गाजियाबाद के फुटपाथ पर सजी रावण की दुकान। फोटो: दीपक पर्वतियार
रविवारीय: यह रावण बार-बार क्यों आता है?
यह रावण बार-बार क्यों आता है?
अभी-अभी दो दिन पहले ही तो हम सबने रावण को जलाया है। लंका के अहंकारी राक्षस-राजा रावण को उसके भाई कुंभकरण और पुत्र मेघनाद सहित हमने अग्नि के हवाले कर दिया। वध कर दिया उन लोगों का । हम सबने उस दृश्य को एक उत्सव, एक पर्व की तरह हर्षोल्लास के साथ मनाया। मैदान में हजारों लाखों लोगों की मौजूदगी में सबकी आँखों के सामने रावण धू-धू कर जला और भस्म हो गया। तो फिर अब कोई रावण नहीं बचा होगा, ऐसा मान लेना स्वाभाविक है।
लेकिन सवाल यही है , और अनुत्तरित भी- क्या सचमुच रावण ख़त्म हो गया? क्या सचमुच मेघनाद और कुंभकरण का अंत हो गया? अगर ऐसा है तो फिर ये नए-नए राक्षस हर साल हमारे चारों ओर क्यों दिखने लगते हैं?
नवरात्र के नौ दिनों तक हमने माँ दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा की। हमने सुना, पढ़ा और जाना कि कैसे देवी ने महिषासुर का वध किया, कैसे शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज जैसे राक्षसों का अंत किया। कैसे चंड मुंड का नाश किया । विजयादशमी के दिन हमने देखा कि कैसे प्रभु राम ने रावण को ख़त्म किया।
हर साल यही कहानी दोहराई जाती है, और हम मान लेते हैं कि रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के ख़ात्मे के साथ ही तमाम बुराईयों का अंत हो गया।
फिर भी सच्चाई यही है कि रावण बार-बार लौट आता है। कभी भ्रष्टाचार के रूप में, कभी अन्याय के रूप में, कभी हिंसा के रूप में, कभी लोभ, अहंकार और अनैतिकता के रूप में।
मेघनाद और कुंभकरण भी नये नये रूप धरकर सामने आ जाते हैं—कहीं वे अपराध और आतंक का चेहरा पहन लेते हैं, तो कहीं किसी ना किसी ताक़त के मद में पलते हैं।
तो फिर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है—आख़िर क्यों हर साल रावण को जलाने के बाद भी राक्षस फिर खड़े हो जाते हैं? क्यों अब कोई प्रभु राम नहीं आते?
शायद इसका उत्तर यह है कि प्रभु राम अब बाहर से नहीं आएँगे। अब वे हमारे भीतर से प्रकट होंगे। हर व्यक्ति को अपने अंतर्मन का राम जगाना होगा और अपने भीतर छिपे राक्षसों से युद्ध करना होगा।
जब तक हम ईर्ष्या, लालच, क्रोध और स्वार्थ जैसे ‘भीतरी रावणों’ को नहीं जलाते, तब तक असली विजयादशमी अधूरी ही रहेगी। प्रतीकात्मक तौर पर तो हमने लंका दहन/ रावण दहन आदि के नाम पर बुराई पर अच्छाई की विजय दिखा दिया, पर हम वास्तविक तौर पर कब इनसे निजात पाएंगे ।
त्योहार हमें केवल अतीत की घटनाओं की याद नहीं दिलाते, बल्कि यह भी सिखाते हैं कि लड़ाई अब हमारी है।
राम का धनुष और दुर्गा का त्रिशूल अब प्रतीक हैं उस शक्ति और साहस के, जिसे हमें स्वयं धारण करना है। अपने अंदर की बुराई और अहंकार को ख़त्म करना है । अपने अंदर के रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण को ख़त्म करना है ।
इसलिए हमें हर साल दशहरा मनाते समय यह संकल्प भी करना चाहिए कि हम केवल पुतले नहीं जलाएँगे, बल्कि अपने भीतर और समाज में पल रहे असली राक्षसों को पहचानकर उनका अंत भी करेंगे। तभी विजयादशमी का अर्थ पूरा होगा और तभी हमें बार-बार यह नहीं कहना पड़ेगा—“क्यों नहीं अब कोई प्रभु राम आते हैं?”
क्यों आएँगे प्रभू राम? प्रभू राम तो सर्वव्यापी हैं । कण कण में हैं । हमारे अंदर में हैं । हमें रावण पर विजय प्राप्त करना है तो हमें अपने भीतर के प्रभू राम को जागृत करना होगा।


श्री वर्मा जी ने परंपरागत रावण-दहन के उत्सव को केवल एक धार्मिक या सांस्कृतिक अनुष्ठान न मानकर, उसे मानव-मन के नैतिक संघर्ष से जोड़ते हुए नई व्याख्या दी है। ‘रावण बार-बार क्यों आता है’ — यह प्रश्न दरअसल समाज और व्यक्ति, दोनों के भीतर पल रही बुराइयों की निरंतर पुनरावृत्ति पर एक सशक्त टिप्पणी है। यहाँ रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण केवल पौराणिक पात्र नहीं, बल्कि लोभ, अहंकार, क्रोध, अन्याय और भ्रष्टाचार जैसे आधुनिक राक्षसों के प्रतीक रूप में उभरते हैं। श्री वर्मा जी यह भी रेखांकित करते हैं कि रावण केवल पुतलों में नहीं, बल्कि हमारे आचरण, विचार और सामाजिक व्यवस्था में भी जीवित है। जब तक हम अपने भीतर के राक्षसों को नहीं जलाएँगे, तब तक रावण बार-बार लौटता रहेगा और विजयादशमी का अर्थ अधूरा ही रहेगा।