धा को हम बचा सकते थे?
– मनीश वर्मा ‘मनु’
अचानक से ख़बर आती है – आफताब ने सुनियोजित तरीके से श्रद्धा की हत्या कर दी। उस श्रद्धा की जिसने अपने आफताब के लिए अपना घर, परिवार, दोस्तों, अपने शहर को छोड़ दिया था। क्या मिला उसे ?
प्यार में कुछ अच्छे लम्हें तो आपने ज़रूर बिताए होंगे। उन्हीं लम्हों को भरपूर जीते हुए, कसमें और वादों के साथ जिंदगी भर, एक दूसरे का साथ निभाने का, एक दूसरे से वादा भी किया होगा। जीने मरने की कसमें खाई गई होंगी। पर उन लम्हों की स्वीकार्यता पर जब परिवार ने अपनी मुहर नहीं लगाई तो आपने बिना सोचे समझे रिश्तेदार, परिवार और घर से दूर निकल अपनी सपनों की दुनिया, जो आपने उन अच्छे लम्हों के दौरान बुनी थी, बसाने निकल पड़ीं। लिविंग रिलेशनशिप में रहने लगीं।
माना आफताब कि जिसके साथ तुमने जिंदगी के कुछ बेहतरीन लम्हें को गुजारा, वो लम्हें कुछ कम थे। पर क्या वे इतने भी न थे कि तुम उन्हें याद कर सको? क्या किया तुमने? उन लम्हों को, उन रिश्तों को तार तार कर दिया। हत्या कर दी तुमने उनकी। एक बार नहीं किया। पैंतीस बार किया। आख़िर क्यों?
क्षणिक आवेश नहीं था यह। यह तो एक बहुत ही सोची समझी रणनीति के तहत हुआ। एक सुनियोजित तरीके से हुआ। पर, श्रद्धा तो पागल थी तुम्हारे प्यार में। विश्वास किया था उसने तुम पर। अंधा विश्वास करती थी वो तुम पर।तुम्हारे पास आने के लिए अपनों से किनारा कर लिया था उसने। और तुमने तो उसे बिल्कुल ही किनारे लगा दिया। बहुत दूर कर दिया। वहां जहां अब शायद ही किसी की नज़र पड़े। आख़िर क्या मिला तुम्हें यह सब करके? क्या ग़लती थी श्रद्धा की। यही न कि उसने तुम्हारे साथ अपने संबंधों की सामाजिक स्वीकृति के लिए मुहर लगवानी चाही थी । विधिवत शादी करना चाहती थी तुमसे। कितने सपने संजोए होंगे उसने तुम्हें लेकर। अगर कभी होश आए तो लोगों को चिल्ला कर बताना। पागलों की तरह एक एक व्यक्ति को बताना! पर, नहीं! तुमने तो पूरे होशोहवास में यह काम किया है। तुम पूरी तरह होश में थे। आज भी हो। तुम्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है। तुम तो उसे मारने के बाद भी सहजता से अपना जीवन जीते रहे। तुमने अपना पूरा प्रयास किया उसकी एक एक निशानी मिटा देने की। सफल भी हो गए थे तुम। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था जो तुम्हारे इस घृणित काम में भागीदार बनना नहीं चाहती थी।
तुमने एक व्यक्ति की नहीं, तुमने तो विश्वास की हत्या की है। सपनों की हत्या कीं है। प्यार की हत्या की है। रिश्तों की हत्या की है। उन लम्हों की हत्या की है जिन लम्हों के लिए श्रद्धा अपना सब कुछ छोड़कर तुम्हारे पास आई थी।तुम्हें कोई हक़ नहीं है इस संसार में रहने का। तुम आदमी नहीं हो। जानवर भी नहीं हो। पता नहीं तुम क्या हो।तुम्हारे लिए कानून जो भी सज़ा तय करेगा बहुत कम होगा। पता नहीं तुम्हें क्या सज़ा दिया जाए। पर, जो भी दिया जाए एक नज़ीर बनना चाहिए। कानून अपना रास्ता तय करेगा। तुम्हें माकूल सजा मिलेगी। मिलनी भी चाहिए।
” ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने, लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पाई।”
मुजफ्फर रज़्मी की इस शेर को मैं ध्यान में रखते हुए कह रहा हूं – आफताब, तुम्हारे इस कृत्य की सज़ा न जाने कितने लोग भुगतेंगे। बहुत दिनों तक भुगतेंगे। शायद वर्षों। इसका अहसास भी तुम्हें नहीं होगा।
नमन श्रद्धा। तुमने तो पूर्णता चाहा था, पर तुम्हारे हिस्से में टुकड़े टुकड़े ही होना बदा था । जहां भी हो, शांति मिले तुम्हें।
हां, अंत में एक बात मैं अवश्य बच्चों के अभिभावकों से कहना चाहता हूँ। आप सभी अपने बच्चों के साथ हमेशा एक स्तंभ की तरह खड़े रहें। उन्हें हर पल इस बात का अहसास हो कि मुसीबत में कोई है जो मुझे हर मुश्किल से उबार ले जाएगा। उन्हें कभी इस बात का अहसास नहीं होना चाहिए कि वे मझधार में बिल्कुल अकेले हैं। बच्चे हैं, गलतियां हो जाती हैं। बाकी तो प्रारब्ध है। यहां हम सभी नतमस्तक हैं।
श्रद्धा को हम बचा सकते थे। नही बचा पाए। दोस्तों को मालूम था कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है श्रद्धा के साथ। पर, सभी ने इसे हल्के में लिया। परिणाम सामने है। ख़ैर! चाहे मित्र हों या अभिभावक, सभी के लिए यह हत्या एक सीख है। अपनी अपनी जिम्मेदारियों से मुँह न मोड़ें।
We should aware our children through moral education & good culture to our children.
Bahut sahi farmaya Manu guardians ko apni zimmedari samajhni chahiye shraddha ki Hatya ek sabak hai samaj k liye un youngesters k liye bhi jo bina soche samjhe itna bada kadam uttha lete hain Ghar baar chhor dete hain v good manu
True. Very well written.